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आचार्य सम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. का आह्वान, बहाएं प्रेम की गंगा

प्रेम जीवन और जगत् की वह महान् शक्ति है, जिससे न केवल परिवार और समाज की वरन् राष्ट्र और विश्व की अनगिनत समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। अगर दुनिया में प्रेम न होता तो यह दुनिया चार दिन भी जीने के काबिल नहीं रहती। प्रेम ही वह रसधार है जिससे जीवन में समरसता और आनंद का संचार होता है। प्रेम न तो देखा जाता है, न चखा जाता है, न सूंघा जाता है, वह तो मात्र अनुभव किया जा सकता है। प्रेम कोई लेन-देन की चीज नहीं है। वह अनुभूति का आस्वाद है, इसलिए प्रेम के विषय में कुछ लिखना भी कठिन है। प्रेम स्थूल नहीं सूक्ष्म है और सूक्ष्म तत्त्व को दुनिया नहीं जान सकती। दुनिया के लोग तो राग को समझ सकते हैं पर प्रेम की गहराई को नहीं जान पाते। जो अखण्ड रहे वह प्रेम है, जो टूट जाए वह प्रेम नहीं हो सकता। लोग कहते हैं- ‘मेरा उनसे बहुत प्रेम था पर अब वह प्रेम टूट गया’ तो समझ लेना कि वह प्रेम नहीं था। वर्तमान युग में प्रेम का रूप ही बदल गया है। वासना, आकर्षण और कामना को प्रेम का रूप दे दिया गया जिससे कई समस्याएं व प्रश्न अवतरित हुए हैं। भक्तिसूत्र में नारद ने प्रेम की यथार्थता को बताते हुए मुख्य रूप से दो तत्वों को समझाया है। पहला तत्व है ‘गुणरहित’ और दूसरा तत्व है ‘कामनारहित’ अर्थात् प्रेम गुणरहित और कामनारहित होता है। प्रेम का आधार गुण नहीं हो सकता। यदि कोई कहे कि तुम बहुत गुणों के धारक हो, इसलिए मैं तुमसे प्रेम करता हूं। तुम बहुत बुद्धिमान हो, त्यागी हो, समझदार हो इसलिए मैं तुमसे प्रेम करता हूं। यह प्रेम नहीं मात्र प्रेमाभास है। जब तक गुण दिखेंगे तभी तक प्रेम टिकेगा क्योंकि संसारी प्राणी के गुण सदा नहीं टिकते। आज एक व्यक्ति में उदारता दिखाई देती है तो कल भी उसमें उदारता होगी ही यह संभव नहीं है। जो गुणों को देखकर प्रेम करेंगे वे दोषों को देखकर द्वेष भी करेंगे। इसलिए नारदजी ने प्रेम को निर्गुण बनाने की प्रेरणा दी है। प्रेम का दूसरा तत्व है ‘कामना से रहित होना।’ अन्यथा जब इच्छा पूरी नहीं होगी तब प्रेम नष्ट हो जायेगा। जहां कामना से प्रेम होता है वहां मन में स्वार्थ की भावना आ जाती है। अतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए ‘प्रेम’ शब्द की गहराई को जानना जरूरी है। जो लोग प्रेम का स्वरूप नहीं जानते, विविध कामनाओं में भटक जाते हैं। इस दुनिया में माता अपने बच्चे को प्रेम करती है, वरन् अपने भाई से प्रेम करती है, पिता अपने पुत्र से प्रेम करता है, पत्नी अपने पति से प्रेम करती है किन्तु वे सब प्रेम का वास्तविक स्वरूप नहीं जानते। प्रेम क्या है? प्रेम आकाश की तरह अनन्त व सागर के समान गहरा है। प्रेम की सुगंध सभी खुशबुओं से श्रेष्ठ, प्रेम का स्वाद सभी व्यंजनों से स्वादिष्ट है। प्रेम एक ऐसा रसायन है जो विष को भी अमृत में परिवर्तित करने की शक्ति रखता है। यदि इस धरती पर प्रेम नहीं होता तो यह धरती किसी के लायक नहीं रहती। यहां कबीर का जगत प्रसिद्ध दोहा स्मरण में आ जाता है- पोथी पढि़-पढि़ जग मुआ, पण्डित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पण्डित होय।। परमात्मा के प्रेम में विभोर होकर मीरा विष को भी अमृत बना जाती है तो प्रेम में डूबकर ही राधा वृंदावन की कुंज गलियों में रास रचाने लगती है, जब प्रेम ईश्वर (भगवान) के प्रति हो तो भक्ति बन जाता है। भक्ति रूपी प्रेम में सराबोर शबरी ने राम को झूठे बेर खिलाए, विदूर की शाक-भाजी सुदामा के चावल खाए कृष्ण ने। यह सब प्रेम ही था। प्रभु महावीर भी गौतम स्वामी से कह उठे- हे गौतम! तेरा-मेरा स्नेह-अनुराग एक भव का नहीं, कई भवों का है। तभी प्रभु महावीर के निर्वाण के अवसर पर गौतम गणधर फूट-फूट कर रो पड़े। महात्मा गांधी ने कहा है- ‘प्रेम ही संसार की सूक्ष्मतम् शक्ति जिसने दुनिया पर शासन किया है।