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‘नेशनल हेरल्ड’ और ‘नवजीवन’ के एडिटर-इन-चीफ नीलाभ मिश्र का निधन

नई दिल्ली। हमारे दोस्त, गाइड, लीडर और एडिटर-इन-चीफ नीलाभ मिश्र नहीं रहे। बेहद दुख और पीड़ा के साथ हमें यह बताना पड़ रहा है किआज (24फरवरी, 2018) सुबह 7.30 बजे चेन्नई के अपोलो अस्पताल में उनका निधन हो गया। 57 वर्षीय नीलाभ के परिवार में उनकी लंबे समय से दोस्त और पार्टनर कविता श्रीवास्तव, भाई शैलोज कुमार, भाभी सुधा और भतीजी नवाशा हैं। उनका अंतिम संस्कार आज दोपहर 3.30 बजे नुंगमबक्कम इलेक्ट्रिक क्रीमेटोरियम में होगा। उनका शव दोपहर करीब 2.30 बजे नुंगमबक्कम क्रीमेटोरियम में लाया जाएगा, जहां उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दी जाएगी। नीलाभ को नॉन-एल्कोहॉलिक लिवर सिरॉसिस के कारण ज्यादा तबियत खराब होने पर चेन्नई के अपोलो अस्पताल में भर्ती कराया गया था। इलाज के दौरान मल्टीपल ऑर्गन फेल्योर के चलते उनका लिवर ट्रांसप्लांट नहीं कराया जा सका. और 24 फरवरी को उन्होंने आखिरी सांस ली। उस समय उनके पास उनके रिश्तेदार, दोस्त, कॉमरेड्स और नजदीकी लोग थे। नीलाभ ने 2016 में नेशनल हेरल्ड को डिजिटल स्वरूप में एक वेबसाइट के रूप में री-लांच किया था। नेशनल हेरल्ड की स्थापना देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने 1938 में की थी। नीलाभ नेशनल हेरल्ड ऑन संडे वीकली न्यूज पेपर भी लांच किया और साथ ही नेशनल हेरल्ड के सहयोगी प्रकाशन नवजीवन और कौमी आवाज को भी डिजिटल फार्मेट में वेबसाइट के रूप में शुरु किया। नेशनल हेरल्ड के एडिटर-इन-चीफ बनने से पहले नीलाभ कई वर्षों तक आउटलुक हिंदी के संपादक रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम ए करने वाले नीलाभ ने अपने करियर की शुरुआत नवभारत टाइम्स के साथ अपने गृहनगर पटना से की थी। वहां से नीलाभ राजस्थान चले गए और न्यूज टाइम के जयपुर संवाददाता के रूप में काम किया। उन्होंने 1998 में राजस्थान में इनाडू टीवी भी शुरु कराया। पत्रकारिता में तीन दशक से भी ज्यादा समय तक सक्रिय रहे नीलाभ ने बहुत से युवा पत्रकारों को पत्रकारिता की बारीकियां सिखाईं और समझाईं। नीलाभ का लहजा सदा सत्य की शक्ति और जमीनी हकीकत से जुड़ा रहा। सत्य को सामने लाने की पत्रकारिता को समर्पित एक सच्चे पत्रकार नीलाभ ने नागरिक अधिकारों के विस्तार के लिए पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ के साथ बिहार, राजस्थान और दूसरे राज्यों में काम किया। विभिन्न सामाजिक आंदोलनों के लिए वे सदैव एक सच्चे और अच्छे मित्र रहे। सभी सामाजिक संगठन सदा सलाह के लिए उनकी मदद लेते रहे। जिन आंदोलनों से वे नजदीकी से जुड़े में राजस्थान का मजदूर किसान शक्ति संगठन और सूचना के अधिकार का आंदोलन भी है। महिलावादी आंदोलन ने सदा नीलाभ को अपना मित्र माना। नीलाभ एक सतर्क और उत्साही राजनीतिक विश्लेषक और पर्यवेक्षक थे। साथ ही कविता और कहानियों में उनकी गजब की रूचि थी। इतिहास को पढ़ना और उसके प्रसंगों को समझना नीलाभ का जुनून था। नेशनल हेरल्ड नीलाभ के उस संकल्प के साथ काम करता रहेगा जो देश की बहुमूल्य लोकतांत्रिक स्वतंत्रता और अधिकारों की रक्षा के लिए सदा समर्पित रहा और जिसे नेशनल हेरल्ड के संस्थापक पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित मूल्यों से प्रेरणा मिली। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनके निधन पर दुख जताया है। उन्होंने लिखा है, “संपादकों के संपादक, एक ऐसे शख्स जो सत्य की ताकत पहचानते थे। वे ऐसे शख्स थे जो संस्थाएं बनाते थे। नीलाभ मिश्र के दुखद निधन पर उनके परिवार के लिए, मित्रों, साथियों और चाहने वाले के प्रति गहरी संवेनाएं।”  
नीलाभ मिश्र की कमी पत्रकारिता में हमेशा महसूस की जाएगी  
जफर आगा 
नीलाभ अब नहीं रहे, यह सोचना पाना बिल्कुल अविश्वसनीय है। किसी ने नहीं सोचा था कि जिस आदमी ने पीयूष जैन (सीईओ, नेशनल हेराल्ड ग्रुप) के साथ मिलकर जवाहरलाल नेहरू के नेशनल हेराल्ड अखबार समूह को फिर से खड़ा किया, वह हमें इतनी जल्दी छोड़ कर चला जाएगा। इस कमी को भर पाना बहुत मुश्किल है, नामुमकिन है। हम जानते थे कि ऐसा कुछ होने जा रहा है। हम पिछले कुछ दिनों से जानते थे कि यह निश्चित है, फिर भी यह अविश्वसनीय और चौंकाने वाला है। मेरी नीलाभ से मुलाकात बहुत देर से हुई। वास्तव में, मेरी उनसे पहली मुलाकात यहीं नेशनल हेराल्ड में हुई। लेकिन वह एक हीरा आदमी थे, एक महान पत्रकार थे, जैसा कि भाषा सिंह ने लिखा भी है। उन्होंने बहुत सारे पत्रकारों को बनाया है, उन्हें सिखाया, उन्हें तैयार किया है। वह हमें छोड़कर चले जाएंगे, यह मेरे लिए वास्तव में बहुत अविश्वसनीय है। मेरे पास शब्द नहीं हैं। नीलाभ एक महान पत्रकार थे और उनकी अनुपस्थिति को इस पेशे में सबसे ज्यादा महसूस किया जाएगा, क्योंकि अब, उनके जैसे संपादक आपको नहीं मिलेंगे। पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता के साथ क्या हुआ है। पत्रकारिता भी किसी भी अन्य पेशे में बदल गई है। लोग इस पेशे में पैसा बनाने और नाम कमाने के लिए आते हैं। संपादकों का वह पुराना वर्ग चला गया और नीलाभ भी उन्हीं में से एक हैं। और मुझे लगता है कि नीलाभ उन आखिरी संपादकों में से सबसे अंतिम थे, जिन्होंने काम किया, मुस्कुराया, कई लोगों को तैयार किया और चुपचाप छोड़कर चले गए। वह हमेशा मुस्कुराते रहते थे, हमेशा एक हंसमुख मूड में रहते थे। पिछले कुछ महिनों से वह जिस पीड़ा से गुजर रहे थे, हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। क्या अद्भुत इंसान थे, वह कभी मंद नहीं पड़े, कभी उन्होंने कोई शिकायत नहीं की। उनके चेन्नई जाने से कुछ घंटे पहले (इस महीने की शुरुआत में) मेरी उनसे मुलाकात हुई थी और उस मुलाकात में वह एक किताब के बारे में मुझसे बात कर रहे थे। उस समय वह बहुत अस्वस्थ थे, लेकिन फिर भी वह एक किताब के बारे में बात कर रहे थे। वास्तव में, उन्होंने मुझे वह किताब दिया और कहा, “जफर साहब, ये बहुत अच्छी किताब आई है, आप इसे