ताज़ा ख़बर

शेरनी रिव्यूः न रोमांच, न ड्रामा, फिर भी विद्या बालन की अदाएं अच्छी

शेरनी रिव्यूः न रोमांच, न ड्रामा, फिर भी विद्या बालन की अदाएं अच्छी मुम्बई (राजीव रंजन तिवारी)। विद्या बालन की शेरनी शुरू से अंत तक म्याऊं-म्याऊं करती है। उसकी दहाड़ कहीं नहीं दिखती। सेव टाइगर मिशन के बीच बाघों के शिकार की इस कहानी में न तो जंगलों के जालीदार अंधेरे-उजाले का रोमांच है और न हीं बाघ की आंखों से पैदा होने वाला सम्मोहन। शेरनी का पूरा रिव्यू मैं आपका बताऊंगा। लेखक-निर्देशक अमित मसुरकर अपनी फिल्म शेरनी में वह बाघिन की कहानी कहते हुए उसे पूरे समय शेरनी कहते रहे। बाघ-बाघिन (टाइगर-टाइग्रेस) और शेर-शेरनी (लायन-लायनेस) में फर्क होता है। मसुरकर राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त निर्देशक (न्यूटन, 2017) हैं और फिल्म में मुख्य भूमिका निभाने वाली विद्या बालन को भी यह सम्मान प्राप्त हो चुका है। फिल्म इंडस्ट्री के पढ़े-लिखों की समस्या यह है कि उनके लिए भाषा का संबंध ज्ञान से नहीं है। ये लोग भाषा के खेल में ‘चमत्कार’ और ‘बलात्कार’ का सामंजस्य बैठाने में कुशल हैं। इसलिए बाघिन को शेरनी कहा जाना उनके लिए बड़ी बात नहीं है। मसुरकर की शेरनी बाघों के शिकार का मुद्दा उठाते हुए पशुओं को लेकर मनुष्य की संवेदनहीनता, वन विभाग में भ्रष्टाचार व राजनेताओं की नकली नारेबाजियों जैसे मुद्दों को छुती है। इन सब बातों के बीच सिनेमा का केंद्र कहलाने वाली कहानी का कौशल गायब है। शेरनी किसी शिक्षाप्रद डॉक्युमेंट्री की तरह चलती है। वह बाघ के बारे में ढेर सारी जानकारियां देते हुए धीरे-धीरे बढ़ती है और बीच-बीच में लेखक-निर्देशक कहानी भी कहना चाहते हैं परंतु उनके पास बताने-सुनाने को कुछ खास है नहीं। यहां कहानी कुछ साल पहले महाराष्ट्र में एक आदमखोर बाघिन अवनि की है, जिसे एक शिकारी द्वारा गोली मार कर हत्या कर दी जाती है। परंतु तथ्यों को कैमरे में कैद करने के अतिरिक्ति मसुरकर ने थोड़ी भी कल्पनाशीलता कहानी रचने में नहीं दिखाई। फिल्म की पटकथा और किरदारों में जोर नहीं है। नतीजा यह कि शेरनी एक भी दृश्य में नहीं दहाड़ती। शुरू से अंत तक म्याऊं-म्याऊं करती है। विद्या विंसेंट (विद्या बालन) मध्यप्रदेश के एक वन-इलाके में नई डीएफओ के रूप में तैनात हुई है। इलाके में बाघ हैं और कभी-कभी गांवों से जानवरों को उठा ले जाते हैं या हमला करके ग्रामीणों को मार देते हैं। विद्या को लगता है कि विभाग को ऐसी योजना बनानी चाहिए, जिससे बाघों और ग्रामीणों के जीवन में तालमेल बैठ सके। वे एक-दूसरे की जीवन-परिधि को पार न करें। परंतु विद्या के अफसर बंसल (बृजेश काला) का कहना है कि हमें सिर्फ टाइगरों पर ध्यान देना चाहिए। गांव और ग्रामीण हमारा मुद्दा नहीं है। उधर, विधायक स्तर के दो स्थानीय नेता हैं, जो ग्रामीणों को बाघों से बचाने का वादा करते हुए