ताज़ा ख़बर

कांग्रेस की मौत की कामना करना कितना उचित है?


अपूर्वानंद 

पिछले पांच साल से देश को कांग्रेसमुक्त करने का आह्वान भाजपा नेताओं के द्वारा किया जाता रहा है, लेकिन न सिर्फ यह कि वह अप्रासंगिक नहीं हुई, बल्कि इस चुनाव में भी भाजपा के लिए वही संदर्भ बिंदु बनी रही. जनतंत्र की सबसे अधिक दुहाई देनेवाले समाजवादियों को जनसंघ या भाजपा के साथ कभी वैचारिक या नैतिक संकट हुआ हो, इसका प्रमाण नहीं मिलता. कांग्रेस के ख़ात्मे की मांग के बीच पीयूष बबेले ने अपनी किताब नेहरू: मिथक और सत्य से नेहरू का यह उद्धरण भेजा
‘मैं एक कांग्रेस कार्यकर्ता की हैसियत से, कांग्रेस के स्वयंसेवक की हैसियत से, उन चेहरों की तलाश में गया, जिन्हें मैं लंबे समय से जानता हूं और उन चेहरों की तलाश में गया जो मेरी आंख में आंख डालकर देखें और उस तरह महसूस करें जिस तरह मैं महसूस करता हूं. यह विचार मेरे दिमाग में इसलिए आया, क्योंकि कुछ लोग अपने अखबार और पत्रिकाओं में अक्सर लिखते हैं कि कांग्रेस मर चुकी है या मर रही है. और मैं सिर्फ हंसा. लेकिन जब मैंने देखा कि हर जगह लोगों का हुजूम मेरी तरफ आ रहा है, तो मुझे ताज्जुब हुआ कि वह कौन लोग हैं, जो कह रहे थे कि कांग्रेस मर गई है या मर रही है. मुझे ताज्जुब होता है कि उन लोगों का भारत की जनता से कोई संपर्क भी है या नहीं अगर उन्हें जनता के मन का कुछ भी अंदाजा है तो वह ऐसा बोलने की हिम्मत कैसे जुटा सकते हैं, क्योंकि कांग्रेस कोई चुनावी मशीन नहीं है और न ही कांग्रेस कोई कुकुरमुत्ता पार्टी है, जो चुनाव लड़ने के लिए उग आई है. चुनाव आएंगे और जाएंगे, लेकिन कांग्रेस बनी रहेगी, क्योंकि कांग्रेस की जड़ें पीढ़ियों के काम और सेवा में हैं. परेशानी और संघर्ष में हैं. क्योंकि कांग्रेस की जड़ें करोड़ों लोगों के दिलों में हैं. इसलिए खूब सोच-विचार के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि कांग्रेस के पास आगे का मिशन है. हालांकि कांग्रेस यहां-वहां गलत कामों में पड़ गई, हालांकि बहुत सी जगहों पर यह स्थानीय गुटों के हाथ में पड़ गई, यह भी सही है कि कांग्रेस में गुटबाजी भी आ गई, जिसने इसे कमजोर किया, यह भी सही है कि बहुत से कांग्रेसी आलसी हो गए और उस तरह से काम नहीं कर रहे हैं, जैसी कि हम से उम्मीद की जाती है, लेकिन इन सबके बावजूद मुझे लगता है कि कांग्रेस को अभी भी एक ऐतिहासिक मिशन पूरा करना है. इसलिए मैं आज भी अपना समय और ताकत इसे देता हूं. मैं ऐसा दो वजहों से करता हूं. पहली वजह अच्छी है, वह यह है कि कांग्रेस को अपना मिशन पूरा करना है और दूसरी वजह खराब है, वह है कि कांग्रेस के अलावा दूसरा कोई है ही नहीं, जो उस मिशन को पूरा कर सके. इसलिए मुझे देश की दूसरी किसी पार्टी से कोई शिकायत नहीं है.’ (पृष्ठ: 102)
