देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस एकबार फिर चर्चा में है। विपक्ष में होने के बावजूद सत्तारूढ़ दल से संबद्ध लोग गाहेबगाहे उसपर निशाना साध रहे हैं। यह बेहद शर्मनाक और दुखद है। कांग्रेस में हजार कमियां निकाल सकते हैं। मगर कोरोना के इस भयानक संकट काल में गांधी- नेहरू की पार्टी ने उसी तरह राष्ट्रीय जिम्मेदारी निभाकर दिखा दी जैसे आजादी से पहले बंगाल के भीषण अकाल के समय दिखाई थी। अंग्रेज सरकार सुने न सुने कांग्रेसी नेता तब अपनी बात कहते थे। तभी इंग्लेंड के प्रधानमंत्री चर्चिल इतने द्वेष भाव से भर गए थे कि उन्होने पूछा था कि अकाल में गांधी नहीं मर रहा क्या? मानना पड़ेगा कि जब भी देश पर संकट में होता है कांग्रेस अपनी राख में उठ खड़ी होती है। अमर पक्षी (फीनिक्स) की तरह। आजादी के आंदोलन की विरासत उसे अचानक जिम्मेदारी के अहसास से भर देती है। कांग्रेस नियमित रूप से अपने मुख्यमंत्रियों, राज्यों के स्वास्थ्य मंत्रियों व वरिष्ठ नेताओं को प्रेस के सामने लाती रही है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने रोज स्थिति को मानिटर करने के लिए एक कन्सलटेटिव ग्रुप बनाया। पिछले दिनों अपनी सर्चोच्च इकाई सीडब्ल्यूसी की मीटिंग भी की। सबसे खास बात यह कि कहीं भी कन्फरटेशन की बात नहीं की। केवल सकारात्मक सुझाव दिए और संकट के समय सरकार के साथ, सरकार को सहयोग की बात की।
राहुल गांधी जो फरवरी से सरकार को चेता रहे थे लेकिन उन्होने अग्रिम चेतावनी देने का श्रेय लेने से इनकार कर दिया। राहुल ने स्पष्ट कहा कि यह समय विवाद और क्रेडिट का नहीं है, सहयोग का है। यहां तक कि राहुल ने 16 अप्रैल की प्रेस कान्फ्रेंस में जो यह कहा था कि टेस्ट ज्यादा से ज्यादा होना चाहिए और केवल लॉकडाइन से हम कोरोना से नहीं लड़ सकते। उसी बात को डब्ल्यूएचओ भी लगातार व बार-बार कहता आ रहा है। कांग्रेस की तरफ से यह नहीं कहा गया कि यही हमने भी कहा था या हमने पहले कहा था। यूं कहें कि कांग्रेस को क्रेडिट लेने की कोई बेचैनी नहीं है। बावजूद इसके गोदी मीडिया और भक्त राहुल गांधी पर टूट पड़े। राहुल की बात को तोड़मरोड़कर पेश करते हुए डिबेट पर डिबेट हुई। झूठा हल्ला हुआ कि कांग्रेस लॉकडाउन के खिलाफ है। जबकि राहुल ने वही कहा था जो विश्व स्वास्थ्य संगठन कह रहा है कि ल़ॉकडाउन एक पाज बटन है, जो आपको समय देता है। समस्या का निदान ज्यादा से ज्यादा टेस्ट है। राहुल और कांग्रेस केन्द्र सरकार या किसी के साथ टकराव में नहीं उलझ रही है। लेकिन उनका यह सकारात्मक रवैया भक्तों और गोदी मीडिया को ज्यादा द्वेष भाव से भर दे रहा है। चर्चिल तो अंग्रेज थे गांधी से घृणा करते थे। उनके मरने की कामना करने में उसे कोई दुविधा नहीं हुई। वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर कहते हैं कि कोरोना की इस विपदा में सोशल मीडिया पर ट्रोल कांग्रेस और नेहरू गांधी परिवार को जिस तरह कोस रहे हैं वह आश्चर्य और दुःख से ज्यादा शर्मनाक है। प्रियंका गांधी के मरने की प्रार्थना से लेकर राहुल पर निकृष्टतम हमले तो हो ही रहे थे। लेकिन अब एक न्यूज चैनल के मालिक एंकर ने जिस तरह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर उन्मादी भाषा में घृणित हमला किया है उससे लगता है किकांग्रेस जितना ज्यादा सकारात्मक सहयोग का रवैया अपनाएगी गोदी मिडियावाले उतने ही ज्यादा बौखलाएंगे।
