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साक्षात नारायण का नर से महामिलन


अशोक पांडेय 
दारुब्रह्म जगन्नाथो भगवान पुरुषोत्तमे। क्षेत्रे नीलाचले क्षारार्णवतीरे विराजते।। महाविभूतिमान् राज्यमौत्कलं पालयन्।व्यंजयन् निज महात्म्यं सदा सेवकवत्सल:।। 
भारत विश्व का एकमात्र समृद्ध संस्कृति प्रधान देश है। इसकी चार दिशाओं में चार धाम अवस्थित हैं। उत्तर में बदरीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, पश्चिम में द्वारिका तथा पूर्व में सभी धामों में अन्यतम धाम जगन्नाथ पुरी धाम है। इन चारों धामों में नित्य पूजे जाने वाले देवता के नाम के अंत में ‘नाथ’ लगा हुआ है जिसे जगत के नाथ के रुप में जाना जाता है। बदरीनाथ, रामेश्वर नाथ, द्वारकानाथ और जगन्नाथ। स्कन्द पुराण के उत्कल खण्ड में जगन्नाथ पुरी और कलियुग के एकमात्र पूर्ण दारुब्रह्म महाप्रभु जगन्नाथ की विस्तृत चर्चा है। हमारे वेद, पुराण, उपनिषद, महाभारत, गीता, रामायण और रामचरितमानस आदि में प्रसंगानुसार इनकी विस्तृत चर्चा है। विश्व में जितने भी देवी-देवतागण हैं उनके साक्षात समाहार हैं भगवान जगन्नाथ। इसीलिए वे श्रीमंदिर के रत्नसिंहासन पर अपने विग्रह रुप में वैष्णव, शैव, साक्त, सौर, गाणपत्य, जैन, बौद्ध और साक्षात ओंकारेश्वर आदि रुपों में विराजमान हैं। वे अपने भक्तों की आस्था और विश्वास के देवता हैं जो सर्वधर्म समन्वय के प्रतीक माने जाते हैं और जिनके दर्शन मात्र से ही विश्व मानवता को शांति, एकता और मैत्री का पावन संदेश प्राप्त हो जाता हैं। जगन्नाथपुरी के श्रीमंदिर का निर्माण गंगवंश के प्रतापी राजा चोलगंगदेव ने 12वीं सदी में किया था। इसकी ऊंचाई 214 फीट 08 इंच है। यह मंदिर ओडिशा का सबसे ऊंचा जगन्नाथ मंदिर है जो कलिंग स्थापत्य एवं मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है। यह पंचरथ आकार का है। वहीं श्री पुरी धाम को श्रीक्षेत्र, पुरुषोत्तम क्षेत्र, नीलाद्रि, मत्त्र्यबैकुण्ठ,नीलाचल, नित्य बैकुंठ, दशावतार क्षेत्र, जमनिका तीर्थ, कुशास्थली, शंखक्षेत्र और श्री जगन्नाथ धाम आदि नामों से जाना जाता है। इस धर्म कानन को कलियुग का बैकुंठ कहा जाता है। कुल लगभग 10 एकड़ में निर्मित श्रीमंदिर में कुल लगभग 100 विभिन्न हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां हैं जिनकी भी नित्य वहां पूजा होती है। पुरी धाम के श्रीमंदिर के चारों तरफ चार महाद्वार हैं जो अलग-अलग चार दिशाओं में खुलते हैं। पूर्व दिशा का महाद्वार सिंहद्वार कहलाता है जो धर्म का प्रतीक है। उत्तर दिशा के महाद्वार को हस्ती द्वार कहा जाता है जो ऐश्वर्य का प्रतीक है। पश्चिम दिशा के महाद्वार को व्याघ्र द्वार कहा जाता है जो वैराग्य का प्रतीक है और दक्षिण दिशा के महाद्वार को अश्व द्वार कहा जाता है जो ज्ञान का प्रतीक है। :श्रीमंदिर के सिंहद्वार पर अवस्थित है अरुण स्तम्भ जो 10 मीटर ऊंचा