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जहां स्वार्थ समाप्त होता है मानवता वहीं से प्रारम्भ होती हैः आचार्य मृदुल कृष्ण

ऋषिकेश। मानव योनि में जन्म लेने मात्र से जीव को मानवता प्राप्त नहीं होती। यदि मनु योनि में जन्म लेने के बाद भी उसमें स्वार्थ की भावना भरी हुई है तो वह मानव होते हुए भी राक्षसी वृत्ति के पायदान पर खड़ा रहता है। यदि व्यक्ति स्वार्थ की भावना को त्याग कर हमेशा परमार्थ भाव से जीवनयापन करे, तो निश्चित रूप से वह एक अच्छा इन्सान है, यानी सुदृढ़ मानवता की श्रेणी में खड़ा होकर सेवा कार्य में रत रहता है। क्योंकि परमार्थ की भावना ही व्यक्ति को महान बनाती है। परमार्थ गंगातट पर पिछले गुरुवार से चल रही श्रीमद् भागवत कथा के पांचवें दिन वृन्दावन के प्रख्यात भागवत कथा वाचक आचार्य श्री मृदुल कृष्ण जी महारज ने कहा कि कंस ने स्वयं को सब कुछ समझ लिया था। वह मान बैठा था कि हमसे बड़ा कोई नहीं है। जो हमसे बड़ा बनना चाहे, या हमारा विरोधी हो उसको मार दिया जाये। ऐसा निश्चय कर उसने आदेश दिया कि व्रज क्षेत्र में जितने बालक पैदा हुए हैं उन्हें मार डालो। माखन चोरी लीला प्रसंग पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए आचार्यश्री ने कहा कि दूध, दही, माखन को खा-खा कर कंस के अुनचर बलवान होकर अधर्म को बढ़ावा दे रहे थे, इसलिए श्रीकृष्ण ने दूध, दही, माखन को मथुरा कंस के अनुचरों के पास जाने से रोका और छोटे-छोटे ग्वाल वालों को खिलाया जिससे वे ग्वाल-बाल बलवान बनें और अधर्मी कंस के अनुचरों को परास्त कर सके। भगवान श्रीकृष्ण ग्वाल-वालों से इतना प्रेम करते थे कि उनके साथ बैठकर भोजन करते-करते उनका जूठन तक मांग लेते थे। आचार्य श्री मृदुल कृष्ण जी ने कहा कि हम जीवन में वस्तुओं से प्रेम करते हैं और मनुष्यों का उपयोग करते हैं। ठीक तो यह है कि हम वस्तुओं का उपयोग करें। प्रभु की माखन चोरी लीला हमें यही शिक्षा प्रदान करती है।
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