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भाजपा की राजनीति में राजनाथ के ‘फिजिकल फार्मूले’

राजीव रंजन तिवारी सियासत संभावनाओं और उम्मीदों का खेल है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में आजकल लोकसभा चुनाव-2014 के मद्देनजर सियासी संभावनाओं और उम्मीदों का खेल चल रहा है। इसके ताजा सूत्रधार हैं देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह। भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) से स्नातकोत्तर (पीजी) करने वाले राजनाथ सिंह की राजनीतिक कुटनीति ने अच्छे-अच्छों के पसीने छुड़ा दिए हैं। यूं कहें कि राजनाथ के ‘फिजिकल फार्मूले’ के आगे गैर-भाजपाई ही नहीं, पार्टी के भीतर के विरोधी भी चारों-खाने चित हो गए हैं। दरअसल, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के नाम पर राजनाथ सिंह ने जितना शेफ गेम खेला है, उसकी दाद दी जानी चाहिए। अपनी बौधिक कला से उन्होंने न सिर्फ मोदी को संतुष्ट किया है बल्कि उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित न कर पार्टी के भीतर की राजनीति को भी थामने की सफल कोशिश की है। इतना ही नहीं मोदी को अपेक्षा के अनुरूप अहमियत न देकर राजनाथ सिंह ने यह भी बताने की कोशिश की है कि वे अपने हिसाब से काम करेंगे, किसी के दबाव में नहीं। राजनाथ की इस शैली से गैर-भाजपा दलों की भी बोलती बंद हो गई है। यही वजह है कि मोदी के पार्लियामेंट्री बोर्ड के मेंबर बनने पर अन्य दलों द्वारा भी कोई खास हो-हल्ला नहीं मचाया गया है। यूं कहें कि सबको साधते हुए आगे बढ़ने के कौशल के मद्देनजर भाजपा प्रमुख राजनाथ सिंह की तारीफ की जानी चाहिए। फिलहाल भारतीय राजनीति में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का नाम खूब गूंज रहा है। यह गूंज इसलिए नहीं कि वे बहुत बड़े नेता हैं, वह गूंज इसलिए है कि वे गोधरा कांड के अगुवा हैं। उनमें गैर-हिन्दु बिरादरी के लोगों को मारने-मरवाने की क्षमता है। निश्चित रूप से इस गूंज के बीच भाजपा के लिए तमाम चुनौतियां भी गूंज रही हैं। उन चुनौतियों को संभालना शायद सबके बश की बात नहीं, लेकिन राजनाथ सिंह ने बड़े ही शातिराना अंदाज में उन चुनौतियों को स्वीकार किया है और दबी जुबान से यह बताने की कोशिश की है कि ‘मोदी जी औकात में रहिए’। बेशक भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मोदी को पार्टी की सबसे बड़े नीति निर्धारण फोरमों पार्लियामेंटरी बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति में इज्जत से जगह दी, लेकिन पार्टी के आम कार्यकर्ता और युवा भारत के बड़े तबके से भारत के नए ‘विकास पुरुष’ मोदी को अगले प्रधानमंत्री का सबसे काबिल दावेदार घोषित करने की कर्णभेदी आवाज़ों को पार्टी ने फिलहाल अनसुना करने में ही अपनी खैरियत समझी। हांलाकि यूपीए और खास तौर पर कांग्रेस जब अपनी सबसे कमज़ोर हालत में है तो मोदी जैसा विकास के साबित रिकार्ड वाला दबंग नेता वर्तमान सत्ता प्रतिष्ठान का शिराजा बिखेरने के अभियान में सबसे कारगार हथियार हो सकता है। फिर भाजपा पीछे क्यों हटी? इस अंदेशे में कुछ सच्चाई तो है। मोदी को आगे करते ही नीतीश कुमार की कमान वाला जदयू, यूपीए के संग जाने की नासमझी दिखाने की बजाय अलग मोर्चे की कोशिश कर सकता है। इस बात में भी कुछ दम है कि मोदी को लाते ही गुजरात के शर्मनाक दंगों को लेकर मोदी पर हमलों का नया दौर शुरु हो सकता है और पार्टी को आक्रामक की बजाय रक्षात्मक रुख अपनाना पड़ सकता है, लेकिन देश में जड़ें जमा चुके सत्ता विरोधी माहौल के मद्देनज़र मोदी को आगे करने के फायदों को पार्टी ने अगर अभी अनदेखा कर दिया है तो उसकी सिर्फ यही दो वजहें नहीं हैं। बड़ी वजह शायद ये है कि पार्टी के प्रधानमंत्री पद के दूसरे आकांक्षी अभी मोदी का जलवा कुबूल करने के लिए राज़ी नहीं हैं। अब चर्चा राजनाथ सिंह के सियासी कौशल की। दिसंबर 2009 में राजनाथ सिंह के बाद अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी आए थे। अब 2013 की शुरुआत में जबर्दस्त उलटफेर में गडकरी भाजपा अध्यक्ष पद की दौड़ से बाहर हो गए और दूसरी बार आम सहमति से राजनाथ सिंह की भाजपा अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी हुई। पार्टी के पास निश्चित तौर पर कुछ विकल्प थे लेकिन सिंह की निर्विवाद और प्रतिद्वंद्वियों के बीच बेहतर छवि ने उनके नाम पर सहमति बनाने में मदद की। कॉलेज में भौतिकी के व्याख्याता के रूप में अपने करियर की शुरूआत करने वाले राजनाथ सिंह का पार्टी में धीरे-धीरे उदय हुआ। 