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पीएम मोदी के भाषण और हकीकत में काफी फासला है!

ये भी पढ़ेंः  ...तो इसलिए हो रही है पीएम के भाषण की आलोचना, गोरखपुर त्रासदी पर नरेंद्र मोदी ने जो कहा, वह काफी नहीं!  
नई दिल्ली (उर्मिलेश, वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए)। लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहले की तरह लंबा और प्रभावशाली भाषण दिया। उन्होंने ढेर सारे मसलों को उठाया और अपनी सरकार की बहुत सारी उपलब्धियां गिनाईं। इनमें ज्यादातर ऐसे मसलों और उपलब्धियों की फ़ेहरिश्त थी जो समय-समय पर स्वयं प्रधानमंत्री, उनके सहय़ोगी मंत्री और विभागों के उच्चाधिकारी लोगों के सामने पेश करते आ रहे हैं, लेकिन शासन की उपलब्धियों के अलावा देश और अवाम के सामने ढेर सारी समस्याएं, मुश्किलें और चुनौतियां भी हैं। उनके लंबे भाषण में इन मसलों को लेकर कोई सुसंगत और ठोस दिशा का संकेत नहीं नज़र आया। हम शुरुआत करते हैं, बिल्कुल हाल की घटना को लेकर। गोरखपुर में महज़ तीन-चार दिनों के भीतर 60 से अधिक लोगों की मौत हो गई। इनमें ज़्यादातर बच्चे थे। यूपी के मुख्यमंत्री गोरखपुर से आते हैं। वह यहां से पांच बार सांसद रह चुके हैं। गोरखपुर में अभी जो हुआ, वह अचानक और पहली बार नहीं हुआ। उस इलाके में सन 1977-78 के दौर से ही लोग, ख़ासतौर पर बच्चे मस्तिष्क ज्वर से अकाल मौत के शिकार होते रहे हैं। बताते हैं कि अब तक इस इलाके में तकरीबन एक लाख बच्चे इस बीमारी से मर चुके हैं। तब से न जाने कितनी सरकारें आईं और गईं। अगर प्रधानमंत्री मोदी सचमुच अपने 'न्यू इंडिया' के नारे और उसमें निहित धारणा (अगर उसमें सुखी, समृद्ध और स्वस्थ भारत का प्रकल्प भी शामिल है!) को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें देश के समक्ष एक सुसंगत स्वास्थ्य नीति का खाका पेश करना चाहिए था, जो हमारे बच्चों की बेहिसाब अकाल मौतों पर अंकुश लगाए और उनकी सुखी और स्वस्थ ज़िंदगी सुनिश्चित करे। पांच वर्ष तक के बच्चों के कुपोषण के मामले में भारत की स्थिति आज भी सब-सहारन मुल्कों जैसी है। हमारे पड़ोसी बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल भी इस मामले में हमसे अच्छी स्थिति में हैं। कुपोषण के मामले में यूपी और गुजरात बदहाल राज्यों की सूची में काफी ऊपर हैं, जहां 40 फ़ीसदी से भी ज़्यादा बच्चे कुपोषित हैं। वे अकाल मौत के शिकार होते हैं या अपंग, ठिगने या जीवन भर के लिए कमज़ोर हो जाते हैं। लेकिन बीमारी, अकाल मौतों और कुपोषण के प्रतीक बन रहे गोरखपुर के सवाल पर प्रधानमंत्री मोदी ने आज देश को निराश किया। बड़े चलताऊ ढंग से उन्होंने प्राकृतिक आपदा का ज़िक्र करने के क्रम में गोरखपुर की त्रासदी का भी हवाला दिया। भारत में इस वक्त लोक स्वास्थ्य पर कुल ख़र्च जीडीपी के 1.2 फ़ीसदी के आसपास है। सरकार ने इसे 2.5 फ़ीसदी करने का वायदा किया है लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ और सम्बद्ध एजेंसियों की सिफ़ारिश कम से कम 6 फ़ीसद करने की रही है। दुनिया के अनेक विकासशील देश चार फ़ीसदी खर्च कर रहे हैं जबकि विकसित देशों में यह 6 से 10 फ़ीसद के बीच है। मेरी समझ से भारत की पांच बड़ी समस्याओं को एक क्रम से रखा जाए तो वे हैं- शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार राजनीतिक सुधार, जातिवाद व सांप्रदायिकता! भारत ने आर्थिक सुधार तो कर लिया, लेकिन राजनीतिक सुधार के एजेंडे जिसमें चुनाव सुधार सबसे अहम है, को आज तक संबोधित नहीं किया गया। प्रधानमंत्री ने आज कहा कि उनकी सरकार देश में विश्वस्तरीय विश्वविद्यालय बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके लिए हजार करोड़ तक दिया जाएगा। प्रधानमंत्री का यह एक अच्छा संकल्प है लेकिन सरकार के दावे और असलियत में फ़र्क दिखता है। सरकार की अपनी सूची में सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय इस वक्त जेएनयू है, लेकिन शासन उसके कैंपस में टैंक रखवाने पर आमादा नज़र आता है। उसे नष्ट करने का अभियान तेज़ है। रोज़गार के मोर्चे पर प्रधानमंत्री ने कोई ठोस टिप्पणी नहीं की, पुरानी बातें ही दुहराईं कि कैसे लोग स्व-निवेश कर रहे हैं और दूसरों को रोज़गार दे रहे हैं। लेकिन रोज़गार सृजन की असल कहानी बहुत चिंताजनक है। निर्माण क्षेत्र में बढ़ोत्तरी नहीं है, नोटबंदी ने उसे और तबाह किया है। रोज़गार सृजन की बजाय पहले से आबाद क्षेत्रों में बदहाली और बेरोज़गारी बढ़ी है। अपनी पार्टी के कई पूर्ववर्ती नेताओं की तरह प्रधानमंत्री अक्सर अपने भाषणों में अनुप्रास की छटा बिखेरते हैं। उनके नारे भी बेहद आकर्षक होते हैं। लाल किले की प्राचीर से आज उन्होंने कहा, "तब नारा था, 'भारत छोड़ो', आज का नारा है-'भारत जोड़ो!" मगर आज देश में जातिगत और सांप्रदायिक विभाजन और विद्वेष में लगातार इज़ाफ़ा हो रहा है! सरकारी आकंड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं। मॉब-लिंचिंग में इसकी भयावह तस्वीर दिखती है। ऐसे में 'भारत जोड़ो' का नारा कैसे कामयाब होगा प्रधानमंत्री जी! सिर्फ़ यह कहने से बात नहीं बनेगी कि 'आस्था के नाम पर हिंसा मंज़ूर नहीं!' आज तो आस्था के नाम पर कुछ सिरफ़िरे लोग 'मॉब लिंचिंग' के सरगनाओं को अपना 'हीरो' बना रहे हैं! गौ-रक्षकों के गिरोह किसी 'निजी सेना' की तरह विचर रहे हैं और अनेक स्थानों पर उन्हें बाकायदा राज्य का संरक्षण मिल रहा है! कश्मीर पर भी प्रधानमंत्री की टिप्पणी में अनुप्रास के भाषायी सौंदर्य से कुछ ज़्यादा नहीं नजर आया। स्वयं उनके रक्षामंत्री के शब्दों में जहां युद्ध-सदृश्य हालात हैं, वहां 'गन' और 'गोली' ही नहीं 'पैलेट गनें' भी थमी नहीं हैं। ऐसे में कश्मीरियों को गले लगाने की बात सुंदर तो लगती है पर असलियत नहीं! प्रधानमंत्री को इस तथ्य पर गंभीर चिंतन करना चाहिए कि सन् 2014 तक कश्मीर लगभग पटरी पर आ गया था। पर प्रधानमंत्री