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ढलान पर है मोदी और भाजपा की लोकप्रियता?

नई दिल्ली (अभय कुमार दुबे, एसोसिएट प्रोफ़ेसर, सीएसडीएस)। गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजे बताते हैं कि ग्रामीण मतदाताओं के बीच भारतीय जनता पार्टी की लोकप्रियता अब पहले जैसी नहीं रही. इससे ठीक पहले बिहार विधानसभा के चुनावों में नरेंद्र मोदी अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा को दयनीय पराजय से नहीं बचा पाए. बिहार में शहरीकरण की रफ़्तार बहुत सुस्त होने के कारण उसकी आबादी आज भी ज़्यादातर देहाती मिजाज़ की है. इन दो चुनाव-नतीजों की वजह से समीक्षकों द्वारा यह अंदाज़ा लगाना स्वाभाविक ही है कि गाँव के वोटरों की राजनीतिक प्राथमिकताओं में मोदी का स्थान अब नीचे की तरफ़ जा रहा है. मोटे तौर पर यह आकलन ठीक लगता है, लेकिन किसी ठोस नतीजे पर पहुँचने से पहले हमें राजनीतिक हालात के कुछ और पहलुओं पर विचार कर लेना चाहिए. मसलन, हमें भाजपा और मोदी के हालिया चुनावी प्रदर्शनों के मद्देनज़र यह देखना चाहिए कि ग्रामीण और शहरी मतदाताओं के रवैये में बुनियादी अंतर क्या है? देहाती वोटर जिस मायने में शहरी वोटरों से अलग होते हैं, वह है राजनीतिक पार्टी के प्रति वफ़ादारी का मामला. समझा जाता है कि गाँव के लोग किसी एक पार्टी के प्रति वोट देने के मामले में ज़्यादा समय तक वफ़ादार रहते हैं, जबकि शहरी मतदाता अपनी वोटिंग प्राथमिकताएँ उनके मुकाबले ज़्यादा जल्दी-जल्दी बदलते हैं. इसी के साथ-साथ इस विषय में एक और बात ग़ौर करने लायक है. पिछले तीस साल के मतदान रवैये का अगर अध्ययन किया जाए, तो भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस देहाती वोट प्राप्त करने के मामले में आगे नज़र आती है, और शहरी वोटरों ने अक्सर कांग्रेस के मुक़ाबले भाजपा को पसंद किया है. मुश्किल यह है कि वोटिंग की प्राथमिकताओं से जुड़े ये मोटे-मोटे निष्कर्ष हमारी उलझनों को आसान नहीं कर पाते. 2009 के लोकसभा चुनाव में देहाती वोटरों ने ही नहीं शहरी मतदाताओं ने भी भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस को पसंद किया था. 2014 में नज़ारा बदला, और लोकसभा चुनाव में शहर ही नहीं, बल्कि देहात के वोटर भी भाजपा की तरफ़ बड़े पैमाने पर झुकते नज़र आए. ये दोनों उदाहरण बताते हैं कि न केवल शहरी वोटर अपनी प्राथमिकताओं को फटाफट बदलते लग रहे हैं, बल्कि ग्रामीण वोटर भी इस मामले में उनसे पीछे नहीं हैं. पिछले डेढ़ साल के चुनावी तजुर्बे से भी यही बात साबित होती है. अगर भाजपा शहरी वोटरों की प्रिय पार्टी है तो फिर इसका कुछ न कुछ असर दिल्ली विधानसभा के चुनाव में दिखना चाहिए था. लेकिन पिछले पौने दो साल में यह पार्टी राजधानी में दो बार चुनाव हार चुकी है, पहली बार थोड़े अंतर से और दूसरी बार बुरी तरह. और तो और, भाजपा दिल्ली में पिछले सत्रह साल से कोई विधानसभा चुनाव नहीं जीती है, जबकि उसके पूर्व-संस्करण जनसंघ को पहला चुनावी उछाल दिल्ली की जनता से ही मिला था. बिहार में भी इस पार्टी का प्रदर्शन न केवल ग्रामीण क्षेत्रों में खराब रहा, बल्कि नीतीश-लालू की जोड़ी ने उसे शहरी क्षेत्रों में भी ज़बरदस्त पटकनी दी. इस लिहाज़ यह कहा जा सकता है कि यह पार्टी 2014 के चुनावों में अपना शिखर छूने के बाद अब धीरे-धीरे उतार की तरफ़ जा रही है. क़ायदे से देखा जाए तो लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा ने केवल हरियाणा चुनाव में ही पूर्ण बहुमत हासिल किया है. महाराष्ट्र, झारखंड और कश्मीर के चुनावों के बाद उसकी सरकारें राजनीतिक जोड़तोड़ का परिणाम हैं. यह विश्लेषण मोदी के चुनावी प्रदर्शन पर भी सवालिया निशान लगाता है. 2002 में अपना पहला गुजरात चुनाव मोदी ने उस साम्प्रदायिक हिंसा के साये में जीता था, जिसकी तोहमत का उन्हें आज तक सामना करना पड़ता है. वह एक असाधारण परिस्थिति में लड़ा गया चुनाव था. 2007 तक आते-आते गुजरात में कांग्रेस का संगठन बहुत कमज़ोर हो चुका था जिसके कारण मोदी को कभी वास्तविक चुनौती नहीं मिली. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपने राजनीतिक जीवन के सबसे खराब दौर से गुज़र रही थी. दरअसल, वह चुनाव लड़ने से पहले ही हारी हुई मानसिकता में जा चुकी थी. इस ऐतिहासिक जीत के बाद मोदी को पहली बार असली टक्कर दिल्ली में मिली, जहाँ उनके मुकाबले मज़बूत नेता और प्रभावी संगठन था. मोदी चारों खाने चित हुए. उन्हें दूसरी मज़बूत चुनौती बिहार में मिली जहाँ दो नेताओं ने मिल कर प्रभावी मोर्चा बनाया और मोदी एक बार फिर धराशायी हो गए. यानी, जब भी मोदी को ज़ोरदार चुनौती मिलती है, वे मैदान में नहीं टिक पाते. अब उन्हें अगले साल पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पांडिचेरी के चुनाव लड़ने हैं. हर जगह उन्हें तगड़े नेतृत्व से भिड़ना होगा. अगर वे इनमें से कोई चुनाव नहीं जीते तो 2017 में लगातार सात चुनाव हारने के बाद पहुँचेंगे. यह समझना मुश्किल नहीं है कि उस सूरत में भाजपा का राष्ट्रीय मनोबल किस स्थिति में होगा. (लेखक विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस) में एसोसिएट प्रोफ़ेसर और भारतीय भाषा कार्यक्रम के निदेशक हैं) साभार बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम
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