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क्या कभी बताएगी सरकार कि नोटबंदी के बाद अमीरों की संपत्ति में कैसे हुआ इतना इजाफा?

दीपेंदर हुड्डा 
जब प्रधानमंत्री ने नोटबंदी की घोषणा की तो शुरूआत में हमें यह विश्वास दिलाया गया कि इसके जरिये बहुत बड़ी मात्रा में जमा काले धन को सामने लाया जाएगा और आतंकवाद, नक्सलवाद और नकली नोटों पर लगाम लगेगी। बाद में अर्थव्यवस्था को डिजिटल बनाने का उद्देश्य इसमें जोड़ दिया गया, लेकिन राजनीतिक रूप से जिस चीज ने आम लोगों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया, वह यह भरोसा था कि इससे अमीरों को नुकसान होगा और वे समृद्ध होंगे। लोगों में यह आम राय थी कि अगर नोटबंदी से यह सारे उद्देश्य पूरे होते हैं तो थोड़े समय के लिए तकलीफ झेलने में कोई हर्ज नहीं है। इस तकलीफ में जीवन और जीविका को खोना भी शामिल था, लेकिन बड़े उद्देश्यों के लिए छोटा त्याग करना ही पड़ता है। लोगों ने इस समझौते को मान लिया। कम से कम 150 लोगों की मौत हुई। नोटबंदी के बाद की सिर्फ एक तिमाही में कम से कम 15 लाख लोगों की नौकरियां चली गईं। आर्थिक दर दो फीसदी नीचे गिर गई जैसा हमारे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भविष्यवाणी की थी। लेकिन क्या सरकार ने इस समझौते में अपनी जिम्मेदारी पूरी की। लगभग सारी प्रतिबंधित मुद्रा बैंकों में वापस आ गई, सरकार को जिसकी उम्मीद थी वैसा कोई लाभ नहीं हुआ, कश्मीर में लगातार तनाव बना हुआ है और नकली नोटों की समस्या भी खत्म नहीं हुई। लेकिन खासतौर पर जिस एक उद्देश्य ने हमें सबसे ज्यादा धोखा दिया, वह गरीब बनाम अमीर की बात है। नोटबंदी के एक साल पूरे होने के बाद हम सभी इस बात को अच्छी तरह समझ चुके हैं कि कोई भी घोषित लक्ष्य पूरा नहीं हुआ। लगभग सारी प्रतिबंधित मुद्रा बैंकों में वापस आ गई, सरकार को जिसकी उम्मीद थी वैसा कोई लाभ नहीं हुआ, कश्मीर में लगातार तनाव बना हुआ है और नकली नोटों की समस्या भी खत्म नहीं हुई। लेकिन खासतौर पर जिस एक उद्देश्य ने हमें सबसे ज्यादा धोखा दिया, वह गरीब बनाम अमीर की बात है। हो सकता है कि नोटबंदी काले धन को खत्म करने के लिए लाई गई हो, लेकिन इसने आय की असमानता को बहुत बढ़ा दिया। नोटबंदी ने आय की असमानता के मामले में आजादी के बाद से अब तक का रिकार्ड तोड़ दिया है। एक साल में देश के सबसे ज्यादा अमीर लोगों की आय में 26 फीसदी की वृद्धि हो गई, जबकि किसानों की आय गिरकर 1 फीसदी ही सालाना वृद्धि कर सकी। गैर-कृषि क्षेत्र के कामगारों के लिए तो वृद्धि दर नकारात्मक हो गई। यह सिर्फ एक विडंबना है या एक संयोग कि नोटबंदी के बाद हमारे देश के अरबपतियों की संपति में 26 फीसदी का इजाफा हो गया। आजादी के बाद किसी एक साल के भीतर होने वाले इजाफे में यह एक रिकार्ड है। अब तक हमारे देश के सबसे अमीर शख्स मुकेश अंबानी की संपति में तो 67 फीसदी यानी लगभग 1 लाख करोड़ की वृद्धि हो गई और वे एशिया के 5 सबसे अमीर लोगों में शामिल हो गए। गौतम अडानी की संपति में भी बहुत इजाफा हुआ और वे भारत के 10 सबसे ज्यादा अमीर लोगों में शामिल हो गए। 