है। कहते हैं कि यह अपनी ऊंचाई से रत्नवेदी पर विराजमान जगन्नाथजी का नित्य दर्शन करता है। यह सूर्यदेव का वाहन है। सिंहद्वार से श्रीमंदिर में प्रवेश करने के लिए जगन्नाथ भक्तों को मंदिर की 22 सीढ़ियों से गुजरना पड़ता है और ये 22 साढ़ियां प्रत्येक भक्त के अपने स्वार्थ, क्रोध, ईर्ष्या, लालच, अहंकार से मुक्त होकर ही भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने आदि की संदेश देती हैं जिनमें प्रथम 5 सीढ़ियां हमारी ज्ञानेंद्रियों-आंख, कान, नाक, मुंह, जीभ और त्वचा की प्रतीक हैं। दूसरी 5 सीढ़ियां प्राण, अर्पण, व्यान, उदान और सम्मान की प्रतीक हैं। तीसरी 5 सीढ़ियां -रुप रस, स्वाद, गंध, श्रवण और स्पर्श की प्रतीक हैं। इनके ऊपर की 5 सीढ़ियां-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और शारीरिक चेतना की प्रतीक हैं और अंतिम 2 सीढ़ियां बुद्धि और अहंकार की प्रतीक हैं। जब जगन्नाथ भक्त अपने बाईस दोषों का त्याग कर अहंकारमुक्त होकर श्रीमंदिर के अंदर प्रवेश करता है तभी वह भगवान जगन्नाथ के दर्शन सच्चे अन्तर मन से कर पाता है। मंदिर की पाकशाला विश्व की सबसे बड़ी उन्मुक्त पाकशाला है। प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्ध रथ यात्रा अनुष्ठित होती है। 2019 की रथयात्रा 04जुलाई को है। इसके लिए 2019 की अक्षय तृतीया के दिन 07मई से ही रथ निर्माण का कार्य आरंभ हो गया। उसी दिन से भगवान जगन्नाथ की विजय प्रतिमा मदनमोहन आदि की 21 दिवसीय बाहरी चंदनयात्रा अनुष्ठित हुई। श्रीमंदिर में 17जून, 2019 को देवस्नान पूर्णिमा मनाई गई। ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन श्रीमंदिर में महास्नान उत्सव मनाया गया। उस दिन रत्नवेदी से सुदर्शनजी, बलभद्रजी, सुभद्राजी और जगन्नाथजी को पहण्डी विजय के साथ स्नान मंडप पर लाया गया जहां पर श्रीमंदिर के उत्तर महाद्वार के पास के शीतला माता के स्वर्ण कुएं से 108 कलश पवित्र और शीतल जल लाकर देवविग्रहों को महास्नान कराया गया जिनमें जगन्नाथजी को 35 कलश से, बलभद्रजी को 33 कलश से, सुभद्रा देवी को 22 कलश से और सुदर्शनजी को 18 कलश जल से नहलाया गया। जगन्नाथजी के प्रथम सेवक पुरी के गजपति महाराजा श्री दिव्यसिंहदेवजी द्वारा छेरापंहरा की रस्म पूरी की गई। जगन्नाथ भगवान के अनन्य गाणपत्य भक्त विनायक भट्ट की इच्छानुसार भगवान जगन्नाथ आदि को गजवेश में सुशोभित किया गया। ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ का वह पावन दिवस जन्मोत्सव का होता है जिस दिन उनके समस्त भक्त उनके दर्शन गजानन वेश में करते हैं। अत्यधिक स्नान करने के कारण भगवान जगन्नाथ एक साधारण मानव की तरह बीमार पड़ गये जिन्हें तत्काल उनके ‘बीमार कक्ष’ अणसरपीण्ड पर लाकर उनका आयुर्वेदसम्मत उपचार किया गया। श्रीमंदिर का कपाट अगले 15 दिनों के लिए बंद कर दिया गया। उस दौरान जो भी जगन्नाथ भक्त पुरी आये वे जगन्नाथ भगवान के दर्शन ब्रह्मगिरि में भगवान अलारनाथ के दर्शन के रुप में किये। 