लेते जाइए।” कल्पना कीजिए, इलाज के लिए चेन्नई जाने से कुछ घंटे पहले वह एक किताब पर बातें कर रहे थे। जैसा कि हम सभी जानते हैं वह सिर्फ एक पत्रकार नहीं थे। मैं भी एक राजनीतिक पत्रकार हूं। हम जब भी थोड़ी देर के लिए साथ बैठते थे, राजनीति पर बातें किया करते थे। लेकिन उनसे साहित्य, कला और संस्कृति पर बातें करने में मुझे ज्यादा मजा आया। मैं उनसे कहा करता था कि आप पत्रकारिता से ज्यादा कला और संस्कृति को समझने-परखने वाली शख्सियत हैं। उनके अंदर किताबों के लिए प्यार था, कला और संस्कृति के लिए जुनून था और सबसे खास बात यह कि वह एक बेहद सभ्य और सौम्य व्यक्ति थे, जिसने उन्हें कला और संस्कृति की ओर आकर्षित किया। नीलाभ को हम सिर्फ यही श्रद्धांजलि दे सकते हैं कि जिस संस्थान नेशनल हेराल्ड अखबार समूह का उन्होंने पुनर्निर्माण किया है, उसे साकार करने के लिए, उसे एक उदारवादी मंच बनाने के लिए हम सबको अपने आपको समर्पित कर देना चाहिए। इन्हीं शब्दों के साथ, मैं नीलभ मिश्र को श्रद्धांजलि देता हूं, इस विश्वास के साथ कि वह हमेशा हमारे साथ रहेंगे।  
जनपक्षधर बौद्धिकता का ईमानदार चेहरा  
उर्मिलेश 
आज के घमंड और दिखावे भरे मीडिया-माहौल में नीलाभ बिल्कुल अलग ढंग के जीव थे। मक्कारी, झूठ, अपढ़ता और घमंड से भरे अपने-अपने ‘स्टारडम’ में डूबे ज्यादातर टीवी एंकर्स और हिंदी-अंग्रेजी के ज्यादातर बड़े संपादक-पत्रकार मामूली सी ‘प्रसिद्धि’ हासिल करने के बाद राजनीति में ‘कुछ बड़ा’ हासिल करने के लिये बड़े नेताओं की परिक्रमा करना शुरू कर देते हैं। इसके उदाहरण सत्ता-पक्ष और पूर्व सत्ता-पक्ष, दोनों तरफ मौजूद हैं। नीलाभ पढ़ाई-लिखाई के बाद सीधे राजनीति में जा सकते थे। अगर वह चाहते तो बिहार में कोई भी पार्टी उन्हें कम से कम विधानसभा का टिकट देने में शायद ही किसी तरह का संकोच करती। थोड़ी कोशिश करते तो लोकसभा का टिकट हासिल करना या भविष्य में मंत्री आदि बनना भी उनके लिये ज्यादा मुश्किल नहीं होता क्योंकि उनके पास एक बहुत प्रसिद्ध पारिवारिक पृष्ठभूमि थी। पर नीलाभ ने अपने छात्रजीवन में ही आम जन के पक्ष में काम करने का फैसला कर लिया। वह चाहते तो मुखर्जी नगर या तिमारपुर की तरफ रहने वाले हजारों बिहारी युवकों की तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के अपने छात्रजीवन में सिविल सर्विसेज के लिए जुट सकते थे। उनकी अंग्रेजी और हिन्दी, दोनों ठीक-ठाक थी। प्रतिभाशाली तो थे ही। अफसरशाही में घुसना भी उनके लिये बहुत दुष्कर कार्य नहीं था। पर नीलाभ ने अस्सी के दशक में पत्रकारिता का रास्ता चुना। उन्हें लगा कि इसके जरिये वह एक बड़े दायरे में आमजन की बात पहुंचा सकते हैं। तब मीडिया का माहौल आज जैसा घुटनाटेकू और कलुषित नहीं था। समाज और जनता के व्यापक सरोकारों के लिए पत्रकारिता में जगह थी। इसके ठोस कारण भी थे। समाज में बदलाव की बेचैनी थी। कई तरह के बड़े-बड़े आंदोलन हो चुके थे। इनमें सबसे ताजा था बिहार और गुजरात से उठा भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ बड़ा जनांदोलन। इसमें युवाओं की अहम भूमिका थी। इससे पहले बंगाल, बिहार सहित देश के कई राज्यों में भूमि, इज्जत और मजदूरी के लिए खेत-मजदूरों, आदिवासियों और गरीबों के उग्र आंदोलन हो चुके थे। ऐसा नहीं था कि पत्रकारिता में सत्ता की चाटुकारिता तब नहीं होती थी। घुटनाटेकू लोग तब भी थे। पर उन दिनों बिहार में पत्रकारिता में एक ऐसी सशक्त धारा उभर रही थी, जो हर तरह के सर्वसत्तावाद के खिलाफ जनता की आवाज बनने की कोशिश करती थी। तब आज की तरह हर शाम टीवी चैनलों पर भक्तिभाव के साथ एक ही तरह का ‘भजन’ गाने वाली किस्म-किस्म की ‘मृदंग-मंडलियां’ नहीं सजती थीं। पत्रकारों का एक समूह जोखिम लेकर समाज और अवाम की बात करता था। आम लोगों में ऐसी पत्रकारिता और पत्रकारों के लिये पर्याप्त सम्मान और समर्थन था। नीलाभ और हम सभी लोग उसी दौर में पत्रकार बने। नीलाभ से मेरी पहली मुलाकात पटना स्थित नवभारत टाइम्स के दफ्तर में हुई। मैं दिल्ली से बिहार गया था। नीलाभ दिल्ली से पढ़े थे पर बिहार से थे, ठेठ बिहारी। जेएनयू से निकलने के लगभग ढाई साल बाद मुझे रेगुलर जॉब मिली थी। उन दिनों नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक हिन्दी के यशस्वी पत्रकार राजेंद्र माथुर थे। उन्होंने तय किया था कि पटना के लिये सारी नियुक्तियां वह टेस्ट और इंटरव्यू के मार्फत करेंगे। इसलिए वहां मामा-भांजा, चाचा-भतीजा, जीजा-साला, ‘भूमिहार-भूमिहार’, ‘ब्राह्मण-ब्राह्मण’ या ‘राजपूत-राजपूत’ (उन दिनों बिहार में 95 फीसदी से ज्यादा पत्रकार इन्हीं बिरादरियों से आते थे) वाला मामला नभाटा की उस नियुक्ति-प्रक्रिया में आमतौर पर नहीं चला। बताते हैं कि टेस्ट की कापियां माथुर साहब की निगरानी में जांची गईं। उपसंपादक से समाचार संपादक, सभी पदों के इंटरव्यू में माथुर साहब स्वयं मौजूद रहे। नीलाभ सहित हम सब लोग उसी प्रक्रिया से गुजरते हुए नभाटा के पत्रकार बने। मैं स्टाफ रिपोर्टर के रूप में नियुक्त हुआ था और नीलाभ डेस्क पर उप संपादक। मैंने सन 1986 के अप्रैल के पहले सप्ताह में ज्वाइन किया। संभवतः उन्होंने कुछ समय बाद ज्वाइन किया। अखबार का पटना से नया संस्करण निकलना था और यहां कई बड़े क्षेत्रीय अखबार पहले से जमे हुए थे, इसलिये हमारे दफ्तर में नये संस्करण की तैयारी कुछ पहले ही शुरू कर दी गई। कई-कई बार कार्यशालाएं लगाई गईं। इस दौरान हम सारे लोग एक-दूसरे से घुल-मिल गये। कौन क्या और कितना खाता या पीता है, इससे भी हम सब वाकिफ हो गये। पर मेरे जैसे बिहार के बाहर से आये व्यक्ति को नीलाभ की तरफ से इस बात की कभी भनक तक नहीं मिली कि वह चंपारण के मशहूर और बेहद सम्मानित समाजसेवी और बिहार कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष प्रजापति मिश्र के पौत्र और बिहार सरकार के पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रमोद कुमार मिश्र के पुत्र हैं। उनके सम्बन्धी और मेरे मित्र-पत्रकार अरविन्द मोहन ने बताया कि नीलाभ की दादी केतकी देवी भी चंपारण के चनपटिया