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जानिए क्या है मोहर्रम, क्यों ये एक त्योहार नहीं बल्कि मातम का दिन है

नई दिल्ली। सबसे पहले तो ये जान लेना बेहद ज़रूरी है कि मोहर्रम कोई त्योहार नहीं है बल्कि मुस्लिमों के शिया समुदाय के लिए ये एक मातम का दिन है। इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के छोटे नवासे इमाम हुसैन की याद में मोहर्रम के दिन मातम किया जाता है। बता दे कि ये यह हिजरी संवत (मुस्लिम कैलेंडर) का पहला महीना है। मोहर्रम एक महीना है, जिसमें शिया मुस्लिम दस दिन तक इमाम हुसैन की याद में शोक मनाते हैं। मोहर्रम के दिन मातम क्यों किया जाता है इसे जानने के लिए हमें इस्लामी इतिहास के बारे में जब इस्लाम में खिलाफत यानी खलीफा का शासन था। इस्लाम की तारीख में पूरी दुनिया के मुसलमानों का प्रमुख नेता यानी खलीफा चुनने का रिवाज रहा है। ऐसे में पैगंबर मोहम्मद के बाद चार खलीफा चुने गए। लोग आपस में तय करके किसी योग्य व्यक्ति को प्रशासन, सुरक्षा इत्यादि के लिए खलीफा चुनते थे। जिन लोगों ने हजरत अली को अपना इमाम (धर्मगुरु) और खलीफा चुना, वे शियाने अली यानी शिया कहलाते हैं। शिया यानी हजरत अली के समर्थक। इसके विपरीत सुन्नी वे लोग हैं, जो चारों खलीफाओं के चुनाव को सही मानते हैं। 'मोहर्रम' इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने का नाम है। इसी महीने से इस्लाम का नया साल शुरू होता है। इस महीने की 10 तारीख को रोज-ए-आशुरा (Day Of Ashura) कहा जाता है, इसी दिन को अंग्रेजी कैलेंडर में मोहर्रम कहा गया है। मोहर्रम के महीने में इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 अनुयाइयों का कत्ल कर दिया गया था। हुसैन इराक के शहर करबला में यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हुए थे। इस्लाम में सिर्फ एक ही खुदा की इबादत करने के लिए कहा गया है और जुआ, शराब, जैसी चीजें हराम बताई गई हैं। हजरत मोहम्मद ने इन्हीं निर्देशों का पालन किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत मुसलमानों और अपने परिवार को भी दी। दूसरी तरफ इस्लाम का जहां से उदय हुआ, मदीना से कुछ दूर 'शाम' में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण (इस्लाम के नियमों के मुताबिक ) मौजूद थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर उनका अच्छा प्रभाव है। यजीद को इस्लामी शासक मानने से मोहम्मद के घराने ने साफ इन्कार कर दिया था क्योंकि उनकी नजर में यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे। हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे, लेकिन करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने कुछ शर्तें रखीं जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी। यजीद से बात करने के दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें पीने के लिए पानी लेने तक की इजाजत नहीं दी। हुसैन जंग का इरादा नहीं रखते थे क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग शामिल थे। जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मोहरर्म थी, और गर्मी का वक्त था। गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों मं् दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और खासकर पानी था वह खत्म हो चुका था। इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के सदस्य और अनुनायी भूखे प्यासे रहे। 10 मुहर्रम को हुसैन की तरफ एक-एक करके गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की। जब हुसैन के सारे साथी मारे जा चुके थे तब दोपहर की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वो भी मारे गए। इस जंग में हुसैन का एक बेटा जैनुलआबेदीन जिंदा बचा, क्योंकि 10 मोहर्रम को वह बीमार थे और बाद में उन्हीं से मुहमम्द साहब की पीढ़ी चली। इसी कुरबानी की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। करबला का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है। हुसैन और उनके पुरुष साथियों व परिजनों को कत्ल करने के बाद यजीद ने हुसैन के परिवार की औरतों को गिरफ्तार करने का हुक्म दिया। यजीद ने खुद को विजेता बताते हुए हुसैन के लुटे हुए काफिले को देखने वालों को यह बताया कि यह हश्र उन लोगों का किया गया है जो यजीद के शासन के खिलाफ गए। यजीद ने मुहमम्द के घर की औरतों पर बेइंतहा जुल्म किए, उन्हें कैदखाने में रखा। जहां हुसैन की मासूम बच्ची सकीना की (सीरिया) कैदखाने में ही मौत हो गई। बहरहाल इस वाकये को 1400 से ज्यादा साल बीत चुके हैं और कहा जाता है कि 'इस्लाम जिंदा होता है हर करबला के बाद'।
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