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जनता मालिक है, उसे नजरंदाज न करें

राजीव रंजन तिवारी 
शासक कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, वह जनता से बड़ा नहीं हो सकता। यह बात कहने में थोड़ा अटपटा लग रहा है, पर हकीकत यही है। शासक जनता से बड़ा खुद को तब मानने लगता है, जब उसके सिर पर उसका अहंकार हावी हो जाता है। फिर अनाप-शनाप जनविरोधी फैसले लेने लगता है। फलस्वरूप जनता त्रस्त व परेशान होती है। अंततः जनता को सड़कों पर उतरकर अपने कथित तानाशाह शासक को यह बताना पड़ता है कि मालिक तू नहीं, हम हैं। संदेश यह है कि शासक चाहे किसी भी देश का हो, उसे जनभावनाओं का ख्याल रखना चाहिए। सिर्फ जनहित की बातें होनी चाहिए। पर, आजकल सबकुछ उलट-पुलट हो रहा है। दुनिया के विभिन्न जनतांत्रिक देशों की डिक्शनरी से ‘जनता’ ही गायब होती जा रही है। मतलब ये अपने अहंकारी व तानाशाही आचरण की वजह से शासक न सिर्फ जनता को बर्बाद करने पर तुले हैं, बल्कि समय पर उसका उत्पीड़न हो कर रहे हैं। वजह स्पष्ट है, शासक वर्ग आजकल सिर्फ खुद और अपने सगे-संबंधियों व मित्रों के हितों का ख्याल करने में व्यस्त है। उसे जनहित के मुद्दे पर सोचने का वक्त ही नहीं है। हालात ये है कि जनता भी अब अपने मर्यादा रूपी केंचुल से बाहर निकलने लगी है। उदाहरण अमेरिका का है। अमेरिका जल रहा है और हुकूमतों की चिंता केवल इतनी भर है कि मौजूदा विरोध कितने दिनों तक चलता है। ट्रम्प ने विरोध से निपटने के लिए सेना के प्रयोग और ख़ूंख़ार कुत्तों के इस्तेमाल तक की अगर चेतावनी दी है तो मानकर चला जाना चाहिए कि अपने देश की बहुसंख्यक सवर्ण (गोरी) आबादी का समर्थन उन्हें प्राप्त है जो चुनावों तक जारी रहेगा। अमेरिका में इस वक़्त ख़ंदकों की लड़ाई सड़कों पर लड़ी जा रही है। दुनिया भर की नज़रें भी अमेरिका पर ही टिकी हुई हैं। कोरोना के कारण सबसे ज़्यादा मौतें अमेरिकी अस्पतालों में हुई हैं पर देश के एक शहर में पुलिस के हाथों हुई एक अश्वेत नागरिक की मौत ने सभी पश्चिमी राष्ट्रों की सत्ताओं के होश उड़ा रखे हैं। जिस गोरे पुलिस अफ़सर ने अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की गर्दन को उसका दम घुटने तक अपने घुटने के नीचे आठ मिनट से ज़्यादा समय तक दबाकर रखा होगा उसे तब अन्दाज़ नहीं रहा होगा कि वह पांच दशकों के बाद अपने देश में किस नए इतिहास की नींव डाल रहा है। दुनिया की जो सर्वोच्च ताक़त मुंह पर मास्क पहनने को कमज़ोरी का प्रतीक मानती हो उसे अपना मुंह छुपाने के लिए घर के बंकर में कोई एक घंटे से ज़्यादा का समय बिताना पड़ा। इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब पूर्व में लिखे गए सारे शब्द ध्वस्त हो जाते हैं। वरिष्ठ पत्रकार व लेखक श्रणण गर्ग के अनुसार, जो क्षण अमेरिकी आकाश को इस समय सड़कों से उड़ते हुए धुएं से काला और अशांत कर रहा है वह तब भी इतनी तीक्ष्णता से हाज़िर नहीं हुआ था जब कोई पचास साल पहले अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने वाले नेता मार्टिन लूथर किंग की हत्या कर दी गई थी। किंग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की अहिंसक क्रांति के एक सच्चे अनुयायी थे। गांधी जी की तीस जनवरी 1948 को हत्या किए जाने के बाद देश में हिंसा नहीं हुई थी पर वर्ष 1984 में तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद क्या कुछ हुआ था वह उन लोगों की स्मृतियों में अभी भी जीवित है जिन्होंने उस क्षण को जीया और देखा है। दुनिया