कहते हैं, गिद्ध के चाहने से गाय नहीं मरा करती. इस भदेस गंवई कहावत में दोनों प्राणियों की जगह दूसरे जंतुओं को भी रखा जा सकता है. कहना कठिन है कि क्या मृत मांसभक्षी पक्षी वास्तव में किसी जीवित प्राणी की मौत चाहते हैं? ऐसी कहावतों में अक्सर मनुष्य अपने पूर्वाग्रहों को दूसरे प्राणियों के मत्थे मढ़कर व्यक्त करता है. इस कहावत में प्राणियों के बीच एक दर्जाबंदी भी है. गिद्ध का जीवन मानो गाय के मरने पर ही आश्रित हो! अब हम इस श्रेणीबद्ध या जातिवादी दृष्टि से मुक्त हो चुके हैं, ऐसा हमारा विश्वास है. इसलिए भाषा में बदलाव की ज़रूरत है. गिद्ध की आवश्यकता भी इस पृथ्वी को उतनी ही है जितनी गाय की, लेकिन इस कहावत का आशय तो स्पष्ट है और इसे लेकर आज की भाषा में कहावत गढ़ने की ज़रूरत है. कांग्रेस पार्टी की मृत्यु की आकांक्षा अरसे से की जा रही है, इसलिए अभी फिर ज़ाहिर की गई, तो उसमें नयापन नहीं है. लेकिन वक़्त ऐसा था कि कांग्रेस की मौत की इच्छा ने सबका ध्यान खींच लिया. जब देश चुनाव नतीजों का इंतज़ार कर रहा है, जब इस देश के अल्पसंख्यक समुदाय के लोग सांस रोकर प्रतीक्षा कर रहे हैं कि क्या संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली उनका ख़्याल रख सकती है, ठीक ऐसे वक़्त भाजपा के सबसे बड़े विपक्षी दल की मृत्यु की कामना का अर्थ क्या है? पिछले पांच साल से देश को कांग्रेसमुक्त करने का आह्वान भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के द्वारा किया जाता रहा है, लेकिन न सिर्फ यह कि वह अप्रासंगिक नहीं हुई, बल्कि इस चुनाव में भी भाजपा के लिए वही संदर्भ बिंदु बनी रही. सबसे अधिक हमले इसी पार्टी पर हुए. पूरे देश में बाकी दलों में भाजपा अभी भी अपने लिए संभावना देखती है, इसलिए वह रणनीतिक तरीके से उनकी आलोचना करती है लेकिन एक छोटा चोर दरवाज़ा हमेशा खोले रखती है जिससे वे उसकी गली में आ सकें. ये सारे दल किसी न किसी समय भाजपा के साथ सरकार या गठबंधन में रह चुके हैं. समाजवादी तो इसमें पेश-पेश रहे हैं. जनतंत्र की सबसे अधिक दुहाई देनेवाले समाजवादियों को जनसंघ या भाजपा के साथ कभी वैचारिक या नैतिक संकट हुआ हो, इसका प्रमाण नहीं. गांधी की हत्या के बाद जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जयप्रकाश नारायण ने देश के लिए सबसे बड़ा ख़तरा बताया था, बाद में वे उसके सबसे बड़े पैरोकार बन गए. अब हमारे कई मित्र, जो जयप्रकाश आंदोलन में शामिल थे, क़बूल करते हैं कि संघ का साथ लेना हिमालयी भूल थी. 1977 में जनसंघ को मिलाकर जनता पार्टी की सरकार चलाने के बाद अचानक दोहरी सदस्यता का सवाल उठाकर जॉर्ज फर्नांडिस ने संघ के सदस्यों को जनता पार्टी छोड़ने पर बाध्य किया, जिसका नतीजा हुआ भाजपा के रूप में जनसंघ का पुनर्जन्म. 1974 से 1980 तक आरएसएस को राजनीतिक क्षेत्र और प्रशासन में स्वीकार्यता प्रदान करने का काम हमारे समाजवादियों ने किया था. उसके भी पहले राम मनोहर लोहिया के कांग्रेस विरोध ने राजनीतिक नैतिकता को पूरी तरह ताक पर रख दिया. 1967 में कांग्रेस विरोधी राज्य सरकारों में जनसंघ के साथ काम करने में न समाजवादियों को उज़्र था, न वामपंथियों को. गांधी की हत्या को 20 साल भी न हुए थे. जबलपुर, मेरठ, अलीगढ़ से शुरू हुई मुसलमान विरोधी हिंसा में संघ की भूमिका जगज़ाहिर थी. जनसंघ आरएसएस की राजनीतिक शाखा है, इसपर शक करने वाला मूर्ख या भोला ही हो सकता था. 