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PM मोदी, लालू हों या फिर पासवान... नीतीश ने शिद्दत से निभाई 'दुश्मनी'

पूरी कहानी समझने के लिए चित्र पर क्लिक कर वीडियो देखें पटना (राजीव रंजन तिवारी)। 70 वर्षीय नीतीश कुमार छात्र जीवन से ही समाजवादी राजनीति में हैं। नीतीश कुमार के करीब 45 साल के राजनीतिक करिअर पर नजर डालें तो एक बात स्पष्ट होती है कि वह जिस ईमानदारी से दोस्ती निभाते हैं, उससे कहीं ज्यादा शिद्दत से राजनीतिक दुश्मनी निभाते हैं। ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार ने केवल एलजेपी और पासवान कुनबे को डैमेज किया है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और लालू प्रसाद यादव से भी शिद्दत के साथ राजनीतिक दुश्मनी निभाई है। साल 1994 में नीतीश कुमार ने जब लालू यादव का साथ पहली बार छोड़ा तो लगातार मेहनत कर उन्हें और उनके परिवार को सत्ता से बाहर करके ही दम लिया। 2005 में नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ मिलकर ऐसी सत्ता हासिल की कि आज तक लालू फैमिली सत्ता का वनवास झेल रही है। 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान नीतीश कुमार ने गुजरात के तत्कालीन सीएम नरेंद्र मोदी को सांप्रदायिक छवि का आरोप लगाकर बिहार आने से रोक दिया था। इसके बाद मोदी से खुन्नस में नीतीश कुमार ने बीजेपी+जेडीयू नेताओं के भोज तक को रद्द कर दिया। साल 2014 में जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के लिए चेहरा घोषित कर दिया तो नीतीश कुमार ने बीजेपी से नाता ही तोड़ लिया। हालांकि 2014 की जंग में नीतीश को मोदी के हाथों करारी शिकस्त मिली और बिहार की सत्ता में होने के बावजूद उनकी पार्टी जेडीयू 2 सीटों पर सिमट गई। इस हार को नीतीश इतना दिमाग में बैठा गए कि उन्होंने लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया और साल 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को चारो खाने चित करके ही दम लिया। 2015 में बिहार में बनी जेडीयू+आरजेडी+कांग्रेस की सरकार में कथित रूप से लालू फैमिली हावी होने की कोशिश कर रही थी तभी नीतीश ने एक बार फिर उनसे नाता तोड़ दिया। लालू फैमिली के सत्ता से बाहर होते ही आरजेडी चीफ के लिए बुरा टाइम शुरू हो गया। लालू यादव को चारा घोटाले में इतनी सजा मिली कि वह करीब चार साल बाद जमानत पर जेल से बाहर आ पाए हैं। लालू अब इस हालत में नहीं हैं कि वह फ्रंटफुट पर आकर राजनीति कर सकें। अब बात करते हैं उपेन्द्र कुशवाहा की। लालू यादव के खिलाफ राजनीतिक जमीन तैयार करने में नीतीश को तब उपेंद्र कुशवाहा ने काफी मदद की। इसका इनाम भी मिला। 2004 में नीतीश ने उन्हें विधानसभा में विपक्ष का नेता बना दिया। ये जानते हुए भी कि कुशवाहा पहली बार विधायक बने हैं। लेकिन 2005 में ही कुशवाहा के सुर बदल गए। जब अक्टूबर में हुए चुनाव के बाद नीतीश को कुर्सी मिली तो फरमान निकला कि सदन में विपक्ष के नेता होने के नाते कुशवाहा को जो बंगला मिला था वो खाली कराया जाए। जब नोटिस की तालीम नहीं हुई तो पटना प्रशासन ने कुशवाहा की गैर मौजूदगी में उनके बंगले से सारा सामान बाहर निकाल दिया। नीतीश कुमार ना केवल राजनेताओं से बल्कि बिहार के बाहुबली नेताओं को भी शंट करते रहे हैं। 2005 में सत्ता हासिल करने के बाद अनंत सिंह, मुन्ना शुक्ला सरीखे दो-चार बाहुबलियों को छोड़कर सभी का साम्राज्य जेल की कोठरी या अपने घर तक सिमट कर रह गया। सबसे बड़ा उदाहरण आरजेडी के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन का है। साल 2015 में लालू फैमिली के सत्ता में आने पर जब शहाबुद्दीन को भागलपुर जेल से बाहर आने का मौका मिला तो उन्होंने नीतीश कुमार को मीडिया में परिस्थिति का मुख्यमंत्री बता दिया। यह बयान देने के कुछ दिन बाद ही शहाबुद्दीन एक केस में अरेस्ट हुए और उन्हें दिल्ली के तिहाड़ जेल में कैद कर दिया गया। इस साल जेल में ही शहाबुद्दीन की मौत हो गई। अनंत सिंह जब से नीतीश से अलग हुए हैं तब से चुनाव भले ही जीत रहे हैं, लेकिन उनका दिन-रात जेल में ही बीत रहा है। तो देखा आपने। इसी तरह पूरी शिद्दत से नीतीश कुमार दुश्मनी निभाते रहे हैं। इसलिए अन्य दलों के नेताओं को चाहिए कि वो नीतीश से पंगा लेने से पहले खुद को रणनीतिक रूप से तैयार करें। फिर कुछ सोचें।
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