क्षेत्र से दो-दो बार विधायक रह चुकी थीं। नीलाभ की मां यूपी से थीं और जाने-माने समाजवादी नेता व सांसद रमाशंकर कौशिक की भतीजी थीं। नीलाभ के दादा चंपारण सत्याग्रह में महात्मा गांधी के सहयोगी रहे थे। पर इतने जाने-माने परिवार से आने वाले नीलाभ ने उस दौर में हम जैसे नये लोगों के बीच अपनी इस पारिवारिक पृष्ठभूमि की कभी चर्चा नहीं की। जो लोग पहले से जानते थे, उनकी बात अलग थी। सच पूछिये तो नीलाभ की इस पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में मुझे बहुत बाद में तब पता चला, जब किसी ने बताया कि वह दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और जेएनयू में मेरे समकालीन डॉ. अनिल मिश्र और पत्रकार अरविन्द मोहन के रिश्तेदार हैं। जिस मित्र ने यह बात बताई, उसी ने नीलाभ की पारिवारिक पृष्ठभूमि का विस्तार से जिक्र किया। नीलाभ से इस पृष्ठभूमि के सिर्फ एक पहलू की मुझे जानकारी मिली थी। एक दिन हम लोग किसी टीवी चैनल पर साथ-साथ पैनल-डिस्कसन में मौजूद थे। विषय यूपी से जुड़ा था। कार्यक्रम में नीलाभ ने बहुत अच्छी टिप्पणियां कीं। कई नयी बातें सामने रखीं। मैंने उत्सुकतावश पूछा, ‘नीलाभ, तुमने यूपी की भू-संरचना और सामाजिक-राजनीतिक समीकरणों के इतिहास और वर्तमान के बारे में इतनी सारी जानकारी कहां से हासिल की? लगता है, इधर यूपी पर काफी पढ़े हो!’ उस दिन पहली बार नीलाभ ने अपनी मां की यूपी स्थित पैतृक पारिवारिक पृष्ठभूमि की चर्चा की। लेकिन नीलाभ अपने पिता या दादा या दादी की राजनीतिक विरासत के ध्वजवाहक नहीं बने। संभवतः छात्रजीवन में ही उसका लगाव मार्क्सवादी विचारों से हुआ। बिहार में कई जाने-माने वामपंथी विचारकों, लेखकों, बुद्धिजीवियों और प्रगतिशील सोच के पत्रकारों से उसके गहरे रिश्ते रहे। इनमें प्रो. प्रधान हरिशंकर प्रसाद, डॉ. शशिभूषण, डॉ. विनयन, पत्रकार अरुण सिन्हा, उत्तम सेनगुप्ता और किरण शाहीन आदि के नाम प्रमुख हैं। जब मुझे पता चला कि नीलाभ बिहार के एक मशहूर और प्रतिष्ठित कांग्रेसी परिवार से आते हैं तो तनिक आश्चर्य भी हुआ। उन दिनों मैं नभाटा में ‘राजनीतिक बीट’ देखता था और सत्ताधारी कांग्रेस और विधानमंडल आदि की गतिविधियों के कवरेज का प्रभारी था। पर मैंने अपने पटना कार्यकाल में शायद ही कभी नीलाभ को किसी कांग्रेसी नेता या सर्किल में कहीं देखा हो! वह हमेशा तरक्कीपसंद सोच के वाम रूझान वाले या सिविल लिबर्टीज संगठन से जुड़े लोगों के नजदीक दिखते थे। पटना स्थित टाइम्स हाउस में हम लोगों ने प्रबंधन के कई उल्टे-सीधे फैसलों और अन्यायपूर्ण कदमों के खिलाफ साथ-साथ लड़ाई भी लड़ी। नवभारत टाइम्स में हमारे एक दूसरे मित्र नवेंदु के साथ नीलाभ की जोड़ी बहुत मशहूर हुई थी। दफ्तर और यूनियन से जुड़ी तमाम गतिविधियों में दोनों के बीच अच्छा समन्वय दिखता था। चूंकि दोनों डेस्क पर साथ-साथ थे, इसलिए एक-दूसरे के साथ समय भी ज्यादा बिताते थे। अपने डेस्क पर कई लोगों को बेहतरीन संपादन के लिये जाना जाता था। ये थे-नीलाभ, नवेंदु, श्रीचंद और