राजीव रंजन तिवारी
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस (1 मई) की शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो। भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है। मौजूदा हालात ठीक नहीं है। जिन वजहों से इसकी शुरूआत हुई थी, वे वजहें लुप्त प्राय हैं। फिलहाल नयी विश्व अर्थव्यवस्था के शिकंजे में जकड़ी, निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था में मार्केट फ्रेंडली, बिजनेस फ्रेंडली, इन्वेस्टमेंट फ्रेंडली जैसे भ्रामक शब्दों द्वारा आर्थिक-सामाजिक ढांचे के अंदर बढ़ रही भीषण असमानता, बेरोजगारी और 80 प्रतिशत से अधिक जनता की पीड़ा पर रहस्य का आवरण देने की प्रक्रिया जारी है। संविधान में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी गणराज्य बनाने, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने की प्रस्तावना तथा समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व वाले मुद्दे को आगे बढ़ाने की बात न तो कहीं सुनी जा रही है और ना ही देखी जा रही है। समाजवाद की आवाज ना के बराबर सुनाई दे रही है। ऐसे हालात में मई दिवस की हालत क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। अब दुनिया बदल चुकी है। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही पूंजीवाद का विकल्प दुनिया में खो गया। औद्योगिक उत्पादन का तरीका बदल गया। औद्योगिक उत्पादन तंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। एक साथ काम करना और एक जगह करना महज एक सपना रह गया। यूं कहें कि मजदूरों की समस्याएं नहीं मजदूरों को ही खत्म करने की योजनाएं बन रही हैं। यानी कम काम के आधार पर पूरी व्यवस्था संचालित करने की परिकल्पना तेजी से आकार ले रही हैं। जिसमें मजदूरों की कोई जरूरत नहीं होगी। कुछ लोग कार्ल मार्क्स को मजदूरों का मसीहा मानते हैं। उन्हीं के नाम पर मजदूर दिवस मनाने की बात की जाती है, जिसमें मजदूर या श्रम शब्द जुड़ा होने से संवेदनायें स्वभाविक रूप जागृत हो उठती हैं। आज भारत में जो हम नैतिक, अध्यात्म तथा देशप्रेम की भावना का अभाव लोगों में देख रहे हैं वह शारीरिक श्रम को निकृष्ट मानने की वजह से है। हर कोई सफेद कालर वाली नौकरी चाहता है और शारीरिक श्रम करने से शरीर में से पसीना निकालने से घबरा रहा हैं। हालांकि यह सबका मानना है कि शरीर से जितना अधिक पसीना निकलेगा, शरीर उतना ही स्वस्थ रहेगी। खैर, मजदूरों की बात करें तो आज उन्हें एक तरह से मुख्यधारा से अलग मान लिया गया है। उन्हें दया योग्य समझा जाता है न कि साथ बिठाने योग्य। संगठित प्रचार माध्यमों टीवी चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं में अक्सर यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि श्रम करना एक तरह से घटिया लोगों का काम है। वैसे इन प्रचार माध्यमों को इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह आधुनिक बाज़ार के विज्ञापनों पर ही अपना साम्राज्य खड़े किये हुए हैं। यह बाजार सुविधाभोगी पदार्थों का निर्माता तथा विक्रेता है। स्थिति यह है कि फिल्म और टीवी चैनलों के अधिकतर कथानक अमीर घरानों पर आधारित होते हैं जिसमें नायक तथा नायिकाओं को मालिक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। उनमें नौकर के पात्र भी होते हैं पर नगण्य भूमिका में। कहीं नायक या नायिका मज़दूर या नौकर की भूमिका में दिखते हैं तो भी उनका पहनावा अमीर जैसा ही होता है। फिर अगर नायक या नायिका का पात्र