रथ निर्माण 
प्रतिवर्ष तीन नये रथ बनाये जाते है। रथ निर्माण की अत्यंत गौरवशाली परंपरा है। इस पवित्र कार्य को वंशानुक्रम से श्रीमंदिर प्रशासन पुरी के सुनिश्चित बढ़ईगण ही करते है। निर्माण का कार्य पूर्णत: शास्त्रसम्मत विधि से होता है। विशेषज्ञों का मानना है कि तालध्वज रथ, देवदलन रथ और नंदिघोष रथ पूरी तरह से वैज्ञानिक आधार पर निर्मित होते है। रथ निर्माण कार्य में कुल लगभग 205 प्रकार के अलग-अलग सेवायत सहयोग देते है। यह कार्य लगभग दो महीनों में संपन्न होता है। वैसे तो कहने के लिए रथयात्रा मात्र एक दिन की ही होती है लेकिन सच तो यह है कि यह रथयात्रा महोत्सव वैशाख मास की अक्षय तृतीया से प्रतिवर्ष आरंभ होती है और आषाढ़ मास की त्रयोदशी तक चलता है जिसमें अनेक उत्सव जैसे-रथ निर्माण,चंदन यात्रा,स्नान यात्रा,अणासरा,नव यौवन दर्शन, रथयात्रा और बाहुड़ा/वापसी श्रीमंदिर यात्रा आदि प्रमुख उत्सव प्रतिवर्ष बडे़ धूम-धाम से मनाये जाते है। हर वर्ष वसंतपंचमी के दिन से ही रथ निर्माण के लिए काष्ठसंग्रह का कार्य आरंभ हो जाता है। जिस प्रकार पांच तत्वों के योग से मानव शरीर बना है ठीक उसी प्रकार देवविग्रहों के रथ निर्माण में पांच तत्व, काष्ठ, धातु, रंग, परिधान एवं सजावट की समग्रियों आदि का प्रयोग होता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार रथ मानव शरीर का प्रतीक है, रथी आत्मा का, सारथी बुद्धि का, लगाम मन का और अश्व इंद्रियगण के प्रतीक हैं। रथयात्रा के दिन निम्न क्रम में ये रथ जगन्नाथ भक्तों द्वारा खींचकर गुण्डीचा मंदिर तक लाया जाता है जिनके निर्माण आदि से संबंधित विवरण निम्न प्रकार हैं:- 
तालध्वज रथ 
यह रथ महाप्रभु जगन्नाथ के बडेÞ भाई बलभद्र का रथ है। इसे बहलध्वज भी कहते है। इसकी ऊंचाई 44 फीट है। इसमें 14 चक्के लगे होते हैं। 763 काष्ठ खण्ड़ों का प्रयोग इसके निर्माण में किया जाता है। इस रथ के सारथी का नाम मातली तथा रक्षक का नाम- वासुदेव है। इस पर लगे पताके का नाम उन्नानी है। इस रथ के नवीन परिधान का रंग लाल-हरा होता है। इसके घोड़ों का नाम- तीव्र, घोर, दीर्घाश्रम और स्वर्णनाभ है। इसमें लगे घोड़ों रंग काला होता है। रथ में लगे रस्से का नाम बासुकी है। इस रथ के पाश्र्व देवी-देवताओं के नाम हैं-गणेश, कार्तिकेय, सर्वमंगला, प्रलंबरी, हलयुध, मृत्युंजय, नतंभरा, मुक्तेश्वर और शेषादेव है। 
देवदलन रथ 
यह रथ देवी सुभद्रा का है। देवदलन को दर्पदलन या पद्मध्वज भी कहते है। इसकी ऊंचाई 43 फीट होती है। इसमें 593 काष्ठ खंडों का प्रयोग किया जाता है। इस पर लगे नवीन परिधान का रंग लाल-काला होता है। इसमें 12 चक्के होते है। इसके सारथी का नाम अर्जुन ताथा रक्षक का नाम जयदुर्गा है। इस पर लगे पताके का नाम नदम्बिका है। इसके चार घोड़ों के नाम- रोचिका, मोचिका, जीत और अपराजिता है। घोड़ों का रंग भूरा होता है। इसके रस्से का नाम स्वर्णचूड़ है। इसकी नौ पाश्र्व देवियां होती है- चंडी, चमुंडी, उग्रतारा, शुलीदुर्गा, वराही, श्यामाकाली, मंगला और विमला है। 
