मुम्बई। ‘चश्मे बद्दूर’ कहानी है तीन दोस्तों की जिसमें दो दोस्त मिलकर तीसरे को उसकी गर्लफ्रेंड से दूर करने की कोशिश करते हैं। सिद्धार्थ कश्यप (अली ज़फर), जय (सिद्धार्थ) और ओमकार यानी ओमी (दिव्येंदु शर्मा) तीन पक्के दोस्त हैं जो एक किराये के घर में रहते हैं। वो कई बार पैसों की कमी की वजह से किराया नहीं दे पाते। इनकी मकान मालकिन जोसफीन का किरदार अदा किया है लिलेट दुबे ने जिनका दिल काफी अच्छा है इसलिए वो इन तीनों को घर से निकाल नहीं पाती।
फिल्म का पहला हिस्सा मनोरंजक है। ये तीनों दोस्त अपने खर्चे और खाने पीने के लिए एक कैफे मालिक जोसेफ (ऋषि कपूर) पर निर्भर रहते हैं। जोसेफ एक अधेड़ उम्र का कुंवारा शख्स है। उसका दिल भी खासा बड़ा है इसलिए वो इन लड़कों के नखरे उठाता है। एक दिन जय और ओमी सीमा रंजन (ताप्सी पन्नू) को देखते हैं और उन्हें देखते ही उससे प्यार हो जाता है। सीमा अपने पिता (अनुपम खेर) के घर से भाग आती है और अपने अंकल (अनुपम खेर, डबल रोल में) और अपनी दादी (भारती अचरेकर) के पास रहने आ जाती है। सीमा के पिता एक सख्त आर्मी अफसर हैं और वो उसकी शादी उसकी मर्ज़ी के खिलाफ एक नौजवान आर्मी अफसर मेजर प्रताप (अयाज़ खान) से कराना चाहते हैं। सीमा के पिता और अंकल की बिलकुल नहीं बनती क्योंकि उसके अंकल, पिता की सोच से इत्तेफाक़ नहीं रखते।
जय और ओमी बारी-बारी, सीमा को लुभाने या यूं कहिए पटाने की कोशिश करते हैं लेकिन उन्हें अपने प्रयासों में बुरी तरह से नाकामयाबी हाथ लगती है। लेकिन दोनों ही अलग-अलग अपनी कामयाबी के झूठे किस्से एक दूसरे को और सिद्धार्थ को सुनाते रहते हैं। एक दिन सिद्धार्थ और सीमा का आमना सामना हो जाता है और दोनों को एक दूसरे से प्यार हो जाता है। लेकिन जय और ओमी को ये बातें बिलकुल पसंद नहीं आतीं और वो इन दोनों के बीच रोमांस को खत्म करना चाहते हैं। इसके लिए वो सीमा के बारे में ग़लत बातें सिद्धार्थ को बताकर उसके मन में सीमा के लिए ग़लतफहमी पैदा करना चाहते हैं और अपनी इस साज़िश में वो दोनों कामयाब भी हो जाते हैं. सीमा और सिद्धार्थ अलग हो जाते हैं।
बाद में जय और ओमी को अपनी ग़लती का एहसास होता है और फिर वो सीमा और सिद्धार्थ को मिलाने की कोशिश करनी शुरू कर देते हैं। आगे क्या होता है, क्या सीमा और सिद्धार्थ मिल पाते हैं। जोसेफ (ऋषि कपूर) और तीनों की मकान मालकिन (लिलेट दुबे) की इसमें क्या भूमिका होती है। यही फिल्म की कहानी है। पुरानी ‘चश्मे बद्दूर’ की कहानी बेहद सरल और खूबसूरत है लेकिन इस नई फिल्म का स्क्रीनप्ले रेणुका कुंज़रू ने लिखा है जो उतना सुलझा हुआ नहीं है। कहानी में कई बातों को साफ तौर पर नहीं समझाया गया है। जैसे पहले तीनों दोस्त जोसेफ (ऋषि कपूर) और अपनी मकान मालकिन जोसफीन (लिलेट दुबे) की शादी कराने का प्लान बनाते हैं, ताकि ताउम्र उन तीनों को फ्री में खाना और रहना नसीब हो सके। लेकिन बाद में जय और ओमी इस प्लान के खिलाफ क्यों काम करने लगते हैं।
फरहाद-साजिद के लिखे डायलॉग्स में तुकबंदी और शेरोशायरी के ज़रिए हास्य पैदा करने की कोशिश की गई है। इनमें शुरुआत में तो हंसी आती है लेकिन एक सीमा के बाद ये ऊबाऊ लगने लगते हैं। मगर ये भी कहना पड़ेगा कि इंटरवल से पहले फिल्म डायलॉग की वजह से ही मनोरंजक लगती है। हां, इंटरवल के बाद फिल्म से कॉमेडी गायब सी हो जाती है और इसकी जगह ड्रामा ले लेता है। कई सीन में बेवजह की जल्दबाज़ी दिखाई गई है। जैसे सिद्धार्थ का बार-बार टॉवेल पहनकर तेज़ी से बाथरूम की तरफ जाना। कुछ और भी ऐसे सीक्वेंस हैं जिन्हें बड़े अजीब अंदाज़ में समेटा गया है। फिल्म की खासियत ये है कि इसकी गति तेज़ है और दर्शकों को ज़्यादा सोचने का मौका नहीं मिलता। फिल्म का क्लाइमेक्स साधारण बन पड़ा है।
डेविड धवन का निर्देशन अच्छा है। उनका स्टाइल एक खास दर्शक वर्ग को तो पसंद आ सकता है लेकिन कुछ लोगों को ये नाटकीय भी लगेगा। साजिद वाजिद के संगीत से सजी इस फिल्म मे दो (ढिशिक्यों और हर एक फ्रेंड) गीत अच्छे बन पड़े हैं। गणेश आचार्य की कोरियोग्राफी साधारण रही है, लेकिन शायद फिल्म के एक्टर्स अच्छे डांसर नहीं है इस वजह से ऐसा लगा हो। संजय एफ गुप्ता की सिनेमोटोग्राफी अच्छी है। कुल मिलाकर ‘चश्मे बद्दूर’ एक ठीक-ठाक मनोरंजक फिल्म है जो युवाओं को अच्छी लगेगी। (साभार)
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