वाजपेयी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कश्मीर-नीति के सकारात्मक कदम अचानक थम क्यों गए? नतीजा सामने है-आज कश्मीर में आतंकवाद के दौर की भयावहता की वापसी हो चुकी है। क्या कश्मीर जैसी समस्या का सिर्फ़ सैन्य समाधान है या राजनीतिक पहल भी ज़रूरी है? बीते तीन सालों में सरकार ने कश्मीर मसले पर किस तरह के राजनीतिक कदम उठाए? प्रधानमंत्री इन दिनों अपने पसंदीदा नारे 'न्यू इंडिया' का बार-बार ज़िक्र करते हैं। आज भी किया। उन्होंने कहा कि 'न्यू इंडिया' में लोग चलाएंगे अपना तंत्र, लोगों को तंत्र नहीं चलाएगा। टैक्स-वसूली, नोटबंदी, जीएसटी सहित अपनी सरकार के कथित कड़े फैसलों का भी उन्होंने हवाला दिया। केंद्र-राज्य संबंधों के संदर्भ में कोऑपरेटिव-कंपटेटिव फ़ेडरलिज्म की चर्चा की लेकिन इन तमाम मसलों के बीच एक सवाल अनुत्तरित रह गया। विपक्ष और समाज के एक हिस्से में आज सरकार की नीति और नियति पर बड़े सवाल उठ रहे हैं कि सरकार योजना के तरह विपक्ष-शासित राज्यों के लिए मुश्किलें पैदा कर रही है और विपक्षी नेताओं, अपने आलोचकों और असहमत लोगों के ख़िलाफ़ 'टैक्स-टेरर' या तरह-तरह के हथकंडों का सहारा ले रही है! अंत में, प्रधानमंत्री ने 'दिव्य और भव्य भारत' बनाने का आह्वान किया। अच्छा लगा. भावना अच्छी रही होगी। पर यह बताना ज़रूरी है कि देश कोई ईंट-पत्थर से बनने वाली इमारत नहीं, वह आम और ख़ास, तमाम तरह के लोगों की साझा कोशिशों से बनने और संवरने वाली एक जीवंत संरचना है। देशवासियों को भयमुक्त, सुखी, शिक्षित, स्वस्थ और समृद्ध बनाकर ही उसे दिव्य और भव्य बनाया जा सकता है। साभार बीबीसी
...तो इसलिए हो रही है पीएम के भाषण की आलोचना! 
फेसबुक पर पत्रकार प्रियभांशु रंजन लिखते हैं कि नोटबंदी से कितना काला धन पकड़ में आया। उस पर ऐसा आंकड़ा दिया जिस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। RBI तो अब तक नोट गिन ही नहीं सका है। ऊपर से मोदी ने एक निजी संस्था के आंकड़े बताए हैं। नोटबंदी से तबाह हुए छोटे और मझौले व्यापारियों की समस्या सुलझाने पर कुछ नहीं बोला। गोरखपुर में बच्चों की मौत और गुंडे गौरक्षकों के आतंक पर गोल-मोल बोल कर निकल लिए। पर 'तीन तलाक' पर खुलकर बोलना नहीं भूले, जैसे कि तलाक दिलवाना ही सरकार की प्राथमिकता हो। कर्ज पर ब्याज दरें घटने की बात तो बताई, पर ये नहीं बताया कि बचत खाते से लेकर PPF, RD, NSC etc. जैसी छोटी बचत योजनाओं पर ब्याज दरें घटा दी गई जिससे आम आदमी अब इन बचत योजनाओं में पैसे लगाना बेकार समझने लगा है। मंगलयान मिशन नौ महीने में पूरे होने पर सफेद झूठ बोला। वैसे भी मंगलयान मनमोहन सरकार की उपलब्धि है। ISRO की 'नाविक' परियोजना को अपनी उपलब्धि बता दी, जबकि काम मनमोहन सरकार ने शुरू कराया था। सिर्फ 'नाविक' नाम रखने का श्रेय मोदी को जाता है। डोकलाम के मुद्दे पर देश को ताजा स्थिति से अवगत नहीं कराया। खुद को भ्रष्टाचार से लड़ने वाले मसीहा के तौर पर पेश किया, लेकिन ये नहीं बताया कि लोकपाल का गठन कब कर रहे हैं और RTI कानून को कमजोर करने की कोशिश क्यों हो रही है। GST की सफलता का सर्टिफिकेट खुद ही ले लिया, लेकिन इससे महंगे हुए सामानों पर कुछ नहीं बोला। 