ताज़ा ख़बर

बदलते उत्तर प्रदेश में बेचारे बछड़े..!

तारकेश कुमार ओझा 
कहते हैं यात्राएं अपनी मर्जी से नहीं होती। ये काफी हद तक संयोग पर निर्भर हैं। क्या यही वजह है कि लगातार छह साल की अनुपस्थिति के बाद नवरात्र के दौरान मुझे इस साल तीसरी बार उत्तर प्रदेश जाना पड़ा। अपने गृहजनपद प्रतापगढ़ से गांव बेलखरनाथ पहुंचने तक नवरात्र की गहमागहमी के बीच सब कुछ मनमोहक लग रहा था। लेकिन जल्द ही जबरदस्त बिजली कटौती ने मुझे परेशान करना शुरू किया। रात के अंधेरे में बेचैनी से बिजली आने की प्रतीक्षा के बीच जगह-जगह से टिमटिमाती टार्च की रोशनी देख मैं चिंतित हो उठा। मुझे अनहोनी की आशंका होने लगी। क्योंकि बचपन के दिनों में अपने गृह प्रदेश की यात्राओं के दौरान चोर-डाकू के साथ जंगली जानवरों का खतरा भी लोगों पर रात का अंधेरा गहराते ही मंडराने लगता था। मुझे लगा क्या अब भी ऐसा खतरा बरकरार है।आखिर क्यों लोग इतने बेचैन हैं और किनसे रक्षा के लिए जगह-जगह से टार्च की रोशनी मारी जा रही है। बेचैनी से रात गुजरी और सुबह होने पर मैने संबंधियों से इसका जिक्र किया तो पता चला कि यह सब परित्यक्त बछड़ों व सांढ़ से बचाव के लिए किया जाता है। पिछले कुछ महीनों में जिनकी संख्या तेजी से बढ़ी है। परित्यक्त होने से ये बछड़े या सांढ़ आवारा घूमने को अभिशप्त हैं और रात का अंधेरा होते ही वे चारा व पानी की तलाश में गांवों में घुसने लगते हैं। उन्हें पूरी रात इधर से उधर खदेड़ा जाता है। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का जिक्र आते ही हमारे मन - मस्तिष्क में वहां की कानून व्यवस्था से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य, सड़कें व जल तथा बिजली आपूर्ति व्यवस्था की बात कौंधने लगती है। उत्तर प्रदेश की पहचान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आभामंडल से लेकर अखिलेश यादव के खानदानी लड़ाई-झगड़े से भी होने लगी है। लेकिन राज्य के हालिया दौरे में मैने पाया कि वहां कई ऐसी समस्याएं हैं जो स्थानीय किसानों को परेशान कर रही है। लेकिन उसकी चर्चा कहीं नहीं होती। हमारे राष्ट्रीय चैन्ल्स बस उत्तर प्रदेश के नाम पर भाजपा बनाम अखिलेश-मायावती की चर्चा करके ही टीआरपी बढ़ाने की कोशिश करते रहते हैं। प्रदेश में रोजगार की तलाश में पलायन का सिलसिला बदस्तूर जारी है। वहीं तमाम दावों के बावजूद खेती अब भी घाटे का सौदा साबित हो रही है। विकल्पों के अभाव में खेती अधिया या तिहिया पर दी जा रही है। प्राकृतिक आपदा को छोड़ भी दें तो अब तक खेतों में खड़ी-फसल के नील गाय और जंगली सुअर मुख्य शत्रु माने जाते थे। जिनसे बचाव के लिए किसानों को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। अक्सर इनसे बचाव की तमाम कोशिशें बेकार ही साबित होती है। अब प्रतिद्वंदियों में मवेशी खास तौर से परित्यक्त बछड़े और सांढ़ भी शामिल हो गए हैं। जो हर गांव में पालकों के अभाव में इधर - उधर भटकने को मजबूर हैं। पशु वध निषेध कानूनों के चलते पिछले कुछ महीनों में प्रदेश में मवेशियों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। जबकि किसान इनके पालन-पोषण पर होने वाले अत्यधिक खर्च से पहले से परेशान थे। यही वजह है कि प्रजनन के बाद बछड़ों को त्याग देने का जो सिलसिला पहले से चला आ रहा था, उसमें अब बेहिसाब बढ़ोत्तरी होने लगी है। क्योंकि मशीनीकरण के चलते बैलों की उपयोगिता पहले ही लगभग खत्म हो चुकी थी। संख्या बढ़ने से उनके सामने नई मुसीबत खड़ी हो गई है। वे न तो इन्हें बेच सकते हैं और न अपने पास रख ही सकते हैं। लिहाजा उन्हें त्यागने के नए-नए तरकीब इजाद किए जा रहे हैं। बेटियों की तर्ज पर घर मे बछड़े के जन्म लेते ही मातम छा जाता है। बूढ़ी गायों और बछड़ों के संरक्षण का धंधा शुरू हो जाने की चर्चा भी ग्रामांचलों में सुनाई पड़ी। बूढ़ी गाय और बछड़ों से छुटकारे का जो तरीका संज्ञान में आया वह काफी पीड़ा दायक है। ग्रामीणों ने बताया कि त्याग दिए जाने वाले पशुओं को इकट्ठा कर उन्हें गांव से दूर किसी नदी के दूसरी ओर ले जाया जाता है। वहां सामान्य पूजा पाठ के बाद उनके नाजुक अंगों पर कुछ द्रव्य का छिड़काव किया जाता है। जिसकी जलन से मवेशी बेहताशा भागने लगते हैं। इसका बुरा असर उनकी याददाश्त पर भी पड़ता है और फिर वे अपने पालक के घर लौटने के बजाय इधर-उधर भटकने लगते हैं। इस प्रक्रिया से पालकों को भले राहत मिलती हो लेकिन बेचारे मवेशी कहां जाएं। वे घूम-धूम कर भोजन और पानी की तलाश में रिहायशी इलाकों में आते रहते हैं। जिनसे बचाव के लिए ग्रामीण पूरी-पूरी रात उन्हें इधर से उधर खदेड़ते रहते हैं। कदाचित इन्हीं कारणों से विद्युत संकट के बीच मुझे अपने गांव में रात भर अनेकों टार्च लाइट्स जगमगाते नजर आए। सच्चाई से अन्जान होने की वजह से आज के जमाने में टार्च लाइट्स की रोशनी मुझे रहस्यमयी लगी थी। मैं अनहोनी की आशंका से परेशान होने लगा। लेकिन जब मुझे पता लगा कि यह अवांछित मवेशियों को खदेड़ने के लिए किया जा रहा है तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। बेचैन मन से मैने सत्ता समर्थक लोगों से इस पर बात की तो पता लगा कि समस्या के समाधान की कोशिश जारी है। जल्द ही राज्य में कान्हा योजना चलाई जाएगी। जिसमें इन परित्यक्त गो वंश को रखा जाएगा। इस पर होने वाले खर्च के जुगाड़ पर भी मंथन हो रहा है। इस आश्वासन से मुझे तनिक ही सही लेकिन राहत मिली।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
  • Blogger Comments
  • Facebook Comments

0 comments:

Post a Comment

आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।

Item Reviewed: बदलते उत्तर प्रदेश में बेचारे बछड़े..! Rating: 5 Reviewed By: newsforall.in