गुंजन सिन्हा(पिछले दिनों गुंजन ने कैंसर से लंबी लड़ाई में जीत हासिल की)। ये सभी साथी हमारे बीच हैं, बस अपना नीलाभ न जाने क्यों पहले ही साथ छोड़कर चला गया। पटना स्थित नवभारत टाइम्स के बंद होने के बाद नीलाभ दिल्ली होते हुए जयपुर जा पहुंचे। वहां उन्होंने इनाडू समूह के अंगरेजी अखबार ‘न्यूज टाइम’ के राजस्थान संवाददाता के रूप में बहुत अच्छा काम किया। बाद के दिनों में उन्होंने ‘हिन्दी आउटलुक’ में काम किया और कुछ समय बाद उसके संपादक बना दिये गये। विनोद मेहता जैसे अंगरेजी के सधे संपादक ने नीलाभ से अनुरोध कर ‘आउटलुक’ के लिये अंगरेजी में नियमित स्तम्भ लिखवाया। उस स्तम्भ को खूब पढ़ा गया। इससे नीलाभ को राजधानी के अंगरेजी पत्रकारों और पाठकों में न केवल अपना प्रवेश दर्ज कराने का मौका मिला अपितु पर्याप्त सम्मान भी मिला। हिन्दी आउटलुक की संपादकी छोड़ने के बाद नीलाभ कुछ समय तक फ्रीलांसिग करते रहे। फिर ‘नेशनल हेराल्ड’ के पुनर्प्रकाशन की जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई और उसके प्रधान संपादक बने। अपने नये संस्थान में अभी उन्होंने संभवतः ज्वाइन भी नहीं किया था कि एक दिन मेरे अनुरोध पर वह राज्यसभा टीवी पर मेरे द्वारा प्र्रस्तुत साप्ताहिक कार्यक्रम ‘मीडिया मंथन’ में एक पैनेलिस्ट के रूप में आये। उन्होंने अपनी नयी जिम्मेदारी की सूचना मुझे दे रखी थी। फिर भी मैंने पूछा, ‘नीलाभ, आज के कार्यक्रम में तुम्हें किस रूप में संबोधित करूं या दर्शकों को तुम्हारा क्या परिचय दूं...वरिष्ठ पत्रकार या...?’ नीलाभ ने अपनी सुपरिचित मंद मुस्कान बिखेरते हुए कहा, ‘अब आप नयी जिम्मेदारी का उल्लेख कर सकते हो!’ और इस तरह उस दिन मैंने नीलाभ को ‘नेशनल हेराल्ड’ के प्रधान संपादक के रूप में दर्शकों के समक्ष पेश किया। कार्यक्रम के बाद चाय पीते हुए उनसे ‘हेराल्ड’ में उनकी ज्वाइनिंग को लेकर ढेर सारी बातें हुईं। उन्होंने एक बात बहुत शिद्दत से कही, ‘आप सोच रहे होंगे कि अपने मिजाज से अलग एसाइनमेंट मैंने क्यों मंजूर किया? पर हेराल्ड के शीर्षतम लोगों ने मुझे सुनिश्चित किया है कि पार्टी के ‘मुखपत्र’ जैसी बात तो दूर रही, यह हर मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी की लाइन का अनुसरण भी नहीं करेगा। कांग्रेस की आलोचना भी करेगा। यह सेक्युलर-डेमोक्रेटिक आवाज का एक मीडिया मंच होगा। आज जिस तरह के खतरे हमारे संविधान पर मंडरा रहे हैं, उसमें ऐसे मंच की जरूरत मैने भी महसूस की। इसीलिए एसाइनमेंट मंजूर भी किया। देखो, क्या होता है!’ नीलाभ ने कम ही दिनों में हेराल्ड और नवजीवन की वेबसाइट लांच कर दी। उत्तम सेनगुप्ता जैसे उसके वरिष्ठ और सुयोग्य साथी भी टीम में कार्यकारी संपादक के रूप में जुड़ गये। पर यह क्या नीलाभ ज्यादा वक्त रूके नहीं, अनंत की यात्रा में न जाने क्यों इतनी जल्दी उड़ गये! तुम्हारी बहुत याद आयेगी नीलाभ, वो पटना के फ्रेजर रोड की घुमक्कड़ी, राजस्थान रेस्तरां या मंगोलिया की यदाकदा की बैठकी और किसी दोस्त के घर जमके