यह सवाल स्वाभाविक है कि क्या नफरत फैलाने के लिए ही कथित मीडिया स्वतंत्र है? कोरोना के समय में सबको लग रहा था कि देश एक होकर इसका मुकाबला करेगा। अपने मतभेदों को भूला देगा। देश के प्रमुख विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस ने यह करके भी दिखाया। लेकिन कहते हैं कि अगर आप ज्यादा सज्जन हैं और समय एवं माहौल वैसा नहीं है तो शराफत भी आपके लिए समस्या बन सकती है। कुछ ऐसा ही सोनिया और राहुल के साथ हो रहा है। उनके पीछे प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल तो है ही खुद कांग्रेस के भीतर के लोग भी कसर नहीं छोड़ रहे है। आज विपक्ष में बैठी कांग्रेस जो गालियां खा रही है तो इसमें नेताओं का परोक्ष योगदान भी कम नहीं है। यूपीए दो के समय में कांग्रेस के नेताओं की आपसी लड़ाई ने ही कांग्रेस को पतन की ओर धकेला। सोनिया गांधी के नाम से सारे काम होते थे मगर उसका फायदा पार्टी को न मिलकर कुछ नेताओं को होता था। 2014 की हार के बाद जब राहुल गांधी अध्यक्ष बने तो कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओंने उनके साथ असहयोग करना शुरू कर दिया। राहुल ने जितनी मेहनत के साथ कई विधानसभा चुनाव लड़े और जितवाए वैसी ही मेहनत उन्होंने लोकसभा चुनाव में भी की। मगर नतीजे विपरीत आते ही राहुल के खिलाफ फिर साजिशें शुरू हो गईं। राहुल समझ गए कि अभी कांग्रेसी सुधरने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने इस्तीफा दे दिया। मगर, कांग्रेस कुछ नेताओं के डिक्टेशन पर चलने वाली पार्टी नहीं है। जल्दी ही वह समय फिर आने वाला है कि कांग्रेस के नेताओं को राहुल को वापस लाना पड़ेगा। मगर इस बार देखना यह होगा कि क्या राहुल अपने अंदर कुछ परिवर्तन लाने को तैयार हैं?
अच्छे नेता के लिए लचीला होना ही बेहतर होता है। अभी हम देख रहे हैं कि पीएम मोदी के इतने मजबूत होने के बावजूद उन पर अहंकारी होने के आरोप लग रहे हैं। राहुल अहंकारी नहीं हैं। सरल हैं मगर जरूरत से ज्यादा और शायद उससे भी ज्यादा समस्या यह है कि वे अपने फैसलों पर पुनर्विचार करने को तैयार नहीं होते। इसका एक बड़ा उदाहरण है। एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में संगठन के चुनाव करवाना। राहुल गांधी को यह समझ में नहीं आ रहा है कि जिन गरीबों और कमजोरों की वे बात करते हैं उनके बच्चे क्या छात्र और युवा संगठन में चुनाव लड़कर अपनी जगह बना सकते हैं? कालेज और यूनिवर्सिटी में पहुंचे स्टूडेंट के नेतृत्व गुण तो उसके कैम्पस में खड़े होने, क्लास में सवाल पूछने और दूसरे साथियों को परिचय देने और लेने में ही सामने आ जाते हैं। जिस तरह स्टूडेंट यूनियन के चुनाव में पैसे की बड़ी भूमिका होती है वैसे ही संगठन के चुनाव में भी। कांग्रेस को इन्हें फौरन बंद कर देना चाहिए। अभी राजस्थान यूथ कांग्रेसमें इसे लेकर भारी विवाद की स्थिति बनी। दूसरे राहुल गांधी को अपनी सज्जनता में थोड़ी कमी लानी चाहिए। इसका मतलब चालबाजी करना नहीं लेकिन व्यवहारिकता को ज्यादा अपनाना चाहिए। जेन्टलमेन गेम टेस्ट क्रिकेट है। ट्वंटी-ट्वंटी नहीं। समय काल और परिस्थितियों के अनुकूल भी कभी-कभी आचरण करना पड़ता है, लेकिन अपने नैतिक मूल्यों को बचाए रखते हुए। यही राजनीति है। अगर अपनी गरीब समर्थक नीतियां लागू करना हैं तो उसके लिए संगठन पर पूरा नियंत्रण और सही साथियों का चुनाव बहुत जरूरी है।
सार्वजनिक जीवन में उच्च मापदंड स्थापित करना चाहिए मगर वह जीता हुआ नायक ही कर सकता है। जीत के लिए भारत में चौबीस घंटे की राजनीति बहुत जरूरी है। चौबीसों घंटे राजनीति और सबसे बड़ी चीज राजनीतिक पहचान। यूं कहें कि राहुल गांधी को चाहिए कि कांग्रेस और देश की बेहतरी के लिए अपनी रीति-नीति में थोड़ा-बहुत परिवर्तन करें। खैर, इस कोरोना काल में कांग्रेस देश के लिए जो योगदान दे रही है, वह उल्लेखनीय है।
- Blogger Comments
- Facebook Comments
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment
आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।