नन्दिघोष रथ 
यह रथ महाप्रभु जगन्नाथ का रथ है। इसकी ऊंचाई 45 फीट है। इसमें 16 चक्के लगे होते हैं। इसके निर्माण में 832 काष्ठ खण्ड़ों का प्रयोग किया जाता है। रथ पर नवीन परिधान लाल-पीले रंग का होता है।इस पर लगे पताके का नाम त्रैलोक्यमोहिनी है। इसके सारथी हैं- दारुक तथा रक्षक हैं- गरुण। इसमें चार घोड़े- शंख,बलाहक,सुस्वेत और हरिदाश्व है। घोड़ों का रंग सफेद होता है। ऐसा बताया जाता है कि इस रथ को इन्द्र ने उपहार स्वरुप प्रदान किया था। इसके रस्से का नाम शंखचूड़ है। इसके पाश्र्व देवों के नाम- वराह, गोवर्द्धन, कृष्ण, गोपीकृष्ण, नरसिंह, राम, नारायण, त्रिविक्रम, हनुमान और रुद्र हैं। रथयात्रा के एक दिन पूर्व श्रीमंदिर में देवविग्रहों का नव यौवन दर्शन आयोजित होता है। देव विग्रहों को उस दिन नये परिधान में सुशोभित किया जाता है। उस दर्शन को नवयौवन दर्शन कहा जाता है। उसी दिन आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा तिथि को श्रीमंदिर के सिंहद्वार के ठीक सामने लाकर तीनों रथों को उत्तर दिशा की ओर मुंह करके खड़ा कर दिया जाता हैं। तीनों रथों को इस प्रकार सूक्ष्म कोण के साथ अलग-बगल खड़ा कर दिया जाता है कि रथों की रस्सी खींचनवाले भक्तगण बड़दाण्ड के बीच में रथों को खींच सकें। रथ संचालन के लिए झंडियां हिलाकर निर्देश दिया जाता है कि रथ को किस कोण पर खींचें। रथयात्रा के दिन चतुर्धा देवविग्रहोें को पहण्डी विजय कराकर उन्हें रथारुढ़ किया जाता है। उसके उपरांत श्रीपुरी धाम के गोवर्द्धन पीठ के 145वें पीठाधीश्वर जगतगुरु शंकराचार्य परमपाद स्वामी निश्चलानन्दजी सरस्वती महाराज पधारकर तीनों रथों की व्यवस्थाओं का अवलोकन करते हैं। अपनी ओर से चतुर्धा देवविग्रहों को अपना आत्मनिवेदन अर्पित करते हैं। उसके बाद पुरी के गजपति महाराज पारंपरिक रीति से अपने राजमहल श्रीनाहर से पालकी में बैठकर आते है और तीनों रथों पर छेरापहंरा करते हैं। तीनों रथों को उनके घोड़ों के साथ जोड़ दिया जाता है। मंदिर सिंहद्वार से गुण्डिचा मंदिर 3 किलोमिटर दूर है। लेकिन रथ को वहां तक पहुंचने में छह घंटे से लेकर 24 घंटे तक का समय लग जाता है। रथ खींचने के लिए नारियल की जटा से निर्मित मोटे मोटे रस्से व्यवहार में लाये जाते हैं जो रथ के अक्ष से बांधे जाते हैं। हर दो चक्कों के बीच एक अक्ष होता है, जिनका अलग-अलग नाम है। प्रत्येक चक्के को अक्ष से जोड़ने के लिए छह र्इंच व्यास का छेद किया जाता है और अत्यंत सूक्ष्म जटिल कारीगरी कौशल से रथ की संरचना होती है।यह काफी मजबूत से सज्जित किया जाता है। लोगों की भीड़ जब जोश से रथ को खींचती है तो गति को काबू में करने के लिए विशालकाय काष्ठखंड को ब्रेक रुप में प्रयोग किया जाता है,जो रथ के अगले भाग में रस्सियों के सहारे लटका होता है।