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प्राइम टाइम में वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार का विश्लेषण, यूपी में कांग्रेस को मिला नया चेहरा

नई दिल्ली (रवीश कुमार)चर्चा में नहीं है तो आप चुनाव में नहीं हैं। सोशल मीडिया पर वायरल न हुए तो लोग समझेंगे कि आपको वायरल हो गया है इसलिए कहीं दिख नहीं रहे हैं। इसलिए आप देखेंगे कि चुनाव से पहले चर्चा में बने रहने का संग्राम छिड़ जाता है। उत्तर प्रदेश के संदर्भ में कांग्रेस की रणनीतियों को देखकर क्या यह पूछा जा सकता है कि वहां कांग्रेस चुनाव लड़ रही है इसलिए चर्चा में है या चुनाव हो रहे हैं इसलिए चर्चा में बने रहने की लड़ाई लड़ रही है। हमारी राजनीति में एक और चलन प्रचलन में कुछ ज़्यादा हो गया है। इसे देखते हुए मैंने युवा राजनेताओं के लिए एक चेकलिस्ट बनाई है। वो किसी भी दल के हो सकते हैं बल्कि बुजुर्ग नेता भी हो सकते हैं। टिकट पाने या चुनाव का चेहरा घोषित होने या होते ही आपको ये सब काम आ सकता है। नईहर, ददीहर और ममहर। हर प्रकार के लोकेशन और रिलेशन को याद रखें। ये इसलिए भी कहा क्योंकि दिल्ली में शीला दीक्षित पंद्रह साल मुख्यमंत्री रहीं। इस दौरान उन्होंने जितनी बार ये नहीं कहा होगा कि वे यूपी की बहू हैं उससे कहीं ज्यादाबार वे पिछले कुछ दिनों में कह चुकी हैं। उनकी पार्टी के लोग कह चुके हैं और मीडिया तो फ्लैश ही करने लगा कि वे यूपी के उन्नाव की बहू हैं। शीला दीक्षित को कांग्रेस पार्टी ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया है। शीला दीक्षित पंजाब जाते ही खत्री हो जाती हैं, यूपी जाते ही ब्राह्मण हो जाती हैं। पर शीला दीक्षित की एक बात तो है। जहां की वो न बेटी हैं, न बहू हैं वहां पंद्रह साल मुख्यमंत्री रहीं। ये समस्या शीला दीक्षित की नहीं है। हमारी राजनीति की है। 2014 में बनारस गए प्रधानमंत्री कहने लगे कि उन्हें मां गंगा ने बुलाया है। बल्कि वे जहां भी गए, कई जगहों पर ज़रूर बताते हैं कि उस जगह से उनका क्या नाता है। सतही हो चुकी हमारी राजनीति में आप इससे ज़्यादा क्या उम्मीद कर सकते हैं। 2015 में जब दिल्ली में चुनाव हुआ तब कांग्रेस ने शीला दीक्षित की जगह अजय माकन को अपना उम्मीदवार बनाया था। शीला दीक्षित चुनाव भी नहीं लड़ी थीं। केरल की राज्यपाल बनकर दिल्ली छोड़ चुकी थीं। बहरहाल कांग्रेस पार्टी ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर साफ कर दिया कि राज्य में उसका किसी से गठबंधन नहीं होगा। दो-दो मुख्यमंत्री के उम्मीदवार गठबंधन नहीं करते हैं। कांग्रेस के पास यूपी में कोई पूर्व मुख्यमंत्री अब नहीं है इसलिए दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया है। बीजेपी के पास अभी भी बहुत से पूर्व मुख्यमंत्री हैं मगर जिस तरह से उसकी राजनीति अब आगे की ओर देख रही है, नहीं लगता कि पार्टी कि किसी पूर्व को उम्मीदवार बनाएगी। बहुजन समाज पार्टी में मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने की कोई ज़रूरत ही नहीं है। समाजवादी पार्टी में भी अखिलेश यादव के अलावा अब ये संभावना समाप्त हो चुकी है। यूपी के टेम्पो ट्रक पर पोस्टर भी लग गया है कहो दिल से, अखिलेश फिर से। चार प्रमुख पार्टियों में से तीन के मुख्यमंत्री के उम्मीदवार आपके सामने हैं। 1989 से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में वापसी की राह देख रही है। चुनाव के छह महीने पहले उसने संगठन के ऊपरी स्तर पर बदलाव कर चर्चा में जगह पा ली है। अब उसे ज़मीन पर जगह पाने का प्लान बताना होगा। 2012 में राहुल गांधी कांग्रेस की वापसी का चेहरा थे। 2016 में अब राहुल की जगह प्रियंका गांधी का नाम चलने लगा। तरह तरह की ख़बरें आती रहीं मगर आ गईं शीला दीक्षित। यूपी के जानकार ज़मीन पर पार्टी खोज रहे हैं मगर पार्टी ने कागज़ पर अपना नेता रख दिया है। राज बब्बर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। आरपीएन सिंह को वरिष्ठ उपाध्यक्ष बनाया गया है। वरिष्ठ उपाध्यक्ष के नीचे चार चार उपाध्यक्ष बनाए गए हैं। जितिन प्रसाद प्रदेश, अब्दुल मन्नान अंसारी, कोरी समाज के नेता गयादीन अनुरागी, जाट नेता पूर्व सांसद चौधरी विजेंद्र सिंह। प्रमोद तिवारी समन्वय समिति के चेयरमैन बनाए गए हैं। समनव्य समिति में जो नेता हैं, उनके नाम से लगा कि