2006 से 2009 के दौरान भाजपा प्रमुख के तौर पर उन्होंने काफी प्रतिष्ठा हासिल की और दिखा दिया कि चाहे मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी हो या केंद्रीय मंत्री या फिर पार्टी की कमान, वे कुशलता से जिम्मेदारी निभा सकते हैं। भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी के बाद 2005 में भाजपा की बागडोर संभालने वाले राजनाथ सिंह ने पार्टी को एकजुट किया और उसकी मूल विचारधारा हिंदुत्व पर ध्यान केंद्रित किया। तब उन्होंने कहा कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में कोई समझौता नहीं होगा। यह अलग बात रही कि 2009 में पार्टी को केंद्र में सत्ता में लाने में नाकामी तो मिली ही, साथ ही 2004 की तुलना में पार्टी को 22 सीटें भी कम मिलीं। वर्ष 1964 में 13 वर्ष की अवस्था में ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े। कदम-दर-कदम आगे बढ़ने वाले राजनाथ सिंह ने 1969 में गोरखपुर में भाजपा की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में सचिव पद से राजनीतिक कैरियर की शुरूआत की। 1974 में वे जनसंघ के मिर्जापुर इकाई के सचिव बने। आपातकाल के दौरान जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल हुए और जेल गए। पहली बार 1977 में राजनाथ सिंह विधायक बने और 1977 में ही भाजपा के राज्य सचिव बने। कई बार केंद्र में मंत्री बने। इसी बीच 28 अक्टूबर 2000 को वे राम प्रकाश गुप्ता की जगह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 2002 तक वे राज्य के मुख्यमंत्री रहे। इस नए दौर में बतौर अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भाजपा के विरोधाभास और अंतर्कलह को समझना जरूरी है। हालांकि यह थोड़ा मुश्किल है, फिर भी इसे करना ही होगा और वे अपने आरंभिक शिक्षा के अनुरूप फिजिकल फार्मूले के सहारे सियासत की इबारत लिख भी रहे हैं। फिलहाल भाजपा में यह पता नहीं चल रहा है कि कौन किससे लड़ रहा है, क्योंकि स्थिति यह है कि सब एक-दूसरे से लड़ रहे हैं। एक लड़ाई भाजपा के नेताओं के बीच चल रही है, यह वर्चस्व की लड़ाई है। भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री बनने की रेस लगी है। उन्हें लगता है कि भ्रष्टाचार और महंगाई की वजह से पार्टी 2014 का चुनाव बिना किसी मेहनत के जीत जाएगी। इसलिए प्रधानमंत्री बनने का सपना पालने वालों की लाइन लंबी होती जा रही है। अंदर ही अंदर षड्यंत्र और गुटबंदी जोरों पर है, लेकिन उसका पटाक्षेप होना अभी बाक़ी है। फ़िलहाल लड़ाई दूसरे स्तर पर हो रही है। भाजपा और संघ के बीच घमासान चल रहा है। संघ चाहता है कि भाजपा उसके इशारे पर चले, उसकी विचारधारा और फैसलों को प्राथमिकता दे, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के कई नेता संघ का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि संघ की विचारधारा और काम करने का तरीक़ा न स़िर्फ संकीर्ण है, बल्कि आज के राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण के लिए अनुचित है। आपसी फूट, अविश्वांस, षड्यंत्र, अनुशासनहीनता, ऊर्जाहीनता, बिखराव एवं कार्यकर्ताओं में घनघोर निराशा के बीच चुनाव दर चुनाव हार का सामना वर्तमान में भाजपा की नियति बन गई है। ऐसे वक्त में भारतीय जनता पार्टी को चलाने के लिए राजनाथ सिंह को कड़ी मेहनत करनी होगी। अब देखना है कि वे इसे किस तरह आगे बढ़ाते हैं।
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