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असम में भाजपा की राह कितनी मुश्किल?

नई दिल्ली (सुबीर भौमिक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए)। आने वाले दिनों में चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और इनमें से केवल असम में ही भारतीय जनता पार्टी के जीतने का अनुमान जताया जा रहा है। पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा है जबकि केरल में वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस के बीच मुक़ाबला है। लेकिन असम में भाजपा को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। जातीय विविधताओं और संघर्ष संभावित इस राज्य में पिछले 15 साल से कांग्रेस के तरुण गोगोई सत्ता में हैं। इस बार गोगोई भी अपने राजनीतिक जीवन की सबसे कड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार में क़रारी शिकस्त के बाद भाजपा असम में जीतना चाहती है। राज्य में दो चरणों में चार और 11 अप्रैल को मतदान होगा। पूर्व केंद्रीय मंत्री और बंगाली बहुल बराक घाटी में भाजपा के प्रमुख नेता कबींद्र पुरकायस्थ ने बीबीसी से कहा, "हम हार का सिलसिला तोड़ने को बेक़रार हैं और इस बार असम में हम यह करके दिखाएंगे।" कांग्रेस मौलाना बदरूद्दीन अजमल की पार्टी ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआईयूडीएफ) के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन बनाने में नाकाम रही और यह बात भाजपा के पक्ष में जाती है। राजनीतिक विश्लेषक नानी गोपाल महंत कहते हैं, "कांग्रेस के लिए मुस्लिम वोट का बंटना सबसे बुरा परिदृश्य होगा और इससे भाजपा को लाभ होगा।" भाजपा ने बोडो जन जातीय लोगों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टी बोडोलैंड्स पीपुल्स फ्रंट के साथ गठबंधन बनाया है। भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार सर्बानंद सोनोवाल असम में छात्र नेता रह चुके हैं और इस समय केंद्र में मंत्री भी हैं। असम गण परिषद (अगप) के साथ चुनावी तालमेल उनके लिए तुरुप का इक्का है। अगप 1985 से 1990 तक सत्ता में रही और और फिर 1996 में सरकार बनाई। सोनोवाल असम के मूल निवासियों के बीच 'जातीय बीर' के रूप में मशहूर हैं क्योंकि उन्होंने विवादास्पद अवैध प्रवासियों की पहचान करने के लिए बनाए गए कानून का विरोध किया था जिसे 2005 में समाप्त कर दिया गया। इस कानून का विरोध करने वालों का तर्क था कि यह बांग्लादेश से आए अवैध प्रवासियों को संरक्षण देता है। भाजपा के लिए ये लाभ की स्थितियां हैं लेकिन इनके बावजूद पार्टी के लिए सत्ता की राह कांटों भरी है। सोनोवाल को अपनी ही पार्टी के कुछ नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ रहा है। साथ ही पार्टी कार्यकर्ताओं में भी विरोध के स्वर मुखर हो रहे हैं। असंतुष्टों का कहना है टिकट वितरण में पक्षपात हुआ है। वहीं एआईयूडीएफ में संभावित विद्रोह और मतभेद ने कांग्रेस को कुछ उम्मीद बंधाई है। एआईयूडीएफ के पांच विधायकों के टिकट काटे गए हैं और पार्टी आलाकमान पर टिकट बेचने के आरोप लगे हैं। एआईयूडीएफ की नेता स्मिता मिश्रा ने कहा, "इससे हमें गहरा झटका लग सकता है। मुस्लिम हमारे वोट बैंक हैं और वे वापस कांग्रेस का रुख़ कर सकते हैं।" 2006 में एआईयूडीएफ के गठन से पहले असम में मुस्लिम परंपरागत रूप से कांग्रेस को वोट देते थे। एआईयूडीएफ ने 2006 में शानदार सफलता हासिल की थी। एआईयूडीएफ के सह संस्थापक और अब पार्टी से अलग हो चुके हाफिज़ रशद अहमद चौधरी कहते हैं, "एआईयूडीएफ में अब अव्यवस्था व्याप्त है और बागियों के कारण पार्टी बुरी तरह प्रभावित होगी।" उन्होंने कहा, "इससे मुस्लिमों और दूसरे अल्पसंख्यकों में अच्छा संकेत नहीं जाएगा और वे बड़ी संख्या में कांग्रेस को वोट दे सकते हैं।" अगर ऐसा हुआ तो गोगोई हार के जबड़ों से जीत खींचने में कामयाब रहेंगे। (साभार बीबीसी हिन्दी)
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