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क्या मनमोहन सही और मोदी ग़लत साबित हुए?

नई दिल्ली। चीन और जापान के बाद एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भारत की कमज़ोर होती सेहत की चर्चा दुनिया भर के मीडिया में हो रही है. जब 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो अर्थव्यवस्था को गति मिलने की उम्मीद जताई जा रही थी. 2016 में भारत की अर्थव्यवस्था क़रीब सात फ़ीसदी की दर से बढ़ी. आज की तारीख में यह चार सालों में अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई है. अभी 5.7 फ़ीसदी की दर से भारतीय अर्थव्यवस्था बढ़ रही है. इसे लेकर सरकार की चिंता बढ़ गई है और विपक्ष भी हमलावर हो गया है. मोदी सरकार ने जिस आर्थिक सलाहकार परिषद को आते ही भंग कर दिया था उसे फिर से अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय की अध्यक्षता में बहाल किया है. मोदी सरकार के इस यूटर्न को अर्थव्यवस्था पर उसकी बढ़ती चिंता के तौर पर देखा जा रहा है. मोदी सरकार की अर्थनीति पर न केवल विपक्ष सवाल उठा रहा है, बल्कि पार्टी के भीतर भी सवाल उठने लगे हैं. अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने अपनी पार्टी की सरकार पर अर्थव्यवस्था को गर्त में ले जाने के गंभीर आरोप लगाए हैं. यशवंत सिन्हा ने तो यहां तक कहा कि अगर यह सरकार अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर को आंकने का तरीक़ा नहीं बदलती तो असल वृद्धि दर 3.7 फ़ीसदी ही होती. मोदी सरकार के नोटबंदी के फ़ैसले की चौतरफ़ा आलोचना हो रही है. ऐसा पार्टी के भीतर यशवंत सिन्हा जैसे नेता कर रहे हैं तो दूसरी तरफ़ शिव सेना जैसे सहयोगी दल भी कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने भी कहा है कि जीडीपी में गिरावट नोटबंदी और जीएसटी के कारण है. भारत की अर्थव्यवस्था में आई मंदी और इससे जूझने की मोदी सरकार की नीति की नाकामी की चर्चा चीनी मीडिया में भी हो रही है. चीन के सरकारी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने मोदी सरकार के कथित दोहरे रवैये की कड़ी आलोचना की है. ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, ''मोदी को बिज़नेस समर्थक माना जाता है लेकिन उनकी कथनी और करनी में काफ़ी फ़र्क़ है.'' इससे पहले 24 जून को द इकनॉमिस्ट ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की थी. द इकनॉमिस्ट ने कहा था कि मोदी जितने बड़े सुधारक दिखते हैं उतने बड़े हैं नहीं, और मोदी को एक सुधारक की तुलना में एक प्रशासक ज़्यादा बताया था. ग्लबोल टाइम्स ने अपनी रिपोर्ट में द इकनॉमिस्ट के इस आलेख का भी ज़िक्र किया है. ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, ''भारत और चीन दोनों की अर्थव्यवस्था की यात्रा एक नियंत्रित अर्थव्यवस्था से शुरू हुई थी और आज की तारीख़ में बाज़ार के साथ क़दमताल मिलाकर चलने के मुकाम तक पहुंच चुकी है. भारत को आर्थिक नीतियों के स्तर पर चीन से सीखना चाहिए. मोदी को छोटे स्तर स्थायी नीतियों को स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए और अचानक से हैरान करने वालों फ़ैसलों से बचने की ज़रूरत है.'' बीजेपी की आर्थिक नीतियों को लेकर फॉर्चून ने भी एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. फ़ॉर्चून ने लिखा है कि बीजेपी के दिमाग़ में कौन सी अर्थव्यवस्था है इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है. फॉर्चून ने पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का हवाला देते हुए लिखा है, ''2012 में सितंबर का महीना था. तारीख़ थी 27. जगह थी अमरीका की स्टैन्फोर्ड यूनिवर्सिटी. क़रीब 500 छात्रों और शिक्षकों का जमावड़ा था. वहां मौजूद थे भारत में चार बार आम बजट पेश कर चुके और आर्थिक