‘ इसलिए कहा भी है- किसी को जीतना है हृदय के प्यार से जीतो। कटु व्यवहार से नहीं, मधुर व्यवहार से जीतो।। प्रकृति की हर वस्तु प्रेम की प्यास लिए हुए है, प्रेम केवल व्यक्तियों तक ही सीमित नहीं रहे, बल्कि समस्त जीव जगत् परमात्मा तक विस्तार होने में ही उसकी सार्थकता है। पर प्रारम्भ हम परिवार से करें। आज हम देख रहे हैं कि हर परिवार तनाव के दौर से गुजर रहा है क्योंकि प्रेम की रसधार सूख गयी है। फलस्वरूप हर घर क्लेश की कालिमा से द्वेष के दावानल से सुलग रहा है, जहां स्नेह नहीं होता वहां सहिष्णुता की भावना नहीं होती, परस्पर सामंजस्य की भावना नहीं होती है। भाई-भाई में प्रेम होना चाहिए राम-भरत जैसा। सास-बहु का प्रेम होना चाहिए सीता-कौशल्या जैसा। गुरु-शिष्य का प्रेम हो महावीर-गौतम जैसा।। कैसी भी परिस्थिति में भी प्रेम को निभाने के लिए तत्पर रहना चाहिए। प्रेम कांच के बर्तन जैसा नहीं होना चाहिए जो हल्की सी टक्कर लगने पर टूट जाये, प्रेम होना चाहिए, दूध-पानी के समान। यदि एक बार प्रेम टूट जाता है तो- रहिमन धागा प्रेम का, मत छोड़ो छिटकाय। टूटे सो फिर ना जुड़े, जुड़े तो गांठ पड़ जाये।। इसलिए प्रेम के सूत्र को तोड़ने का अवसर नहीं आने देना चाहिए। प्रेम के कई रूप हैं- जब प्रेम दीन-दुःखी, जीव-जन्तु के साथ जुड़ता है तो वह करुणा का रूप ले लेता है। जब वह सामान्य मनुष्य के साथ जुड़ता है तो वह मैत्री का रूप लेता है, और यदि परमात्मा के साथ जुड़ता है तो भक्ति का रूप ले लेता है। वह प्रेम धन्य होता है जो प्रार्थना का रूप ले लेता है। प्रभु महावीर को प्रेम सर्व-जीवों के प्रति था उनका जीवन करुणा का सागर था। यही वजह थी कि उन्होंने विष से भरे सर्प को अमृत से भर दिया। परमात्मा के साथ प्रेम जोड़ा था सुदर्शन ने, सुलसा ने, अमर कुमार ने, जिन्होंने प्राणों की परवाह तक नहीं की। महावीर और बुद्ध के युग में अहिंसा और करुणा मानवता के हित के लिए प्रसारित हुई। पर आज स्वार्थ और आतंक भरी दुनिया में इन सबके स्थान पर प्रेम मानवता के समाधान का हिस्सा बन सकता है। जरुरत है प्रेम भरे व्यवहार की। भले वह कैसा भी सम्बन्ध हो उसमें स्नेह की सरिता, प्रेम की पवितत्र गंगा बहती है तो जीवन की गगियां खिल सकती है। प्रेम की भाषा जो एक बार जान गया। सचमुच वह आदमी को पहचान गया।। पाष्चात्य संस्कृति की नकल करने में वर्तमान समय में प्रेम के स्वरूप में परिवर्तन आ रहा है। आज विषुद्ध प्रेम के स्थान का स्थान फूहड़ता/उच्छृंखलता लेती जा रही है। इस बदलते परिवेष में आज का युवक प्रेम के नाम से दिग्भ्रमित हो रहा है। प्रेम की सात्विकता और निष्काम भावना प्रायः समाप्त होती जा रही है। यदि प्रेम के सम्बन्ध में इसी प्रकार का दृष्टिकोण और आचरण रहा तो मुझे लगता है कि प्रेम का मौलिक स्वरूप ही नष्ट हो जायगा। प्रेम का समर्पण भाव कहीं भी देखने को नहीं मिलेगा। अतः इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवष्यकता है और पाष्चात्य संस्कृति का त्याग कर भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में प्रेम पर विचार और आचरण करने की आवष्यकता है। ऐसा करना मानवता के हित में है। यदि ऐसा हुआ तो मानव-मानव के बीच पनप रही घृणा समाप्त हो जायगी और प्रेम का निर्झर फूट पड़ेगा।
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