मजदूर या नौकर है तो कहानी के अंत में वह अमीर बन जाता है। जबकि जीवन में यह सच नज़र नहीं आती। ऐसे अनेक उदाहरण समाज में देखे जा सकते हैं कि जो मजदूर रहे तो उनके बच्चे भी मज़दूर बने। आम आदमी इस सच्चाई के साथ जीता भी है कि उसकी स्थिति में गुणात्मक विकास भाग्य से ही आता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पास या साथ काम करने वाले श्रमजीवी को कभी असम्मानित या हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। मनुष्य मन की यह कमजोरी है कि वह धन न होते हुए भी सम्मान चाहता है। दूसरी बात यह है कि श्रमजीवी मजदूरों के प्रति असम्माजनक व्यवहार से उनमें असंतोष और विद्रोह पनपता है जो कालांतर में समाज के लिये खतरनाक होता है। यही श्रमजीवी और मजदूरी ही धर्म की रक्षा में प्रत्यक्ष सहायक होता है। यही कारण है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में सभी को समान दृष्टि से देखने की बात कही जाती है। सन् 1750 के आसपास यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई। उसके परिणामस्वरूप मजदूरों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती चली गई। मजदूरों से लगातार 12-12 और 18-18 घण्टों तक काम लिया जाता, न कोई अवकाश की सुविधा और न दुर्घटना का कोई मुआवजा। ऐसे ही अनेक ऐसे मूल कारण रहे, जिन्होंने मजदूरों की सहनशक्ति की सभी हदों को चकनाचूर कर डाला। यूरोप की औद्योगिक क्रांति के अलावा अमेरिका, रूस, आदि विकसित देशों में भी बड़ी-बड़ी क्रांतियां हुईं और उन सबके पीछे मजदूरों का हक मांगने का मूल मकसद रहा। अमेरिका में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ही मजदूरों ने ‘सूर्योदय से सूर्यास्त’ तक काम करने का विरोध करना शुरू कर दिया था। जब सन् 1806 में फिलाडेल्फिया के मोचियों ने ऐतिहासिक हड़ताल की तो अमेरिका सरकार ने साजिशन हड़तालियों पर मुकदमे चलाए। तब इस तथ्य का खुलासा हुआ कि मजदूरों से 19-20 घण्टे बड़ी बेदर्दी से काम लिया जाता है। उन्नीसवीं सदी के दूसरे व तीसरे दशक में तो मजदूरों में अपने हकों की लड़ाई के लिए खूब जागरूकता आ चुकी थी। इस दौरान एक ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ नामक श्रमिक संगठन का गठन भी हो चुका था। यह संगठन सामान्यतः दुनिया की पहली ट्रेड युनियन मानी जाती है। इस युनियन के तत्वाधान में मजदूरों ने वर्ष 1827 में एक बड़ी हड़ताल की और काम के घण्टे घटाकर दस रखने की मांग की। इसके बाद इस मांग ने एक बहुत बड़े आन्दोलन का रूप ले लिया, जोकि कई वर्ष तक चला। बाद में वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को इस मांग पर अपनी मुहर लगाने को विवश होना ही पड़ा।
कुछ इसी तरह का आंदोलन चलाने का बीड़ा टी.परमानन्द ने बिहार की राजधानी पटना से उठाया। काफी हद तक चलाया भी। इसी के अंतर्गत उन्होंने ब्रदरहूड ऑफ एशिएन ट्रेड यूनियनिज्म (बाटू) की स्थापना की। वर्ष 1970 में उनके निधन के बाद अशोक कुमार त्रिवेदी ने पूरी व्यवस्था को संभाली। अशोक कुमार त्रिवेदी ने अपनी परिकल्पना से बिहार और देश के मजदूरों के अलावा दुनिया के तमाम देशों के मजदूरों के हितों में कई उल्लेखनीय कार्य किए, जिसे आज भी पूरे आदर से याद किया जाता है। मजदूरों के हितों के लिए काम करने वालों की बढ़ती तादाद और संगठनों को मद्देनजर ही वर्ष 1997 में अशोक कुमार त्रिवेदी ने सीएफटीयूआई की स्थापना की। इस संगठन के माध्यम से देश-दुनिया में अशोक कुमार त्रिवेदी मजदूरों के सर्वाधिक चहेते