भोज-भात! अस्वस्थता के दौरान दो या तीन बार मेरी नीलाभ से मुलाकात हुई। अंतिम मुलाकात दिल्ली स्थित भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के विशेष वार्ड में हुई। कविता जी उसके साथ थीं। तब वह आशा से लबरेज था। लगता था, सबकुछ ठीक होगा, वह पहले की तरह ठहाका लगायेगा, दोस्तों के साथ जमकर मटन खायेगा, अच्छा संगीत सुनते हुए ग्रीन टी पिलायेगा और सियासत के भावी समीकरणों पर विचारोत्तेजक चर्चा करेगा। लेकिन आज अचानक याद आ रहा है, एक बार अस्वस्थता के दौरान ही एक प्रीतिभोज में मुलाकात हुई। उसे सामान्य भोजन नहीं करना था। मसालेदार खाने से बचना था। कुछ हल्की-फुल्की चीजें एक प्लेट में लेकर वह एक तरफ जाकर बैठ गया। मैं खाना खा चुका था। मैं भी वहीं जाकर बैठ गया। काफी देर तक हम लोग लॉन में अकेले बतियाते रहे। मैंने सेहत में सुधार के बारे में पूछा। उसने बड़े साफ शब्दों में कहा, 'देखो, पहले से हालत निश्चित ही सुधरी है लेकिन इस बीमारी के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है। मेरे खानदान में कई लोग इसी तरह के रोग से कम उम्र में मरे हैं। उनमें कइयों के मुकाबले मैंने अधिक उम्र पाई है।‘ मैंने उसमें आशा और विश्वास भरने की गरज से कहा, ‘ उस दौर से तुलना मत करो। आज पहले से ज्यादा विशेषज्ञ चिकित्सक और समर्थ चिकित्सा पद्धति हमारे पास हैं। इसलिये वो सब बातें मत सोचा करो!’ काफी समय बाद एक दिन मैंने उसे फोन कर हालचाल जानना चाहा पर फोन नहीं उठा। बाद में पता चला, तबीयत ज्यादा खराब हो गई है। और उन्हें बेहतर इलाज के लिये चेन्नई ले जाया गया। पर नीलाभ चले गये...। सलाम और श्रद्धांजलि दोस्त। बार-बार बहुत याद आओगे।  
गंदगी के इस दौर में उनकी निगाह थी सितारों पर 
सीमा मुस्तफा  
पता नहीं हमें ईमानदार पत्रकारों की असमय मृत्यु पर कितनी श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी और मीडिया की आजादी के पक्ष में खड़े हम लोगों का और कितना नुकसान सहना पड़ेगा। नीलाभ मिश्र बीमारी से लंबे संघर्ष के बाद हमें छोड़कर चले गए और उसे भी उन्होंने उतने ही साहस और शांतिपूर्ण तरीके से सहा जैसे उन्होंने अपनी जिंदगी जी। उन्हें भी उन मुश्किलों से गुजरना पड़ा था जो भारत का हर स्वतंत्र पत्रकार झेल रहा है। जब एक पत्रकार समझौते से इंकार करता है तो उसे अपनी नौकरी गंवानी पड़ती है। और तब भी संघर्ष जारी रहता है, लेकिन शायद ही किसी को पूरी तरह पता है कि उन्हें कितनी तकलीफों और समस्याओं से गुजरना पड़ता है। नौकरी के साथ या बिना नौकरी के, नीलाभ मिश्र हमेशा मुस्कुराते रहे और जैसे ही उनके कैरियर ने बेहतरी के लिए एक निर्णायक मोड़ लिया और नेशनल हेरल्ड बोर्ड ने उनकी ईमानदारी और साहस को समझा, उनका निधन हो गया। नीलाभ मिश्र ने हमेशा सितारों को देखा और जैसा कि ऑस्कर वाइल्ड ने लिखा था, उन्होंने भी यह मानने से इंकार किया कि कोई भी कचरे के ढेर में है। उनके लिए अच्छे दिन हमेशा करीब और पहुंच में रहे, जबकि हमारे बीच के कई लोगों को लगा कि भविष्य धुंधला