बदल रही है पर दुनिया के शासक नहीं बदलना चाहते हैं। दुनिया अपने पंखों का विस्तार किए हुए घने बादलों के बीच उड़ रही है और शासक अंधेरी ख़ंदकों में अपनी सत्ताओं के खुले आकाश तलाश रहे हैं। कोरोना के कारण अमेरिका में अब तक एक लाख से अधिक लोग अपनी जानें गंवा चुके हैं और इनमें एक बड़ी संख्या अश्वेत नागरिकों और ‘केयर होम्स’ में रहने वाले बुजुर्गों की है। ये अश्वेत नागरिक कोई दो सौ से अधिक सालों से जिस दासता के ख़िलाफ़ और सामान अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं वही ग़ुस्सा इस समय सड़कों पर फूटा पड़ रहा है। जॉर्ज फ़्लॉयड तो केवल एक नाम है। अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लॉयड की गर्दन को जब गोरे पुलिस अफ़सर डेरिक चेविन ने अपने घुटने के नीचे दबा रखा था तब वह गिड़गिड़ा रहा था कि ‘मैं साँस नहीं ले पा रहा हूं’। आज समूचे अमेरिका का दम घुट रहा है और कई स्थानों पर संवेदनशील पुलिसकर्मी आक्रोशित अश्वेत-श्वेत नागरिकों से अपने ही कुछ साथियों के कृत्य के लिए क्षमा मांग रहे हैं। अदभुत दृश्य है कि जॉर्ज फ़्लॉयड हादसे से उतने ही दुखी गोरे नागरिक अपने अश्वेत पड़ोसियों के सामने एक घुटने के बल बैठकर अपनी समूची जमात की ओर से सदियों से चले आ रहे नस्लवाद के लिए माफ़ी की मांग कर रहे हैं और जो लोग सामने खड़े हैं उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वाशिंगटन और न्यूयॉर्क सहित अमेरिका के अन्य चकाचौंध वाले राज्यों में इस समय जो कुछ भी चल रहा है उसने दुनिया के सबसे सम्पन्न राष्ट्र की विपन्नता को उजागर कर दिया है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, विश्व भर की नज़रें इस समय अमेरिका की ओर हैं कि राष्ट्रपति पद के चुनावों (नवम्बर) के ठीक पहले आए इस अभूतपूर्व संकट से ट्रम्प कैसे बाहर आते हैं। इन देशों में वे हुकूमतें भी शामिल हैं जो आहिस्ता-आहिस्ता ‘एकतंत्रीय’ शासन व्यवस्था की ओर बढ़ रही हैं और जिन्हें पूरा यक़ीन है कि विजय अंततः उसी की होती है जो सत्ता में होता है। जो पिछले दो सौ सालों में सफल नहीं हुए वे इस बार कैसे हो सकते हैं? इन हुकूमतों की चिंता केवल इतनी भर है कि मौजूदा विरोध कितने दिनों तक चलता है। ट्रम्प ने विरोध से निपटने के लिए सेना के प्रयोग और ख़ूंख़ार कुत्तों के इस्तेमाल तक की अगर चेतावनी दी है तो मानकर चला जाना चाहिए कि अपने देश की बहुसंख्यक सवर्ण (गोरी) आबादी का समर्थन उन्हंद प्राप्त है जो चुनावों तक जारी रहेगा। अगर इसमें सच्चाई है तो भी कोई आश्चर्य भी नहीं होना चाहिए क्योंकि सबको समान अधिकारों की गारंटी देने वाला संविधान तो हमारे यहाँ की तरह ही अमेरिका में भी है। अमेरिका की इस घटना को एक बड़े संदेश के रूप में देखना चाहिए। दुनिया के कई देशों में सर्वधर्म समभाव का डंका बजाने वाला स्वयंसेवी संगठन धराधाम इंटरनेशनल के प्रमुख डॉ. सौरभ पाण्डेय अमेरिकी घटना से बहुत दुखी हैं। उनका कहना है कि जिस तरह श्वेत-अश्वेत के नाम वहां नफरत फैलाई जा रही है, वह बेहद निन्दनीय है। जनता के विरोध को कथित बलपूर्वक कुचलने का सरकारी प्रयास भी दुर्भाग्यपूर्ण है। सबकुछ शालीनता से निपटाया जाना चाहिए। माहौल प्यार और सद्भाव का बनना चाहिए, न कि नफरत और आक्रोश का। सौरभ कहते हैं, यदि यथाशीघ्र हालात को काबू में न किया गया तो स्थिति बिगड़ती चली जाएगी। बहरहाल, देखना यह है कि अमेरिका की घटना से अन्य देशों के लोग भी सीख लेते हैं अथवा नहीं?
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