सुधारों के पैरोकार यशवंत सिन्हा. बाज़ार के साथ दोस्ताना नीतियों के समर्थक यशवंत सिन्हा उस दिन खेद और अफसोस के साथ मौजूद थे.'' फॉर्चून ने आगे लिखा है, ''यशवंत सिन्हा 2004 में बीजेपी की हार का आरोप ख़ुद पर ले रहे थे. उन्होंने कहा था- मैं महसूस करता हूं कि 2004 में पार्टी की हार के लिए केवल में ज़िम्मेदार हूं. उस चुनाव में मैंने जो सबक लिया उसे कभी भूल नहीं सकता हूं.'' जब यशवंत सिन्हा स्टैन्फोर्ड यूनिर्सिटी में ये सब कह रहे थे तो मोदी सरकार नहीं बनी थी. वो तब लोकसभा सांसद थे और उन्हें उम्मीद रही होगी कि 2014 में बीजेपी जीत हासिल करती है तो फिर से वित्त मंत्री बन सकते हैं. यशवंत सिन्हा के बयान को फॉर्चून ने लिखा है, ''मैंने वित्त मंत्री रहते हुए केरोसीन तेल कीमत ढाई रुपए प्रति लीटर से बढ़ाकर 9.50 रुपए प्रति लीटर कर दी थी. ग्रामीण भारत में केरोसीन तेल का इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर रोशनी और खाना पकाने के लिए होता है. जब मैं अपने लोकसभा क्षेत्र में एक हाशिए के गांव में चुनाव प्रचार करने गया तो एक बुज़ुर्ग महिला से वोट देने के लिए कहा और उन्होंने कहा कि ठीक है. लेकिन क्या मैं केरोसीन की कीमत बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार नहीं था? क्या इस वजह से उस बुज़ुर्ग महिला की ज़िंदगी मुश्किल नहीं हुई थी?'' सिन्हा ने कहा था, ''अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने विकास के कई काम किए थे, जिनमें हाइवे का निर्माण सबसे अहम था. हालांकि हमें चुनाव जीतने में मदद नहीं मिली.' 2014 में कांग्रेस को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा और बीजेपी को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रचंड जीत मिली. एक बार फिर से मोदी सरकार महंगाई और ख़ासकर पेट्रोल की महंगाई को लेकर घिरी हुई है. यशंवत सिन्हा का कहना है कि सरकार ने नोटबंदी जैसा फ़ैसला लेकर अर्थव्यवस्था को गहरी चोट दी है. विपक्ष का भी कहना है कि मोदी सरकार ने जो रोज़गार पैदा करने का वादा किया था उसमें बुरी तरह से नाकाम रही है. भारतीय अर्थव्यवस्था पर जॉबलेस ग्रोथ का इल्ज़ाम कोई नई बात नहीं है. जब नोटबंदी पर संसद में बहस हो रही थी तो पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश की जीडीपी में कम से कम दो फ़ीसदी की गिरावट आएगी. अभी जो वृद्धि दर है उसमें मनमोहन सिंह का कहा बिल्कुल सही साबित हुआ है. जब जीएसटी को संसद से पास किया गया तो सरकार का मानना था इससे जीडीपी ऊपर जाएगी. सरकार का आकलन ग़लत साबित हुआ, लेकिन मनमोहन सिंह सही साबित हुए. दरअसल, मोदी सरकार द्वारा जिस तरह से जीएसटी को लागू किया गया गया उस पर भी सवाल उठ रहे हैं. देश में सरकार ने एक जुलाई को जीएसटी लागू करने की घोषणा की थी. जीएसटी के बारे में कहा गया कि 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था खोले जाने के बाद से यह सबसे बड़ा सुधार है. एक राष्ट्र एक टैक्स का नारा दिया गया. शुरुआत में जीएसटी को लेकर काफ़ी कन्फ्यूजन रहा. एक राष्ट्र एक टैक्स का नारा भले दिया गया लेकिन टैक्स के कई स्तर बनाए गए हैं. दूसरी तरफ़ जिन देशों में जीएसटी है वहां टैक्स के रेट अलग-अलग नहीं हैं. व्यापारियों का दावा है कि भारी टैक्स दरों के कारण सरकार को फ़ायदा के बदले नुक़सान ही होना है. ब्लूमबर्ग ने लिखा है, ''भारत के करेंसी और बॉन्ड मार्केट पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं. विदेशी शेयर मार्केट से अपना बॉन्ड बेच रहे हैं. भारतीय बाज़ार पर लोगों का भरोसा कम हो रहा है और इससे अर्थव्यवस्था में और गिरावट की आशंका बढ़ गई है. आने वाले वक़्त में रुपया डॉलर के मुकाबले और कमज़ोर पड़ सकता है.''
साभार बीबीसी
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