ताज़ा ख़बर

लोक कलाओं को बचाने के साथ-साथ उसके विकास की भी दरकार

जोगिया, कुशीनगर। छठें लोकरंग के दूसरे दिन जोगिया गांव में लोक कलाओं का समय और स्वरूप पर चर्चा करने के लिए चौपाल बैठी जिसमें देश के कई हिस्सों से आए वरिष्ठ साहित्यकारों, रंग कर्मियों, पत्रकारों और लेखकों ने अपने विचार व्यक्त किए। चैपाल में वक्ताओं ने भूमण्डलीकरण के दौर में सांस्कृतिक खतरे की चर्चा की और कहा कि लोक कलाओं पर बाजार और सत्ता का हमला बढ़ा है। इस स्थिति में लोक कलाओं को बचाने के साथ-साथ उसके विकास की भी चिंता करनी होगी और उसे जनता के संघर्षो का हमसफर बनाना होगा। इस गोष्ठी का विषय प्रवर्तन करते हुए पटना से आए डा.तैयब हुसैन ने कहा कि तमाम दबाओं, संकटों के बावजूद लोक कलाओं ने अपनी पहचान नहीं खोई है। उन्होंने कहा कि आज के दौर में लोक कलाओं पर हमला बहुत तेज है। लोककलाओं के स्वरूप में परिवर्तन को रोका नहीे जा सकता लेकिन हमें कोशिश करनी होगी कि यह परिवर्तन आम लोगों के पक्ष में हो। डा.योगेन्द्र चौबे ने कहा कि लोक कलाओं में बदलाव इतिहास बोध, व परम्परा के साथ-साथ समय के अनुरूप होना चाहिए। कथाकार चरण सिंह पथिक ने राजस्थान में लोक कलाओं को बचाने के लिए किए जा रहे गैरसरकारी प्रयासों की चर्चा करते हुए जब तक किसान संस्कृति बची रहेगी लोक कलाएं जिंदा रहेंगी। रीवां विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष डा दिनेश कुशवाह ने लोक कलाओं में स्त्रियों की अभिव्यक्ति ज्यादा सहज और मुक्त बताते हुए कहा कि आज जब लोक शहर की तरफ पलायन कर रहा है, आज की सत्ता साहित्य व कला विरोधी है, तकनीकी विकास हमारी संवेदना का मशीनीकरण कर रहा है, यदि हम आज की जरूरत के मुताबिक परिष्कार नहीं करेंगे तो लोककलाएं डूब जाएागी। वरिष्ठ पत्रकार अशोक चैधरी ने लोककलाओं के विकास के लिए काम करने वाले संगठनों को सरकारी नजरिए का शिकार बनने से आगाह करते हुए कहा कि समाज की प्रतिरोधी चेतना की लोक रूपों में अभिव्यक्ति जीवन और समाज बदलने की ओर होनी चाहिए। डा मुन्ना तिवारी ने कहा कि आज लोक कलाओं में विकृति आ रही है उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि इसका विकास अनुकीर्तन की साधना से नहीं हो रहा है। वरिष्ठ कथाकार शिवमूर्ति ने कहा कि जिस तरह की ताकत लोक कलाओं में है, उस तरह की ताकत अभिव्यक्ति की क्षमता में नए रूप में कैसे आए, इस पर हमें सोचने की जरूरत है। रंग अभियान के सम्पादक अनिल पतंग ने लोक कलाओं के प्रति समाज के एक तबके की गलत सोच पर प्रहार करते हुए कहा कि लोक कला कभी अशिष्ट नहीं हो सकती है। जन संस्कृति मंच के राष्टीय सचिव मनोज कुमार सिंह ने कहा कि लोकसंस्कृति पर आए खतरों को भूमण्डलीकरण के कारण उत्पन्न सांस्कृतिक संकट के परिप्रेक्ष्य में देखने का आग्रह करते हुए कहा कि लोककलाओं के शक्तिशाली रूपों को जनवादी चेतना से लैस कर ही हम जनता को उसके संघर्ष का सहयोगी बना पाएंगे। इसके लिए हमें लोककलाकारों से जुड़ना होगा। डा वेदप्रकाश पांडेय ने लोकरंग के आयोजन की प्रशंसा की और इसे दूसरे स्थानों पर भी आयोजित करने पर बल दिया। वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन ने कहा कि आज का समय लोक संस्कृति को निगल रहा है। आज सकारात्मक साहित्य, संस्कृति ही नही सकारात्मक राजनीति भी खतरे में है। आज जब आदिवासियों, किसानों का जीवन ही संकट में है तो उनकी संस्कृति और लोक कलाएं कैसे बचेंगी, यह एक बड़ा सवाल है। संचालन कर रहे समकालीन जनमत के सम्पादक मंडल के सदस्य केके पांडेय ने अपनी टिप्पणी में कहा कि लोकरंग जैसे आयोजनो को लोककलाओं के बचाने और उनके जनवादी विकास के लिए निरन्तर विमर्श करना होगा और उसे कार्यरूप में बदलना भी होगा। उधर, लोकरंग के दूसरे दिन गोष्ठी में जन संस्कृति मंच द्वारा महराष्ट में कबीर कला मंच के कलाकारों पर सरकारी दमन का पुरजोर विरोध करते हुए एक प्रस्ताव लाया गया जिसे सर्वसम्मत से पारित कर दिया गया। इस प्रस्ताव में कबीर कला मंच की शीतल साठे और सचिन माली को तत्काल रिहा करने, उनके खिलाफ बनाए गए झूठे केस को समाप्त करने तथा कबीर कला मंच को अपनी गतिविधिया चलाने के लिए पूरी स्वतंत्रता देने की मांग की गई है।
  • Blogger Comments
  • Facebook Comments

0 comments:

Post a Comment

आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।

Item Reviewed: लोक कलाओं को बचाने के साथ-साथ उसके विकास की भी दरकार Rating: 5 Reviewed By: newsforall.in