1970 में भी संघ का मुखपत्र गांधी हत्या को जायज़ ठहरा रहा था. उदारपंथियों के प्रिय अटल बिहारी वाजपेयी का मुसलमान विरोध भी छिपा न था. ऐसे दल के साथ समझौता करने का क्या आशय था जो भारत को धर्मनिरपेक्ष नहीं रहने देना चाहता था? क्यों धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के साथ समझौता किया जा सकता था? भले ही तात्कालिक राजनीतिक बाध्यतावश रणनीति के तौर पर ही? इसका अर्थ सिर्फ एक है, वह यह कि ये सारे दल अल्पसंख्यकों की चिंताओं को नज़रअंदाज़ या दरकिनार करने में कोई उलझन महसूस नहीं करते थे. उनके लिए प्राथमिक काम था कांग्रेस को ख़त्म करना और सत्ता पर क़ाबिज़ होना. भाजपा को इनके साथ काम करने में कोई परेशानी न थी, जो जाहिर तौर पर धर्मनिरपेक्षतावादी थे क्योंकि वह जानती थी कि इन पार्टियों का साथ उसे कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकता, लेकिन उसका साथ ज़रूर इन दलों को धीरे-धीरे प्राणहीन कर देगा. ये इतने दयनीय हो जाएंगे कि भाजपा के बिना उनका आसरा न होगा. भाजपा की राजनीति के लिए इस प्रकार जो सबसे असुविधाजनक है और सबसे बड़ा रोड़ा है, वह कांग्रेस ही है. यह क्योंकर हुआ कि वह कांग्रेस जिसमें टंडन, शुक्ला, पंत, सम्पूर्णानंद, जैसे हिंदू दक्षिणपंथी प्रभावशाली नेता थे, आरएसएस और जनसंघ के लिए सबसे बड़ी मुश्किल बनी रही? क्या यह गांधी की छाया और नेहरू की धर्मनिरपेक्ष ज़िद की वजह से? लेकिन यह तो तथ्य है कि अपनी राजनीतिक ताकत के बावजूद न तो कांग्रेस ने समाजवादियों का काम बाधित किया, न ही जनसंघ तक को बनने से रोका. नए राजनीतिक दल बनते और बिखरते रहे. समाजवादियों के ही जिगर के हज़ार टुकड़े हुए! कांग्रेस के होने की वजह से क्या सामाजिक न्याय के दल नहीं उभरे या क्या क्षेत्रीय पार्टियां नहीं बनीं और ताकतवर हुईं? ये सब अपने तौर पर विकल्प थे. परिशुद्ध नहीं, जैसा कुछ लोग चाहते हैं लेकिन ख़ुद उनकी शुद्धता से क्या प्रतिबद्धता है? 2010 वह सबसे करीबी साल है, जिसे कांग्रेस के सटीक विकल्प की तलाश की चर्चा के प्रसंग में याद किया जा सकता है. जंतर मंतर पर अरविंद केजरीवाल रामदेव के नेतृत्व में भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन का आरंभ कर रहे थे. रामदेव को क्या हमारे राजनीतिक विश्लेषणकर्ता नहीं जानते थे? क्या यह सच नहीं कि इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में आरएसएस की गहरी दिलचस्पी थी और उसने परोक्ष रूप से इसे खड़ा करने में हाथ बंटाया? क्या हम इस आंदोलन में संघ के प्रिय प्रतीकों के इस्तेमाल को भूल गए हैं? क्या वंदेमातरम के नारों, भारत माता की विशाल छवि, भीमकाय तिरंगों को भी भूल गए हैं? इस आंदोलन की स्पष्ट हिंदूवादी प्रतीकात्मकता को लेकर जब कुछ मुसलमान मित्रों ने उलझन ज़ाहिर की तो उन्हें अनुदार, संकीर्णतावादी ठहरा दिया गया. कहा गया कि बड़े राष्ट्रीय हित को ध्यान मे रखते हुए उन्हें अपने ऐतराज़ स्थगित कर देने चाहिए. अब ये सारे प्रतीक भाजपा के हथियार हैं. उसी तरह इस आंदोलन के नेताओं ने अन्ना हजारे को दूसरे गांधी के रूप में पेश करने की कोशिश की गई. झूठ को रणनीति के तौर पर जायज ठहराते हुए रामलीला मैदान में अन्ना के उपवास का विराट नाटक आयोजित