नई दिल्ली। रोजगार के मौके कम हो रहे हैं, नौकरियां जा रही हैं, नई नौकरियां निकल नहीं रहीं, और कंपनियां लोगों को नौकरी नहीं दे रहीं। यह तस्वीर है उस देश की जिसके प्रधानमंत्री ने सत्ता संभालने से पहले वादा किया था कि हर साल एक करोड़ लोगों को रोजगार मिलेगा। रोजगार मिलता कैसे? पहले नोटबंदी और फिर जीएसटी, इन दो टारपीडो ने देश की अर्थव्यवस्था को आईसीयू में पहुंचा दिया और रोजगार मुहैया कराने वाले छोटे और मझोले उद्योग धंधे और कारोबार बंद हो गए। बात यहीं नहीं रुकती। यह कहानी तो असंगठित क्षेत्र की है। लेकिन संगठित क्षेत्र में भी नौकरियां कम हो रही हैं। और तो और देश की नवरत्न और महारत्न सरकारी कंपनियों ने भी नौकरियां देने का काम बंद कर दिया है और अपने यहां काम करने वाले कर्मचारियों की संख्या और भर्ती में बीते सालों में 33 फीसदी तक की कटौती कर दी है। पिछले कुछ महीने के कर्मचारी भविष्य निधि संगठन यानी ईपीएफओ के आंकड़ों से पता लगता है कि पीएफ में कंट्रीब्यूशन यानी नियमित जमा करने वाले कर्मचारियों की संख्या में 36 फीसदी तक की कमी आई है। यह कमी किसी एक शहर की नहीं, बल्कि की शहरों में देखने को मिल रही है। ईपीएफओ अपने सदस्यों की संख्या में लगातार गिरावट से चिंतित है और उसने अपने क्षेत्रीय कार्यालयों को पीएफ सदस्यों की संख्या को लेकर सतर्क किया है और सदस्य संख्या बढ़ाने के तरीके अपनाने का निर्देश दिया है।
ईपीएफओ चिंतित इसलिए भी है क्योंकि उसने सदस्य संख्या बढ़ाने का अभियान चला रखा है। सदस्यों की संख्या में 36 फीसदी तक की कमी का सीधा अर्थ है कि इतने ही फीसदी लोगों की या तो नौकरी चली गई है या फिर उनकी नौकरी की शर्ते बदल दी गई हैं। दोनों ही स्थिति में कर्मचारी का नुकसान ही है। पहले ही बेरोजगारी और रोजगार के कम अवसरों को लेकर आलोचना झेल रही मोदी सरकार की इन नए आंकड़ों से मुसीबतों बढ़ सकती हैं। ट्रेड यूनियन भारतीय मजदूर संघ के महासचिव ब्रजेश उपाध्याएय ने एक न्यूज पोर्टल से बातचीत में कहा कि पीएफ सदस्यों की संख्या में गिरावट के कई कारण हो सकते हैं, लेकिन ये चिंता का विषय है। वहीं, इंटीग्रेटेड एसोएिसएशंस ऑफ माइक्रो स्मॉपल एंड मीडियम एंटरप्राइजेस यानी आईएमएसएमई ऑफ इंडिया के चेयरमैन राजीव चावला ने एक वेबसाइट को बताया कि संगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों की संख्याी में 10 से 35 फीसदी तक गिरावट गंभीर मसला है। भले ही इसके पीछे कोई भी कारण है। उनका कहना है कि इसके पीछे नोटबंदी और जीएसटी भी एक अहम कारण हो सकता है। पीएफ सदस्यों की संख्या में कमी ही सिर्फ इस बात के संकेत नहीं देती कि लोगों की नौकरियां जा रही हैं। एक न्यूज़ चैनल ने अपनी विशेष रिपोर्ट में बताया है कि निजी क्षेत्र के अलावा सरकारी कंपनियों में भी नौकरियों पर संकट है। इस रिपोर्ट के मुताबिक न सिर्फ मौजूदा कर्मचारियों की संख्या में कमी की जा रही है, बल्कि नए लोगों को नौकरी पर भी नहीं रखा जा रहा है।
चैनल की पड़ताल में बताया गया है कि बीते तीन सालों यानी 2014 से 2017 के बीच देश की नवरत्न और महारत्न कही जाने वाली सरकारी कंपनियों ने इसके पिछले तीन साल के मुकाबले 42053 कम लोगों को नौकरियों पर रखा है। यह संख्या करीब 6 फीसदी है। चैनल ने इन सरकारी कंपनियों में से कुछ से बात की और सभी कंपनियों ने कम लोगों को नौकरी पर रखने के अलग-अलग कारण दिए हैं। कोल इंडिया लिमिटेड का कहना है कि प्रति कर्मचारी उत्पादकता में बढ़ोत्तरी के चलते कम लोगों को नौकरी पर रखा जा रहा है। एनटीपीसी का कहना है कि सरकारी कंपनियों के कारोबार में वृद्धि न होने से भर्तियों पर असर पड़ता है, क्योंकि प्रति कर्मचारी लागत भी एक अहम कारण होता है। वहीं स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया का कहना है कि सरकारी कंपनियों में परंपरागत रूप से जरूरत से ज्यादा कर्मचारी होते थे, लेकिन अब कर्मचारियों की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी से नई भर्तियों में कमी आई है। इसके अलावा ओएनजीसी, इंडियन ऑयल कार्पोरेशन, गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया और भारत पेट्रोलियम कार्पोरेशन जैसी कंपनियों ने भी कुछ ऐसे ही तर्क दिए हैं। चैनल की पड़ताल से सामने आया है कि बीते कुछ सालों में एमटीएनल ने 33 फीसदी, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने 22 फीसदी, कोल इंडिया ने 17 फीसदी और शिपिंग कार्पोरेशन ने 23 फीसदी कम लोगों को नौकरी पर रखा है। क्या अहंकार में डूबी मोदी सरकार इन आंकड़ों को देखेगी? या फिर सिर्फ नकली आंकड़े दिखाकर जुमलेबाजी ही करती रहेगी। साभार नवजीवन
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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