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रियली बहुत कमाल के हैं प्रशांत किशोर, उन्हें लेकर लगातार बढ़ रहा है कौतूहल

सुधीर जैन
चुनावी प्रबंधन में प्रशांत किशोर को लेकर कौतूहल बढ़ता जा रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रबंधन में प्रशांत के कौशल के बारे में नतीजों के बाद ही पता चल पाया था, लेकिन जब बिहार में भी उन्होंने सनसनी फैला दी तो देश-दुनिया के तमाम राजनीतिक दल प्रशांत किशोर को कुछ ज़्यादा ही गौर से देखने लगे। यह अलग बात है कि बिहार में चामत्कारिक सफलता के बाद नीतीश कुमार सरकार ने प्रशांत की सेवाएं बिहार के सुचारु प्रबंधन के लिए भी ले ली थीं, और इससे लगने लगा था कि प्रशांत अपने गृहराज्य में सीमित होकर रह जाएंगे, लेकिन अब उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में वह कांग्रेस को अपनी सेवाएं देने पर राजी हुए हैं। सो, यहां कौतूहल की बात यह है कि इस समय राजनीतिक प्रबंधन के क्षेत्र में सबसे ज़्यादा मांग वाले प्रशांत किशोर आखिर कांग्रेस के लिए काम करने पर राजी कैसे हुए होंगे। बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू गठबंधन की उम्मीदों से कई गुणा बड़ी जीत का विश्लेषण आज तक ढंग से नहीं हुआ। इसकी भी ज़्यादा चर्चा नहीं हुई कि बिहार में कांग्रेस की क्या हिस्सेदारी थी। यहां यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि सीटों के बंटवारे में कांग्रेस को सिर्फ 40 सीटें मिली थीं, और विश्लेषकों का अंदाज़ा था कि कांग्रेस हद से हद 10-12 सीटें ही जीत पाएगी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से वह 27 सीटें जीती। प्रशांत किशोर ने जब बिहार में अपने काम की समीक्षा की होगी, तब वह सबसे ज़्यादा गदगद कांग्रेस की सफलता को लेकर ही हुए होंगे। अपने विश्लेषण के बाद उन्होंने यह भी जान लिया होगा कि कांग्रेस की लहूलुहान कर दी गई छवि में सुधार की कितनी गुंजाइश है। उन्हें कांग्रेस के पारपंरिक संगठन के आकार-प्रकार का भी अंदाज़ा हुआ होगा। पहले नरेंद्र मोदी और फिर नीतीश कुमार के लिए प्रशांत किशोर ने जो उद्यम किया है, उससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि एक चुनाव प्रबंधक का काम अपने ग्राहक की छवि को सलीके से पेश करना ही होता है। हालांकि उससे भी बड़ा एक और काम गिनाया जाता है कि अपनी पार्टी की छवि का नाश करने वालों से कैसे निपटा जाए, और छवि की मरहम-पट्टी कैसे की जाए। इसे प्रबंधन प्रौद्योगिकी की भाषा में 'इमेज रिपेयर' कहते हैं। इस काम में लगने से पहले चुनावी डॉक्टर को यह जानना होता है कि छवि खराब करने वाले लोग क्या-क्या टोटके अपना रहे हैं। पिछले तीन साल में प्रशांत किशोर जितना प्रत्यक्ष अनुभव हासिल कर चुके हैं, उसके आधार पर उन्होंने जान लिया होगा कि कांग्रेस की क्षत-विक्षत छवि को सुधारना उनके लिए कोई बड़ा काम नहीं होगा। इस तर्क के आधार पर प्रशांत अपनी खुद की छवि को लेकर चिंतित नहीं होंगे। प्रशांत किशोर सन 2007 में, यानी नौ साल पहले राहुल गांधी से मदद चाह रहे थे। उस समय प्रशांत स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र में सामाजिक उद्यमिता करना चाहते थे। वह अमेठी में स्वास्थ्य क्षेत्र में सामाजिक उद्यमिता चाहते थे। यानी कांग्रेस से प्रशांत का लगाव पुराना है। हो सकता है, बिहार चुनाव में काम के दौरान प्रशांत को राहुल के साथ काम करने के संयोग बने हों। राहुल गांधी को लेकर प्रशांत के काम में एक और आसानी यह नज़र आती है कि पिछले लोकसभा चुनाव में सारी तोपें राहुल गांधी की छवि पर हमले के लिए ही तनी थीं। यानी राहुल की छवि पर चरम आक्रमण का दौर गुज़र चुका है। प्रशांत ने कांग्रेस के इमेज ऑडिट, यानी छवि आकलन पद्धति से यह जान लिया होगा। लिहाज़ा प्रशांत के सामने राहुल और कांग्रेस की इमेज रिपेयर के काम में कोई ज़्यादा मशक्कत करने की ज़रूरत नज़र नहीं आती। बिहार का चुनाव इसका सबूत है। मीडिया के सामने उजागर हुआ है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव में 'थ्री पी', यानी 'प्रियंका, प्लानिंग और प्रशांत' ही कांग्रेस की रणनीति होगी। हमेशा देर लगा देने वाली कांग्रेस ने इस बार जल्द ही सब कुछ तय कर लिया है। कांग्रेस के कामधाम पर नज़र रखने वाले भी ऐसी मुस्तैदी से हैरत में हैं। उत्तर प्रदेश के सभी बड़े नेताओं की लखनऊ में हुई बैठक में प्रशांत किशोर ने बिना ज़्यादा कुछ कहे अपनी जो छाप छोड़ी है, उससे कांग्रेस के जिला स्तर के नेता तक अभिभूत हैं। कांग्रेस के कई वे नेता, जो प्रियंका गांधी को ज़्यादा सक्रिय भूमिका में लाए जाने का सुझाव देते आ रहे थे और प्रियंका गांधी की हिचक खत्म नहीं करवा पा रहे थे, वे पहली बार उत्साह में नज़र आ रहे हैं। इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की 200 रैलियों की सिलसिलेवार योजना प्रशांत किशोर के हुनर से ही बनकर तैयार हो पाई है, वरना पहले ऐसे कामों में महीनों लग जाते थे और चिड़ियां खेत चुग जाती थीं। उत्तर प्रदेश में प्रशांत किशोर की योजना के तहत कांग्रेस के लिए 100 सीटों का लक्ष्य है। यह बताता है कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के लक्ष्य प्रबंधन के लिए विश्वसनीयता के पहलू पर कितनी ईमानदारी से सोचा है। अतिशयोक्ति और हासिल न हो पाने वाले ऐलानों के इस दौर में प्रशांत किशोर के इस लक्ष्य निर्धारण की आलोचना हो रही होगी, लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में क्षेत्रीय दलों के दबदबे के कारण जो गणित तितरफा की बजाए चौतरफा हो गया है, उसमें कांग्रेस के लिए 100 सीटों की संख्या अच्छी-खासी है। खैर, अभी तो उत्तर प्रदेश चुनाव साल भर दूर हैं, लेकिन अगर आज किसी ओपिनियन पोल की कल्पना करें तो यह आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में सबसे बड़े दल की सीटों की संख्या ही सवा सौ के दायरे में हो।
(लेखक सुधीर जैन, वरिष्ठ पत्रकार और अपराध शास्त्री हैं) साभार एनडीटीवी
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