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यूपी में राहुल गांधी के 25 सौ किमी दौरे से कांग्रेसी उत्साहित, छह सितम्बर से शुरू होगा अभियान

देवरिया से उत्तर प्रदेश दौरे की शुरुआत करेंगे राहुल गांधी, एक महीने की यात्रा में कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष यूपी की आधी विधानसभा क्षेत्रों का भ्रमण करेंगे, यात्रा के दौरान नहीं होगी कोई बड़ी रैली, बल्कि लोगों से मिलने का कार्यक्रम अभियान ही चलेगा
नई दिल्ली। वरिष्ठ कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने सोमवार को बताया कि पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी अगले हफ्ते उत्तर प्रदेश का एक महीने तक चलने वाला अभियान शुरू करेंगे। लेकिन इस विशाल पब्लिक आउटरीच प्रोग्राम के दौरान उनकी कोई भी बड़ी रैली नहीं होगी। इस एक महीने के दौरान राहुल गांधी 2500 किमी का सफर तय करेंगे। इस यात्रा में वे उत्तर प्रदेश की 403 में से 223 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा करेंगे. कांग्रेस उपाध्यक्ष 6 सितंबर को पूर्वी उत्तर प्रदेश में देवरिया से अपने इस अभियान की शुरुआत करेंगे। बता दें कि उत्तर प्रदेश में अगले 6 महीने में चुनाव होने वाले हैं। कांग्रेस नेता ने बताया कि राहुल गांधी यहां किसानों, महिलाओं और युवाओं से मिलेंगे और उनके साथ बातचीत करेंगे। उनका पूरा ध्यान लोगों को यह बताने पर होगा कि पिछले कई सालों में यहां की सरकारों ने देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले इस राज्य को पिछड़ेपन और गरीबी से निजात दिलाने के लिए कुछ नहीं किया। गौरतलब है कि कांग्रेस ने आखिरी बार करीब तीन दशक पहले राज्य में सरकार बनाई थी। कांग्रेस ने दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। ज्ञात हो कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में एक रैली की थी, लेकिन बीमार पड़ने की वजह से उन्हें अपनी रैली आधे रास्ते में ही छोड़नी पड़ी। अभी यह भी साफ नहीं है कि सोनियां गांधी अब कब उत्तर प्रदेश का दौरा करेंगीं. अभिनेता से नेता बने और उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज बब्बर भी एक बस में सवार होकर कांग्रेस के लिए समर्थन जुटाने के वास्ते राज्य के दौरे पर हैं। करीब दो साल पहले हुए लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही दो ऐसे सांसद रहे जो उत्तर प्रदेश से दोबारा चुनकर लोकसभा पहुंचे थे। समाजवादी पार्टी उम्मीद लगाए बैठी है कि अखिलेश यादव फिर से चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनेंगे।
जाति-धर्म फिर बन रहे यूपी चुनाव के आधार 
विकास के दावों और विफलताओं के आरोप के बीच उत्तर प्रदेश में आने वाले चुनाव के लिए जाति और समुदाय की नींव पर ही बिसात बिछती दिख रही है। पार्टियां चाहे क्षेत्रीय हो या राष्ट्रीय, जब मुद्दे उठाने और दूसरे को घेरने की बारी आती है तो हिन्दू, मुस्लिम, सवर्ण, पिछड़े, अति पिछड़े, दलित आदि के नाम पर ही लोगों को एकजुट करने की कोशिश होती है और होती रहेगी। अपनी वापसी की तैयारी में लगी बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती ने लंबे समय से चल रही गतिहीनता को तोड़ते हुए उत्तर प्रदेश में दो बड़ी सभाएं करके अपने चुनाव प्रचार की धमाकेदार शुरुआत की है। पिछले दिनों अपने नेताओं और समर्थकों द्वारा भारतीय जनता पार्टी के भूतपूर्व नेता दयाशंकर सिंह की पत्नी और बेटी के प्रति असम्मानजनक शब्दों के प्रयोग में चौतरफा घिरीं मायावती ने एक महीने के अंदर ही उत्तर प्रदेश के आगरा और आजमगढ़ में बड़ी सभाएं करके दलित और मुस्लिम समुदाय को एक साथ अपने पीछे लाने की बड़ी कोशिश की है। जहां एक ओर सभी दलों – विशेष तौर पर बसपा के नेताओं का भाजपा की ओर पलायन जारी है, वहीं इस घटनाक्रम से अपने को अप्रभावित दिखाने की कोशिश में मायावती बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने आक्रामक रुख को बनाए हुए हैं। उनके मिजाज़ से स्पष्ट है कि अपनी पार्टी के सर्वजन फ़ॉर्मूले को लगभग ख़ारिज करते हुए वे अपने प्रतिबद्ध दलित समर्थकों को ही एकजुट करने में लगीं हैं। जब से प्रदेश के मुस्लिम समुदाय के भीतर से सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी के विरूद्ध असंतोष के संकेत मिल रहे हैं, वैसे ही मायावती की ओर से मुस्लिम मतदाताओं को रिझाने के लिए नए-नए बयान आ रहे हैं। देश के कुछ भागों में दलितों पर हुए हमलों की घटनाओं को उन्होंने भाजपा के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश तो की, लेकिन उत्तर प्रदेश में हुई ऐसी घटनाओं पर उनकी ओर से सपा सरकार की वैसी घेराबंदी नहीं दिखी। दूसरी ओर समाज में जातिगत वर्गीकरण पर आधारित राजनीति के चलते कांग्रेस द्वारा ब्राह्मणों को केंद्र में रखने का निर्णय स्पष्ट होता जा रहा है और समाजवादी पार्टी पिछड़े वर्ग के समर्थन और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की छवि को आधार मान कर चुनाव में उतर रही है। यादव परिवार में अंतर-विरोध के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के यादव सपा के पक्ष में रहेंगे और मुस्लिम समुदाय में सुन्नी वर्ग का बड़ा हिस्सा भी सपा के साथ रहने की उम्मीद है। निश्चित तौर पर वर्तमान सरकार के काम और विफलताओं का ज़िक्र सभी विपक्षी दल कर रहे हैं, लेकिन अंतत: वोट मांगने का आधार जातिगत कारण ही बनेंगे, इसमें संदेह नहीं है। ऐसे में 2017 के चुनाव के बाद बनी सरकार भी कुछ जनहित के व्यापक काम करने के बजाय जाति और समुदायों के हित साधने मे जुट जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
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