अनेक बढ़ई संचालक रथ के अगले दण्ड पर इन रस्सियों को पकड़े हुए बैठे होते हैं। रथ खींचने के लिए रस्सी दो प्रकार की होती है- सीधी और घुमावदार। हरेक रथ में चार-चार रस्सियां लगी होती हैं। इनको विभिन्न चक्कों के अक्ष से विषेष प्रणाली में लपेट कर गांठ डालकर बांधा जाता है।जय जगन्नाथ के गगनभेदी जयकारे के मध्यम तीनों रथों को गुण्डीचा मंदिर लाया जाता है जहां पर वे सात दिनों तक विश्राम करते हैं। श्रीमंदिर की मान्य रीति-नीति के साथ गुंडीचा मंदिर में चतुर्धा देव विग्रहों की पूजा-अर्चना और भोग आदि निवेदित किया जाता है। रथयात्रा के पांचवें दिन हेरापंचमी के दिन श्रीमंदिर से नाराज देवी लक्ष्मी मां भगवान जगन्नाथ से मिलने के लिए गुण्डीचा मंदिर आती हैं लेकिन भगवान जगन्नाथजी के सेवायत उनको मिलने से मना कर देते हैं जिससे वे क्रोधित हो जाती हैं और वे गुंडीचा मंदिर के सामने खड़े जगन्नाथजी के नन्दिघोष रथ के कुछ हिस्सों को तोड़कर वापस श्रीमंदिर चलीं आती हैं। 
  बाहुड़ा यात्रा 
बाहुड़ा यात्रा को भगवान जगन्नाथ की वापसी श्रीमंदिर यात्रा भी कहते है और वह ठीक उसी प्रकार संपन्न होती है जैसे रथयात्रा। तमाम रीति-नीति के साथ पहण्डी विजय कराकर,छेरापंहरा के उपरांत तीनों रथों के घोड़ों को रथ से जोड़कर गुण्डीचा मंदिर से चतुर्धा देवविग्रहों की बाहुड़ा यात्रा शुरू होती है। लगभग तीन किलोमीटर पर अवस्थित श्रीमंदिर के सिंहद्वार के सामने लाकर तीनों रथों को खड़ा कर दिया जाता है जहां पर देव विग्रहों को स्वर्ण वेश में अलंकृत किया जाता है जिसे देखने के लिए लाखों श्रद्धालु जगन्नाथ भक्तों की अपार भीड़ वहां उमड़ पड़ती है। अधरपड़ा की रस्म पूरी होती है। श्रीमंदिर से नाराज लक्ष्मीजी आती हैं जो जगन्नाथ भगवान को श्रीमंदिर के रत्नवेदी पर आरुढ़ होने की अनुमति नहीं देती हैं। दोनों के बीच अलौकिक और हृदयग्राही आनन्दमय नोक-झोक होती है जो मानवीय संवेदना की संदेशवाहिका होती है और उस नोक-झोक को देखने और सुनने के लिए लाखों जगन्नाथ भक्त वहां उपस्थित रहते हैं। अपने दिव्य तर्क से जब जगन्नाथजी लक्ष्मी मां को प्रसन्न कर देते हैं तो अंत में लक्ष्मीजी मां प्रसन्न होकर जगन्नाथजी को अनुमति प्रदान कर देती हैं। इस अलौकिक खुशी में श्रीमंदिर में तैयार रसगुल्ला भोग देव विग्रहों को निवेदित किया जाता है। नीलाद्रि विजय के साथ ही तीनों लोकों के स्वामी कलियुग के प्रत्यक्ष पूर्ण दारुब्रह्म भगवान जगन्नाथ अपने रत्नवेदी पर विराजमान होकर अपने अनन्य भक्तों को दर्शन देने लगते हैं। यह सच है कि भगवान जगन्नाथ के चाहने पर ही कोई भक्त पुरी जा सकता है और श्रीमंदिर मे उनके दर्शन कर सकता है।‘जय जगन्नाथ!’ 
(लेखक दूरदर्शन पर भगवान जगन्नाथ रथयात्रा के 28 वर्षों से कॉमंटेटर हैं।)
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