'आधार' पर भी श्रेय लेने की कोशिश की। फिर भी कुछ लोग इस भाषण को 10 में 10 नंबर दे रहे हैं। साध्वी मीनू जैने फेसबुक पर लिखा है कि देश के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि देश का प्रधानमंत्री एक प्रायवेट संस्था 'मार्ग' के आंकड़े पेश करके बता रहा है कि नोटबंदी से कितना कालाधन बाहर आया, वह भी स्वाधीनता दिवस पर राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में! प्रधान मंत्री जी, रिज़र्व बैंक क्यों बिल में छिपा बैठा है? क्यों नहीं बताता क़ि नोटबंदी से कितना काला धन बाहर आया? जनता को बिलकुल ही मूर्ख समझ रक्खा है क्या! साभार भड़ास
गोरखपुर त्रासदी पर नरेंद्र मोदी ने जो कहा, वह काफी नहीं! 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चौथी बार लाल किले से भाषण दिया। इससे पहले उन्होंने लोगों से नमो ऐप पर अपने भाषण के लिए सलाह भी मांगी थी। लोग उम्मीद कर रहे थे कि प्रधानमंत्री गोरखपुर में बच्चों की मौत पर कुछ ठोस बातें कहेंगे। पीएम मोदी ने अपने भाषण में गोरखपुर त्रासदी का ज़िक्र तो किया लेकिन मुश्किल से चंद शब्दों में। उन्होंने भाषण की शुरुआत में मासूमों की मौत पर अफ़सोस ज़ाहिर किया। पहले उन्होंने प्राकृतिक आपदाओं से होने वाले नुकसान की बात की और फिर बच्चों की मौत पर दुख जताया। प्रधानमंत्री के इस रवैये से लोग ख़ासे निराश दिखे। ऋषभ श्रीवास्तव ने फ़ेसबुक पर लिखा, ''दो दिन पहले सरकार ने कहा कि सेलिब्रेशन नहीं रुकेगा तो लोगों ने कहा 60 बच्चों की मौत को नहीं भूलने देंगे। सरकार तो नहीं भूली है, अपना काम कर रही है। जनता ज़रूर भूल गई।'' स्वाति मिश्रा तंज़ कसते हुए लिखती हैं,''शब्द बचाते हुए एक ही वाक्य में 'प्राकृतिक आपदा' और 'अस्पताल में बच्चे मरे'। मोदी जी ने कहा नहीं, गोरखपुर को रिक्त स्थान में आप ख़ुद भर लीजिए।'' बिलाल जाफ़री कहते हैं, ''हालात-ए-मुल्क देख के रोया न गया, कोशिश तो की पर मुँह ढक के सोया न गया।'' स्वतंत्र मिश्रा ने अपनी फ़ेसबुक पोस्ट में लिखा, ''गोरखपुर में 70 बच्चों के मारे जाने पर आज परेड, तोपों की सलामी और झांकी व जलसों को थोड़ा बंद कर देते तो ठीक होता। इस मौके पर भाषण तो बिल्कुल भी नहीं अच्छा लगेगा।'' अभय चावला ने पूछा, ''गोरखपुर में इतने बच्चों की मौत हो गई। कैसी आज़ादी?'' कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने भी पीएम मोदी के इस तरीके की आलोचना की है। उन्होंने कहा, ''प्रधानमंत्री मोदी ने बड़े ही हल्के अंदाज़ में अन्य प्राकृतिक आपदाओं के साथ गोरखपुर त्रासदी का ज़िक्र कर दिया। उन्हें सतर्क रहना चाहिए था।'' साभार बीबीसी
संकलन/संयोजन/प्रस्तुतिः सूरज सिंह
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