तिवारी जी इन्हीं के बीच समन्वय कर लें, तो बहुत है। संजय सिंह चुनाव प्रचार समिति के चेयरमैंन हैं। लखीमपुर खीरी के पूर्व सांसद ज़ाफ़र अली नक़वी संयोजक बनाए गए हैं। मोटा मोटी ये कांग्रेस के सेनापति हैं। मीडिया में हर सेनापति की जाति भी बताई जा रही है। यूपी में 10 से 13 प्रतिशत के बीच ब्राह्मण हैं। क्या इतना आसान है कि ब्राह्मण शीला दीक्षित, प्रमोद तिवारी और जितिन प्रसाद के पीछे चले जाएंगे। बीजेपी ने अति पिछड़ा और अति दलित सम्मेलनों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। ब्राह्मण वोटों की दावेदारी बीजेपी के पास भी है और बसपा भी लेकिन खुलकर कांग्रेस ही संकेत दे रही है कि वह उपेक्षित ब्राह्मणों की पार्टी है। पर क्या यही यूपी में कांग्रेस के पतन का कारण नहीं था। जो पतन का कारण था क्या वो उत्थान का भी कारण बन सकता है। पिछले पांच चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन देख लीजिए कि उसे कहां से कहां पहुंचना है। 1993 में 28 सीट। 12 साल बाद 2012 में भी 28 सीटें। 2012 में राहुल गांधी कांग्रेस प्रचार का मुख्य चेहरा थे। इस बार यूपी चुनाव के संदर्भ में उनकी जगह प्रियंका गांधी की ही चर्चा हो रही है। क्या किसी रणनीति के तहत राहुल गांधी को इन चर्चाओं से अलग रखा जा रहा है। यूपी में ऐसा क्या हो गया है कि कांग्रेस 28 सीटों से चलकर 200 के करीब पहुंच जाएगी। 2012 में करीब 300 सीटों पर कांग्रेस को 20,000 वोट मिले थे। चौथे नंबर पर रहते हुए ये कांग्रेस का बैंक है। क्या कांग्रेस यह संदेश देने का प्रयास कर रही है इस बार वो एक पार्टी के तौर पर संगठित तौर से उतर रही है। उसे भी गंभीरता से लिया जाए। चुनाव से छह महीने पहले कांग्रेस ने इन बदलावों से अभ्यास मैच में उतर रही है या फाइनल मैच में। यूपी में कांग्रेस के साथ बीजेपी भी 2002 से वापसी का ज़ोर लगा रही है। एक बार फिर से भाजपा भी उम्मीद कर रही है। उम्मीद का कारण है यह शख्स। अमित शाह। जून 2013 में अमित शाह ने यूपी का प्रभार संभाला था। सीधे अहमदाबाद से लखनऊ। उसके बाद यूपी में क्या किया, कहां गए, किससे मिले किसी को नहीं पता। सिर्फ इतना पता है कि जब नतीजा आया तो बसपा को शून्य सीट और सपा को पांच सीटें ही मिली हैं। बीजेपी को 80 सीटों में से अकेले 71 सीटें मिली हैं। अमित शाह अब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं मगर असम चुनाव के बाद प्रभारी की तरह ही यूपी यूपी घूम रहे हैं। हमारे पास पूरी सूची तो नहीं है मगर पिछले कुछ महीनों में वे कानपुर, कासगंज, मेरठ, बारांबकी, बस्ती, जौनपुर, लखनऊ, वाराणसी, मऊ जैसे कई जगहों पर जा चुके हैं। कार्यकर्ता सम्मेलन से लेकर सभाएं तक कर चुके हैं। जाति सम्मेलन भी कर रहे हैं। अमित शाह अकेले राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं जो इस तरह से चुनाव प्रचार में लगे हैं। लगे तो बिहार में भी थे मगर नतीजा नहीं मिला। यही अमित शाह की राजनीतिक खूबी है। हारने के बाद भी उसी तरह से जुट जाते हैं। गली गली की खाक छानने की धुन आपको वर्तमान में किसी और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष में नहीं मिलेगी। अमित शाह की झोली में भले कोई वोट बैंक नहीं है मगर यूपी चुनाव में वे अपने दम पर ही फैक्टर बन गए हैं। अमित शाह ने पिछड़ों अति पिछड़ों और अति दलितों का समीकरण बनाना शुरू कर दिया है। उनकी सभाएं शुरू कर दी हैं। कांग्रेस या बीजेपी को सत्ता में आने के लिए ज़रूरी है कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का अस्तित्व मिट जाए। लोकसभा में बीजेपी ने ऐसा कर दिखाया था मगर कांग्रेस अभी तक नहीं कर पाई है। क्या विधानसभा में ऐसा होने जा रहा है। अतीत के सारे रिकॉर्ड बताते हैं कि यूपी का चुनाव मुश्किल है। अतीत के सारे रिकॉर्ड लोकसभा चुनावों के दौरान भी बता रहे थे कि यूपी में बीजेपी के लिए मुश्किल है। क्या इस बार उत्तर प्रदेश में कुछ नया होने वाला है। क्या हम किसी नई राजनीतिक संभावना की उभरती हुई तस्वीर देख पा रहे हैं। पुराने जानकार पुरानी बातें कर रहे हैं। लेकिन क्या कांग्रेस शीला दीक्षित के ज़रिये कोई नहीं बात कर रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और एनडीटीवी इंडिया में वरिष्ठ पद पर तैनात हैं)
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