और वर्तमान स्याह है। नेशनल हेरल्ड के प्रधान संपादक के तौर पर उन्होंने अतीत के एक अखबार को गरीबों, हाशिए पर खड़े और सताए गए लोगों की विचारधारा में बदल दिया। कांग्रेस पार्टी के विचारों से स्वतंत्र और उसके अलावा भी, नीलाभ मिश्र ने अखबार में ऐसी जान डाल दी कि हम कई लोगों अपने कैरियर में पहली बार उसमें छपने वाली रिपोर्टों को दिलचस्पी के साथ देखना शुरू किया। वास्तव में, दलितों, बेआवाज, हाशिए के और सताए लोगों से जुड़ी उन खास खबरों का इंतजार करने लगे जैसी वे अपने फेसबुक पेज पर साझा करते थे। नीलाभ मिश्र बहुत कम बोलते थे और सेलिब्रिटी पहचान पाने के चक्कर में नहीं रहते थे। टेलीविजन पर भी बहुत कम आते थे और खुद को लिखित शब्दों की दुनिया तक सीमित रखते थे। लेकिन उन्हें जानने वाले और उनसे बातचीत करने वाले हम सभी लोगों को पता था कि वे किन विचारों के पक्ष में थे - सामाजिक न्याय औक सेकुलरिज्म की गहरी विचारधारा, एक विश्वदृष्टि जो सारी संस्कृतियों को अपने साथ लेकर चलती है और हां, खाना। सारी अच्छे पत्रकारों की तरह नीलाभ मिश्र भी खाने के शौकीन थे, और हम सबकी तरह अच्छे निवाले का काफी आनंद उठाते थे। वास्तव में, जब भी पत्रकार जुटते थे और वैकल्पिक नौकरी की चर्चा करते थे, हर बार कैफे खोलने को लेकर बात होती थी – कबाब और मार्गेरिटा पर खास जोर देते हुए। नीलाभ मिश्र ने संस्थानों को निर्माण किया, और उन्होंने नेशनल हेरल्ड विवादों से निकालते हुए खड़ा किया और धीरे-धीरे लेकिन निश्चित तरीके से उसे एक जोशपूर्ण मीडिया घराने में तब्दील किया। आज के माहौल में प्रिंट मीडिया भी राजनीतिक और कॉरपोरेट दबावों के सामने घुटने टेक चुका है, और तब भी न्यूज की अपनी समझ के साथ वे काम कर रहे थे, खबरों के विस्तार पर ध्यान देते हुए, तथ्यों का सम्मान करते हुए, हर छपने वाली खबर पर अपनी निजी छाप छोड़ते हुए, और निश्चित तौर पर उनमें भारत के लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता दिखती थी। हमें नहीं मालूम कि उन पर कोई दबाव था या नहीं, लेकिन नीलाभ मिश्र झुकने वालों में से नहीं थे और इसलिए ऐसा माना जा सकता है कि अपने आखिरी वर्षों में उन्हें अपने मन का किया। हाल के वर्षों में दुनिया छोड़कर चले गए हमारे कई सहयोगी शायद ही ऐसा कह सकते थे। मैं आखिरी बार उनसे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मिली थी, और हम दोनों को किसी गैर-जरूरी मुलाकात के लिए जल्दी जाना पड़ा। और हमने बस थोड़ी सी बातचीत की और एक-दूसरे से वादा किया कि हम ‘जल्दी’ मिलेंगे। और वह जल्दी कभी नहीं आई, नीलाभ मिश्र की आंखों की चमक और हल्की सी मुस्कुराहट स्मृति में बसी रह गई है। नीलाभ मिश्र जा चुके हैं, लेकिन उनसे जुड़े कई लोगों के प्यार और सम्मान के साथ। मैं नहीं जानती कि हमारे बीच के कितने पत्रकार आज कह सकते हैं कि वे हमारा शोकगीत बने रहेंगे। साभार नवजीवन 
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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