किया गया. मिथ्या और भ्रष्ट साधनों से भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के संचालन पर कभी पश्चाताप का क्षण आएगा लेकिन उसका परिणाम तो भारत अभी भुगत रहा है. इस आंदोलन के गर्भ से उत्पन्न आम आदमी पार्टी को कांग्रेस का सबसे कारगर विकल्प बताया गया. इसकी ख़ासियत बताई गई विचार से इसका विराग या इसकी विचारनिरपेक्षता. जो मित्र अभी कांग्रेस से दुखी हैं कि वह भाजपा के मुकाबले भारत के सामने कोई बड़ा विचार नहीं प्रस्तुत कर रही है, उन्हीं का ख़्याल था कि विचारधारा का युग बीत गया है, अब सिर्फ सुशासन की राजनीति का वक़्त है. सिर्फ बिजली, पानी, सड़क की राजनीति का समय है. अगर 2011 में ही विचारधारोत्तर युग का आरंभ हो चुका था, तो उसके एक सिद्धांतकार अब क्यों विचार के लिए व्याकुल हैं? जिन्होंने बहुसंख्यकवादी वातावरण बनाने का काम किया, वे क्यों कांग्रेस की हिचकिचाती धर्मनिरपेक्षता से दुखी हैं? जब वे इस विचार को ही अप्रासंगिक ठहरा चुके थे, तो फिर अब किसी एक दल से क्यों इसे स्थापित करने की मांग कर रहे हैं? जो कांग्रेस पर बहुसंख्यकवाद से लड़ने में संकल्प की कमी का आरोप लगाते हैं, वे आत्मनिरीक्षण करें कि वे ख़ुद मुसलमानों के मुखर समर्थन से परेशान थे या नहीं? चाहे बनारस में हो या दिल्ली में? उन्हें मुसलमानों का वोट चाहिए था, उनकी राजनीतिक मुखरता नहीं! यह तर्क भी बड़ा विचित्र है कि कांग्रेस नए विकल्प के रास्ते में रुकावट है. जो पार्टी मर रही है, जिसमें कोई जान नहीं, वह कैसे दूसरे को आगे बढ़ने से रोक रही है? अपनी कमज़ोरी को कांग्रेस के मत्थे मढ़ने के लिए यह बड़ा लचर तर्क खोजा गया है. क्या बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, बीजू जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी को बनने और बढ़ने से कांग्रेस ने रोका? क्या इन सारे दलों का पहला निशाना कांग्रेस न थी? फिर भी क्या कांग्रेस ने भाजपा को रोकने के लिए इनके साथ काम नहीं किया? राहुल गांधी भले व्यक्ति हैं लेकिन नरेंद्र मोदी का कारगर उत्तर नहीं, तो फिर क्या राहुल आत्महत्या कर लें? क्या उन्होंने किसी और बड़े वाक्पटु को पूरे देश में सभाएं करने से रोका? जिनके पास बुद्धि, तर्क और वाक् कला है, वे क्योंकर इस खाली जगह को नहीं भर पाए? भाजपा और संघ के उभार से चिंता स्वाभाविक है लेकिन इसीलिए हम सबको और स्थिरचित्त होने की आवश्यकता है. धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक और सामाजिक आधार को विस्तृत, और विस्तृत करने की ज़रूरत है. यह समय पिछली बातों की विवेचना और आत्मभर्त्सना का नहीं तो संभावित मित्रों के चरित्र विश्लेषण का भी नहीं. यह अगर कांग्रेस के नए जन्म का वक़्त है तो शेष सबके के लिए भी अपनी आत्माओं को शुद्ध करने का समय है. the wire hindi
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)
  • Blogger Comments
  • Facebook Comments

0 comments:

Post a Comment

आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।

Item Reviewed: कांग्रेस की मौत की कामना करना कितना उचित है? Rating: 5 Reviewed By: newsforall.in