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शालीन और सधे कदमों से केन्द्र की ओर बढ़ रहे नीतीश कुमार!

राजीव रंजन तिवारी 
लक्ष्य केंद्रित निशाना साधने के लिए बिहार की राजनीति में चाणक्य के नाम से मशहूर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की कोई भी गतिविधि अकारथ नहीं होती। उनके हर कदम के कोई न कोई सकारात्मक संकेत होते हैं। जानकार मानते हैं कि नोटबंदी पर मोदी की तारीफ और यूपी में सियासी गठबंधन नीतीश कुमार की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। चूंकि महत्वाकांक्षा सबमें होती है, इसलिए यदि नीतीश कुमार भी केन्द्र की राजनीति में अहम भूमिका निभाने के लिए महत्वाकांक्षी हों तो कोई बुरी बात नहीं है। नीतीश कुमार की अपनी जाति कुर्मी के महज़ चार फीसदी वोट होने के बावजूद वो लगातार तीसरी बार बिहार के मुख्यमंत्री हैं। बताते हैं कि तीसरी बार और कुल पांचवीं बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार 2019 में देश के अगले प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं। इसमें कोई बुराई भी नहीं है कि एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और तीन बार मुख्यमंत्री बनने वाला व्यक्ति ऐसी महत्वकांक्षा रखे। अगर तीन बार गुजरात का मुख्यमंत्री रहा व्यक्ति देश का प्रधानमंत्री बन सकता है तो बिहार का तीन बार का मुख्यमंत्री क्यों नहीं प्रधानमंत्री बन सकता। फर्क बस इतना है कि बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी है। उसके अलावा, सिर्फ़ कांग्रेस ही ऐसी पार्टी है जिसका देश भर में असर है। वैसे बीजेपी को आरएसएस का समर्थन भी प्राप्त है जिसके कार्यकर्ता उसे चुनाव जिताने के लिए ख़ूब मेहनत करते हैं। कांग्रेस का देश के विभिन्न हिस्सों में आधार है जिसकी वजह ऐतिहासिक रही हैं। अरुणाचल प्रदेश से लेकर केरल तक उसकी मौजूदगी है। सबके बावजूद नीतीश एक चतुर राजनेता हैं जिन्होंने तीन बार लगातार बिहार में सत्ता हासिल की। समझा जा रहा है कि जदयू को भी धीरे-धीरे बिहार से बाहर निकालने की कोशिश चल रही है। शायदी इसी वजह से यूपी में गठबंधन भी हुआ है। खैर, आजकल नीतीश कुमार के शालीन और सधे सियासी कदमों की आहट को हर कोई सुनने तथा समझने की कोशिश कर रहा है। नोटबंदी पर अपने धुर वैचारिक विरोधी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ करने की वजह से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चर्चाओं के केन्द्र में हैं। नीतीश ने पीएम मोदी की तारीफ करते हुए अपील की है कि मोदी अब बेनामी संपत्ति पर हमला बोलें। उन्होंने मोदी सरकार द्वारा कालाधन पर नोटबंदी के जरिए की गई कार्रवाई का समर्थन करते हुए कहा कि इससे कालाधन रखने वालों की रातों की नींद उड़ गई है। आपको बता दें कि नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर कोई एसी बात नहीं कही है, जिसे लेकर उन पर राजनीति की जाए। नरेन्द्र मोदी के नोटबंदी के फैसले की तो अमूमन सारे दलों ने समर्थन किया है, पर विवाद का विषय नोटबंदी को लेकर तैयारियां और कुव्यवस्थाएं हैं। नीतीश की पार्टी जेडीयू ने आरोप लगाया है कि केंद्र सरकार द्वारा काला या अघोषित धन पर कार्रवाई करने के लिए 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों पर लगी पाबंदी के फैसले से पहले बीजेपी ने राज्य में पार्टी कार्यालयों के लिए कई जमीनें खरीदीं। जेडीयू का आरोप है कि जमीन खरीद का समय यह दर्शाता है कि सत्तागरूढ पार्टी को विमुद्रीकरण के कदम के बारे में सूचना दे दी गई थी, जिससे इस वर्ष अगस्त और सितंबर के बीच 23 जमीन सौदे किए गए। नोटबंदी का ऐलान 8 नवंबर को किया गया। नोटबंदी को लेकर मचे देशव्यापी घमासान के बीच नीतीश कुमार समेत कुछ अन्य प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों की प्रतिक्रिया से लगता है कि वे और उनकी पार्टियां इस मुद्दे के दम पर खुद को अपने प्रदेशों के बाहर मजबूत करने की कोशिश में हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने को इस मुद्दे पर पूरे विपक्ष का प्रतिनिधि बनाकर उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उजागर कर दी है। कांग्रेस और वाम दल भी शायद उनके नेतृत्त्व को स्वीकार करने के लिए तैयार दिखें। यही हाल दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का है, जिनकी राजनीति भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चारों ओर ही घूमती है। उनके सामने अपनी पार्टी को दिल्ली