बन गए। पर अफसोस कि मजदूरों के इस लोकप्रिय नेता (मजदूर प्यार से उन्हें बड़े साहब कहा करते थे) को वर्ष 2003 में काल ने छीन लिया। तत्पश्चात बड़े साहब के काम को संभाला देश के चर्चित पत्रकार व समाजसेवी त्रिवेदी अम्बरीष ने। त्रिवेदी अम्बरीष सीएफटीयूआई को तेजी से मुकाम की ओर ले जा रहे थे कि 26 मार्च 2013 को वे भी देश के मजदूरों के बीच से चले गए। अब उस खालीपन को दूर करने की कोशिश में बेहद तीक्ष्ण बुद्धि वाले व व्यवहार कुशल रजनीश त्रिवेदी और शाशांक त्रिवेदी लगे हुए हैं। रजनीश त्रिवेदी कहते हैं कि सीएफटीयूआई को असंगठित क्षेत्र के सबसे बड़े प्रतिनिधि संगठन रूप में खड़ा करने का प्रयास किया जाएगा।
खैर, तमाम प्रयासों के बाद कुछ दशकों बाद आस्ट्रेलिया के मजदूरों ने संगठित होकर ‘आठ घण्टे काम’ और ‘आठ घण्टे आराम’ के नारे के साथ संघर्ष शुरू कर दिया। इसी तर्ज पर अमेरिका में भी मजदूरों ने अगस्त, 1866 में स्थापित राष्ट्रीय श्रम संगठन ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के बैनर तले ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन शुरू कर दिया। वर्ष 1868 में इस मांग के ही ठीक अनुरूप एक कानून अमेरिकी कांग्रेस ने पास कर दिया। अपनी मांगों को लेकर कई श्रम संगठनों ‘नाइट्स ऑफ लेबर’, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ आदि ने जमकर हड़तालों का सिलसिला जारी रखा। उन्नीसवीं सदी के आठवें व नौंवे दशक में हड़तालों की बाढ़ सी आ गई थी। अब वह दशा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। इस कम्प्यूटरीकृत जमाने में मजदूरों की संख्या घट रही है। बहरहाल, जो हो उनके हित में सभी को एकीकृत प्रयास करने चाहिए।
अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस (1 मई) की शुरुआत 1886 में शिकागो में उस समय हुई थी, जब मजदूर मांग कर रहे थे कि काम की अवधि आठ घंटे हो और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी हो। भारत में 1923 से इसे राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है। मौजूदा हालात ठीक नहीं है। जिन वजहों से इसकी शुरूआत हुई थी, वे वजहें लुप्त प्राय हैं। फिलहाल नयी विश्व अर्थव्यवस्था के शिकंजे में जकड़ी, निजीकरण, उदारीकरण एवं वैश्वीकरण आधारित भारतीय अर्थव्यवस्था में मार्केट फ्रेंडली, बिजनेस फ्रेंडली, इन्वेस्टमेंट फ्रेंडली जैसे भ्रामक शब्दों द्वारा आर्थिक-सामाजिक ढांचे के अंदर बढ़ रही भीषण असमानता, बेरोजगारी और 80 प्रतिशत से अधिक जनता की पीड़ा पर रहस्य का आवरण देने की प्रक्रिया जारी है। संविधान में संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न समाजवादी गणराज्य बनाने, सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने की प्रस्तावना तथा समुदाय के भौतिक संसाधनों का स्वामित्व वाले मुद्दे को आगे बढ़ाने की बात न तो कहीं सुनी जा रही है और ना ही देखी जा रही है। समाजवाद की आवाज ना के बराबर सुनाई दे रही है। ऐसे हालात में मई दिवस की हालत क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। अब दुनिया बदल चुकी है। सोवियत संघ के टूटने के साथ ही पूंजीवाद का विकल्प दुनिया में खो गया। औद्योगिक उत्पादन का तरीका बदल गया। औद्योगिक उत्पादन तंत्र का विस्तार पूरी दुनिया में हो गया। एक साथ काम करना और एक जगह करना महज एक सपना रह गया। यूं कहें कि मजदूरों की समस्याएं नहीं मजदूरों को ही खत्म करने की योजनाएं बन रही हैं। यानी कम काम के आधार पर पूरी व्यवस्था संचालित