40 हजार करोड़ से उनकी आय बढ़कर 71 हजार करोड़ हो गई। देश की 1 फीसदी आबादी देश के लगभग 58 फीसदी संपति की मालिक है। इतना ही नहीं, देश के शीर्ष 57 अरबपति के पास जितना धन है, वह नीचे के 70 फीसदी लोगों के पास मौजूद संपति के बराबर है। यह आजादी के बाद अब तक अमीर-गरीब असमानता का सबसे उच्च स्तर है। ऑक्सफैम ने इस साल की शुरूआत में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें यह कहा गया था कि देश की 1 फीसदी आबादी देश के लगभग 58 फीसदी संपति की मालिक है। इतना ही नहीं, देश के शीर्ष 57 अरबपति के पास जितना धन है, वह नीचे के 70 फीसदी लोगों के पास मौजूद संपति के बराबर है। यह आजादी के बाद अब तक अमीर-गरीब असमानता का सबसे उच्च स्तर है। दूसरी तरफ, कृषि और गैर-कृषि इलाके में काम करने वाले अनौपचारिक मजदूरों का भत्ता जो यूपीए के शासन में 7 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा था, वह अब मात्र 1 फीसदी के मामूली दर से बढ़ रहा है (यह 2014 से अब तक के 3 सालों का औसत है), जबकि गैर-कृषि मजदूरों का भत्ता पहले से भी कम हो गया है। स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने का वादा पूरा न करने से न्यूनतम समर्थन मूल्य में हुई अपर्याप्त बढ़ोतरी ने देश के ग्रामीण हिस्सों में किसानों के असंतोष को बढ़ा दिया था, उसके बाद बिना सोचे-समझे लागू की गई नोटबंदी से किसानों का गुस्सा फूट पड़ा है। पिछले 6 महीने में देश भर में हुए किसान आंदोलन की संख्या से ही इस बात का अंदाजा लग सकता है। स्वामीनाथन आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने का वादा पूरा न करने से न्यूनतम समर्थन मूल्य में हुई अपर्याप्त बढ़ोतरी ने देश के ग्रामीण हिस्सों में किसानों के असंतोष को बढ़ा दिया था, उसके बाद बिना सोचे-समझे लागू की गई नोटबंदी से किसानों का गुस्सा फूट पड़ा है। पिछले 6 महीने में देश भर में हुए किसान आंदोलन की संख्या से ही इस बात का अंदाजा लग सकता है। फिलहाल थोड़ी शांति इसलिए है क्योंकि पंजाब, महाराष्ट्र, राजस्था और यूपी की राज्य सरकारों ने किसानों को कुछ कर्ज माफी योजनाओं की घोषणा कर थोड़ी राहत दी है। लेकिन राज्यों के पास शायद ही इतनी आर्थिक क्षमता है कि वे इतने ऊंचे स्तर पर पहुंचे असंतोष को खत्म कर सकें। अब हमें पता चल चुका है कि नोटबंदी ने बेहद अमीर लोगों का अकल्पनीय तरीके से फायदा पहुंचाया, जबकि गरीबों का सबसे ज्यादा नुकसान किया। यह समझना बहुत जरूरी है कि सरकार नोटबंदी की 3 घोषित वजहों पर कितनी खरी उतरी। काले धन को खत्म करना नोटबंदी की सबसे बड़ी वजह थी और एसबीआई ने अनुमान लगाया था कि 2.5 लाख करोड़ रुपए का काला धन बैंकों में वापस नहीं आएगा। कई राजनीतिक भाषण दिए गए थे कि कैसे उस पैसे को गरीबों और किसानों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। काले