के बाहर ले जाने का एक बड़ा मौका कुछ महीनों बाद पंजाब के विधानसभा चुनाव में मिलने वाला है। ठीक इसी तरह का, लेकिन बिलकुल उल्टा उदाहारण बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का है। ये दोनों ही नेता नोटबंदी के मुद्दे पर सभी गैर-भाजपा दलों की राय से अलग राय रखते हैं और उसे व्यक्त करने में भी पीछे नहीं रहते। सत्ता विरोधी लहर को बेदम करते हुए राममनोहर लोहिया की सामाजिक विचारधारा के झंडांबरदार और जेपी आंदोलन में बढ़ चढकर हिस्सा लेने वाले नीतीश 2005 के चुनावों में 15 वर्षों के लालू राबड़ी शासन को खत्म किया था। उन्होंने स्वयं को विकास पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया और अब पांच साल बाद एक बार फिर अपना लोहा मनवाया। बीते वर्ष हुए विधानसभा चुनाव में भी उन्होंने रिकार्ड जीत दर्ज कर सभी को चारों खाने चित्त कर दिया। बिहार की बागडोर संभालने की ललक के साथ तीन मार्च 2000 को नीतीश बिहार के मुख्यमंत्री बने थे लेकिन एक हफ्ते के कार्यकाल के बाद विधानसभा में बहुमत साबित न कर पाने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। बिहार में चुनाव में एक समय धर्म और जाति की बयार बहा करती थी और राजनीतिक पार्टियों की रोटी सेंकने का यह बड़ा एजेंडा हुआ करता था लेकिन नीतीश को विकास के नाम पर जनता को भरोसे में लेने का श्रेय जाता है। नीतीश ने इस प्रयोग को 2010 के विधानसभा चुनाव में एकबार फिर व्यवहारिक आयाम दिया। ‘नया बिहार’ का सपना दिखाकर नीतीश ने जनता से वादा कर अक्तूबर 2005 में जीत के बाद राजग सरकार का नेतृत्व किया। नीतीश ने हालांकि अति पिछड़ा और महादलित का नारा देकर बिहार के बड़े वर्ग को अपने पक्ष में गोलबंद किया, जिसका चुनाव में राजग को लाभ हुआ। भाजपा से गठबंधन होने के बावजूद अल्पसंख्यकों का भरोसा जीत कर नीतीश ने बहुत संतुलित तरीके से काम करते हुए राजग को भारी जीत दिलाई। सादगी पसंद और जमीनी नेता नीतीश को बिहार की आधुनिक राजनीति का शिल्पकार भी माना जाता है। संपूर्ण क्रांति के प्रणेता जयप्रकाश नारायण के 1974 के छात्र आंदोलन से प्रमुख छात्रनेता के रूप में उभरे नीतीश का राजनीतिक ग्राफ इसके बाद चढता ही चला गया और बिहार में ऐतिहासिक जीत दर्ज कर उन्होंने तीसरी बार राज्य का शीर्ष पद संभाला। नीतीश कुमार को नजदीक से जानने वाले संजय वर्मा कहते हैं कि नीतीश कुमार साफ दिल के स्पष्टवादी नेता हैं। नीतीश कुमार हमेशा ही साफ-सुथरी राजनीति करने के हिमायती रहे हैं। जैसे देश में अन्य नेता करते हैं, नीतीश कुमार कुर्सी पाने के लिए कोई अनैतिक कार्य नहीं कर सकते। नोटबंदी पर बयानबाजी हो अथवा अन्य गतिविधियां नीतीश कुमार राज्य की राजनीति से केन्द्र की पदार्पण करने का मन बना चुके हैं। यही वजह रही कि यूपी विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय लोकदल, जनता दल (युनाईटेड) और बीएस-फोर के गठबंधन की औपचारिक घोषणा हुई। ये तीनों दल 2017 का यूपी का विधानसभा चुनाव तो लड़ेंगे ही साथ ही 2019 के लोकसभा चुनाव में भी साथ रहने का वादा किया। इस बाबत प्रेस कांफ्रेंस में गठबंधन की औपचारिक घोषणा के दौरान नेताओं ने कहा कि यह गठबंधन अटूट है। चौधरी अजित सिंह ने कहा कि 5 नवम्बर को सपा के रजत जयंती समारोह के तुरन्त बाद स्वयं सपा प्रमुख मुलायम सिंह ने सांप्रदायिक शक्तियों से लड़ने के लिए चौधरी चरण सिंह व लोहिया के विचारों वाले दलों के साथ गठबंधन करने का लिखित प्रस्ताव किया था। दो दिन बाद मुलायम ने गठबंधन से ही इनकार कर दिया और सपा में दलों के विलय की बात कही। जद यू के शरद यादव और केसी त्यागी ने कहा कि बिहार चुनाव से पहले भी हमने विलय के मुद्दे पर सपा प्रमुख की सारी बातें मान ली थीं कि पार्टी का नाम समाजवादी पार्टी होगा, चुनाव चिन्ह साइकिल ही रहेगा और संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष भी वह स्वयं (मुलायम सिंह) रहेंगे लेकिन वहां भी ऐन मौके पर मुलायम मुकर गए। रालोद-जद यू नेताओं ने कहा कि हमारा तो गठबंधन हो गया, अब अन्य छोटे दलों से भी बातचीत जारी है। बहरहाल, जो कुछ भी हो रहा है वह सबकुछ नीतीश के सोची-समझी रणनीति के तहत ही हो रहा है, यह राजनीति के जानकार मानते हैं। अब विश्लेषक नीतीश के इन सधे सियासी कदमों की ओर नजर गड़ाए हुए हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार व चर्चित स्तंभकार हैं, इनसे फोन नं. 08922002003 पर संपर्क किया जा सकता है)
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