करने की परिकल्पना तेजी से आकार ले रही हैं। जिसमें मजदूरों की कोई जरूरत नहीं होगी। कुछ लोग कार्ल मार्क्स को मजदूरों का मसीहा मानते हैं। उन्हीं के नाम पर मजदूर दिवस मनाने की बात की जाती है, जिसमें मजदूर या श्रम शब्द जुड़ा होने से संवेदनायें स्वभाविक रूप जागृत हो उठती हैं। आज भारत में जो हम नैतिक, अध्यात्म तथा देशप्रेम की भावना का अभाव लोगों में देख रहे हैं वह शारीरिक श्रम को निकृष्ट मानने की वजह से है। हर कोई सफेद कालर वाली नौकरी चाहता है और शारीरिक श्रम करने से शरीर में से पसीना निकालने से घबरा रहा हैं। हालांकि यह सबका मानना है कि शरीर से जितना अधिक पसीना निकलेगा, शरीर उतना ही स्वस्थ रहेगी। खैर, मजदूरों की बात करें तो आज उन्हें एक तरह से मुख्यधारा से अलग मान लिया गया है। उन्हें दया योग्य समझा जाता है न कि साथ बिठाने योग्य। संगठित प्रचार माध्यमों टीवी चैनल, रेडियो तथा समाचार पत्र पत्रिकाओं में अक्सर यह दिखाने की कोशिश की जाती है कि श्रम करना एक तरह से घटिया लोगों का काम है। वैसे इन प्रचार माध्यमों को इसके लिये दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि वह आधुनिक बाज़ार के विज्ञापनों पर ही अपना साम्राज्य खड़े किये हुए हैं। यह बाजार सुविधाभोगी पदार्थों का निर्माता तथा विक्रेता है। स्थिति यह है कि फिल्म और टीवी चैनलों के अधिकतर कथानक अमीर घरानों पर आधारित होते हैं जिसमें नायक तथा नायिकाओं को मालिक बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। उनमें नौकर के पात्र भी होते हैं पर नगण्य भूमिका में। कहीं नायक या नायिका मज़दूर या नौकर की भूमिका में दिखते हैं तो भी उनका पहनावा अमीर जैसा ही होता है। फिर अगर नायक या नायिका का पात्र मजदूर या नौकर है तो कहानी के अंत में वह अमीर बन जाता है। जबकि जीवन में यह सच नज़र नहीं आती। ऐसे अनेक उदाहरण समाज में देखे जा सकते हैं कि जो मजदूर रहे तो उनके बच्चे भी मज़दूर बने। आम आदमी इस सच्चाई के साथ जीता भी है कि उसकी स्थिति में गुणात्मक विकास भाग्य से ही आता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने पास या साथ काम करने वाले श्रमजीवी को कभी असम्मानित या हेय दृष्टि से नहीं देखना चाहिये। मनुष्य मन की यह कमजोरी है कि वह धन न होते हुए भी सम्मान चाहता है। दूसरी बात यह है कि श्रमजीवी मजदूरों के प्रति असम्माजनक व्यवहार से उनमें असंतोष और विद्रोह पनपता है जो कालांतर में समाज के लिये खतरनाक होता है। यही श्रमजीवी और मजदूरी ही धर्म की रक्षा में प्रत्यक्ष सहायक होता है। यही कारण है कि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में सभी को समान दृष्टि से देखने की बात कही जाती है। सन् 1750 के आसपास यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई। उसके परिणामस्वरूप मजदूरों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती चली गई। मजदूरों से लगातार 12-12 और 18-18 घण्टों तक काम लिया जाता, न कोई अवकाश की सुविधा और न दुर्घटना का कोई मुआवजा। ऐसे ही अनेक ऐसे मूल कारण रहे, जिन्होंने मजदूरों की सहनशक्ति की सभी हदों को चकनाचूर कर डाला। यूरोप की औद्योगिक क्रांति के अलावा अमेरिका, रूस, आदि विकसित देशों में भी बड़ी-बड़ी क्रांतियां हुईं और उन सबके पीछे मजदूरों का हक मांगने का मूल मकसद रहा। अमेरिका में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ही मजदूरों ने ‘सूर्योदय से सूर्यास्त’ तक काम करने का विरोध करना शुरू कर दिया था। जब