चुनाव लड़ते रहते हैं। तीसरा प्रमुख किरदार अंग्रेजों के जमाने से बाघों का शिकार कर रहे खानदान के रंजन राजहंस उर्फ पिंटू भैया (शरत सक्सेना) हैं, जिनकी सेटिंग ऊपर तक है और वह छह राज्यों में सात बाघों तथा 32 तेंदुओं को अपना शिकार बना चुके हैं। अब उनकी नजर दो शावकों को ताजा-ताजा जन्म देने वाली बाघिन टी-12 पर है। क्या विद्या टी-12 को पिंटू भैया का शिकार बनने से रोकने में सफल होगी? यही सबसे बड़ा सवाल है। शेरनी धीमी रफ्तार वाली, अक्सर उदास और ठहरे हुए पानी जैसी ठंडी फिल्म है। इसमें कुछ उभर कर आती है तो वह है वन विभाग की कमियां। उसके अधिकारियों की अपने फर्ज को अंजाम देने की उदासीनता और भ्रष्टाचार। एक अफसर यहां विद्या से कहता है कि फॉरेस्ट डिपार्टमेंट अंग्रेजों की देन है। यहां रेवेन्यू लाओ तो प्रमोशन पक्का। वास्तव में इस विभाग के जिम्मे वन्य पशुओं को संरक्षित करने के साथ जंगल की कटाई रोकने, विकास के नाम पर उजड़ रही धरती और जंगल से लगे इलाकों में रहने वालों की सुरक्षा का भी काम है। परंतु क्या सचमुच यह हो पाता है? फिल्म ग्रामीणों को समझाती है कि जंगल तुम्हारा दुश्मन नहीं है लेकिन अगर तुम जंगल में जा बैठोगे तो बाघ तुम्हें खा जाएगा। सवाल यह कि विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कैसे हो? यहां इसका जवाब नहीं मिलता। शेरनी मनोरंजन के लिए नहीं है। न इसमें कोई अनूठा ज्ञान मिलता है। विद्या बालन निराश करती हैं। फॉरेस्ट ऑफिसर के वस्त्रों में वह नहीं जमतीं। उनके गंभीर चेहरे पर हर समय निराशा और चिंता के बादल घिरे रहते हैं। विजय राज जूलॉजी के प्रोफेसर बने हैं और उनका किरदार किसी काम का नहीं है। इसी तरह नीरज कबि भी बेअसर हैं। शरत सक्सेना की भूमिका दायरे में सिमटी है। एकमात्र बृजेंद्र काला अपनी भूमिका में जमते हैं और अभिनय से रंग जमाते हैं। फिल्म का बड़ा हिस्सा जंगल में है मगर आकर्षित नहीं करता। ग्रामीण अभिनेताओं का इस्तेमाल करके निर्देशक ने फिल्मी दृश्यों को हकीकत के नजदीक रखने की कोशिश की है परंतु इससे बनावटीपन ही उभरता है। सबसे बुरा तो यह है कि विद्या यहां एक भी दृश्य में शेरनी की तरह नहीं उभरतीं। अब सवाल यह है कि शेरनी को देखा जाए या नहीं। इस पर मेरा कहना है कि देखें या नहीं अगर आप विद्या के फैन हैं तो फिल्म देख सकते हैं। बाकी फिल्म में कुछ भी ऐसा नया देखने को नहीं मिलता है, जिसको देखकर आप उछल जाए। वन विभाग से जुड़ी जो चीजें दिखाने की कोशिश की गई है। डॉक्यूमेंट्रीज या शोज में दिखाया जा चुका है। ये रहा शेरनी का रिव्यू। बाकी फैसला आपके हाथ।
  • Blogger Comments
  • Facebook Comments

0 comments:

Post a Comment

आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।

Item Reviewed: शेरनी रिव्यूः न रोमांच, न ड्रामा, फिर भी विद्या बालन की अदाएं अच्छी Rating: 5 Reviewed By: newsforall.in