धन से निपटने के लिए नोटबंदी का फैसला करने की सरकार की विश्वसनीयता पर सिर्फ इस बात से सवालिया निशान लग जाता है कि हमारे प्रधानमंत्री जानते थे कि सिर्फ 6 फीसदी काला धन नकद में है। इसलिए अगर वह काला धन बैंकों में वापस नहीं भी आ पाता, तब भी हम काले धन की समस्या के सिर्फ 6 फीसदी हिस्से से निपट रहे थे। लेकिन फिर भी हम लोग सांसें रोक कर आरबीआई द्वारा प्रेस को दी जाने वाली जानकारियों का इंतजार कर रहे थे। अब हम जानते हैं कि 99 फीसदी प्रतिबंधित नोट बैंकों में वापस आ चुके हैं, सिर्फ 16 हजार करोड़ या मोटे तौर पर हर नागरिक के औसत से 128 रुपए बचे रह गए। सारे काले, सफेद, मटमैले नकद पैसे भारत में साफ पैसों में तब्दील हो चुके हैं और बिना काले धन का 1 रुपया भी ढूंढ़े हमारा देश ‘जीरो ब्लैक मनी’ देश हो गया है। असल में सारे चोर अपने पैसे को तंत्र की कमियों का इस्तेमाल कर बैंकों में जमा कराने में सफल हो गए और सरकार के पास छिपने के लिए भी जगह नहीं बची है। अब सरकार जमा किए गए ‘संदेहास्पद’ पैसे का नाम लेकर बचने की कोशिश कर रही है। गरीब कल्याण योजना भी एक खोटा सिक्का साबित हुई। तकरीबन 21 हजार लोगों 4 हजार 900 करोड़ रुपए के अघोषित आय का ऐलान किया और इससे सरकार को 2 हजार 451 करोड़ रुपए टैक्स में मिले। यह पैसा इतने बड़े पैमाने पर चलाई गई इस पूरी गतिविधि के लिए भी काफी नहीं था। इस सारी गड़बड़ी से सम्मानपूर्वक निकलने की सरकार की उम्मीद उस समय खत्म हो गई जब गरीब कल्याण योजना भी एक खोटा सिक्का साबित हुई। तकरीबन 21 हजार लोगों 4 हजार 900 करोड़ रुपए के अघोषित आय का ऐलान किया और इससे सरकार को 2 हजार 451 करोड़ रुपए टैक्स में मिले। यह पैसा इतने बड़े पैमाने पर चलाई गई इस पूरी गतिविधि के लिए भी काफी नहीं था। सरकार ने दावा किया था कि नोटबंदी व्यवस्था से नकली नोटों को निकालने के लिए जरूरी थी, लेकिन इस बात को भी याद रखना चाहिए कि एनआईए का अनुमान था कि सिर्फ 400 करोड़ रुपए के नकली नोट ही व्यवस्था में मौजूद थे। नोटों की गिनती पर पता चला कि पूरी प्रक्रिया में सिर्फ 11 करोड़ के नकली नोट ही बरामद हुए जो व्यवस्था में मौजूद मुद्रा का सिर्फ 0.00053 फीसदी हैं। अब हम आतंकवाद के सवाल पर आते हैं। सरकार को उम्मीद थी कि नोटबंदी से उस पर खासा असर पड़ेगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ है। कश्मीर में, मीडिया रिपोर्ट बताते हैं कि “2018 पिछले 7 सालों में सबसे हिंसक साल था। इस साल अब तक 290 जानें जा चुकी हैं जिसमें सुरक्षा बलों के 65 लोग और 49 नागरिक मारे गए।“ इससे ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता है कि पैसों की कमी के कारण आतंकवादी गतिविधियां रूक गईं। निष्कर्ष में हम कह सकते हैं कि जिन उद्देश्यों का हवाला देकर यह योजना शुरू की गई थी, उससे हमें धोखा मिला है। साभार नवजीवन
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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