सन् 1806 में फिलाडेल्फिया के मोचियों ने ऐतिहासिक हड़ताल की तो अमेरिका सरकार ने साजिशन हड़तालियों पर मुकदमे चलाए। तब इस तथ्य का खुलासा हुआ कि मजदूरों से 19-20 घण्टे बड़ी बेदर्दी से काम लिया जाता है। उन्नीसवीं सदी के दूसरे व तीसरे दशक में तो मजदूरों में अपने हकों की लड़ाई के लिए खूब जागरूकता आ चुकी थी। इस दौरान एक ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ नामक श्रमिक संगठन का गठन भी हो चुका था। यह संगठन सामान्यतः दुनिया की पहली ट्रेड युनियन मानी जाती है। इस युनियन के तत्वाधान में मजदूरों ने वर्ष 1827 में एक बड़ी हड़ताल की और काम के घण्टे घटाकर दस रखने की मांग की। इसके बाद इस मांग ने एक बहुत बड़े आन्दोलन का रूप ले लिया, जोकि कई वर्ष तक चला। बाद में वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को इस मांग पर अपनी मुहर लगाने को विवश होना ही पड़ा।
कुछ इसी तरह का आंदोलन चलाने का बीड़ा टी.परमानन्द ने बिहार की राजधानी पटना से उठाया। काफी हद तक चलाया भी। इसी के अंतर्गत उन्होंने ब्रदरहूड ऑफ एशिएन ट्रेड यूनियनिज्म (बाटू) की स्थापना की। वर्ष 1970 में उनके निधन के बाद अशोक कुमार त्रिवेदी ने पूरी व्यवस्था को संभाली। अशोक कुमार त्रिवेदी ने अपनी परिकल्पना से बिहार और देश के मजदूरों के अलावा दुनिया के तमाम देशों के मजदूरों के हितों में कई उल्लेखनीय कार्य किए, जिसे आज भी पूरे आदर से याद किया जाता है। मजदूरों के हितों के लिए काम करने वालों की बढ़ती तादाद और संगठनों को मद्देनजर ही वर्ष 1997 में अशोक कुमार त्रिवेदी ने सीएफटीयूआई की स्थापना की। इस संगठन के माध्यम से देश-दुनिया में अशोक कुमार त्रिवेदी मजदूरों के सर्वाधिक चहेते बन गए। पर अफसोस कि मजदूरों के इस लोकप्रिय नेता (मजदूर प्यार से उन्हें बड़े साहब कहा करते थे) को वर्ष 2003 में काल ने छीन लिया। तत्पश्चात बड़े साहब के काम को संभाला देश के चर्चित पत्रकार व समाजसेवी त्रिवेदी अम्बरीष ने। त्रिवेदी अम्बरीष सीएफटीयूआई को तेजी से मुकाम की ओर ले जा रहे थे कि 26 मार्च 2013 को वे भी देश के मजदूरों के बीच से चले गए। अब उस खालीपन को दूर करने की कोशिश में बेहद तीक्ष्ण बुद्धि वाले व व्यवहार कुशल रजनीश त्रिवेदी और शाशांक त्रिवेदी लगे हुए हैं। रजनीश त्रिवेदी कहते हैं कि सीएफटीयूआई को असंगठित क्षेत्र के सबसे बड़े प्रतिनिधि संगठन रूप में खड़ा करने का प्रयास किया जाएगा।
खैर, तमाम प्रयासों के बाद कुछ दशकों बाद आस्ट्रेलिया के मजदूरों ने संगठित होकर ‘आठ घण्टे काम’ और ‘आठ घण्टे आराम’ के नारे के साथ संघर्ष शुरू कर दिया। इसी तर्ज पर अमेरिका में भी मजदूरों ने अगस्त, 1866 में स्थापित राष्ट्रीय श्रम संगठन ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के बैनर तले ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन शुरू कर दिया। वर्ष 1868 में इस मांग के ही ठीक अनुरूप एक कानून अमेरिकी कांग्रेस ने पास कर दिया। अपनी मांगों को लेकर कई श्रम संगठनों ‘नाइट्स ऑफ लेबर’, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ आदि ने जमकर हड़तालों का सिलसिला जारी रखा। उन्नीसवीं सदी के आठवें व नौंवे दशक में हड़तालों की बाढ़ सी आ गई थी। अब वह दशा धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। इस कम्प्यूटरीकृत जमाने में मजदूरों की संख्या घट रही है। बहरहाल, जो हो उनके हित में सभी को एकीकृत प्रयास करने चाहिए।
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