|
राजीव रंजन तिवारी |
राजीव रंजन तिवारी
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिहटी (जेएनयू) विवाद पर वरिष्ठ कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने ट्वीट करते हुए बीजेपी पर हमला बोला कि कश्मीर में बीजेपी ने जिस पीडीपी के साथ सरकार बनाई, वो अफजल गुरु को शहीद मानती है। क्या वो भी देशद्रोह की श्रेणी में आती है? आरोप था कि 9 फरवरी को आतंकी अफजल गुरु को फांसी देने के विरोध में जेएनयू में कार्यक्रम हुए। बाद विवाद इतना बढ़ा कि 12 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार कर लिया। दरअसल, यह सवाल इसलिए पूछना पड़ रहा है कि पीडीपी-बीजेपी जम्मू-कश्मीर में फिर से सरकार बनाने जा रही है। संभवतः इस महीने के आखिर तक सरकार का गठन भी हो जाए, जिसकी मुखिया पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती होंगी। जेएनयू विवाद के बाद सहसा इस तरह के सवाल अंकुरित होने लगे। याद रहे कि बीते वर्ष इसी मार्च महीने में जम्मू-कश्मीर में भाजपा मुसीबत में फंस गई थी। पीडीपी-भाजपा की सरकार बनने के साथ ही पीडीपी की ओर से विवादास्पद बयानों की शुरुआत हुई। पहले तत्कालीन सीएम मुफ्ती मोहम्मद सईद का बयान फिर अफजल गुरु को लेकर पीडीपी की मांग। बीजेपी को तब सफाई देते नहीं बन रही थी और उसके नेता, प्रवक्ता बयानों को महत्व ना देने की बात कह रहे थे। सरकार बनने के दिन ही सईद ने कश्मीर में चुनाव के लिए पाकिस्तान, आतंकियों और हुर्रियत को श्रेय दे डाला। अगले दिन 9 पीडीपी विधायकों ने संसद हमले के दोषी अफजल गुरु की फांसी को न्याय का मजाक बताया। बीजेपी दोनों मामलों पर घिरी और उसके पास कोई जवाब नहीं था। सईद के बयान पर तो संसद में भी हंगामा मचा। बाद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि इस बयान से सरकार खुद को अलग करती है और ये सिर्फ पीडीपी की राय है।
अब मुद्दा यह है कि अफजल गुरु जेएनयू में आतंकी है, लेकिन पीडीपी के साथ भाजपा सरकार भी बना सकती है जो अफजल गुरु को 'शहीद' कहकर महिमामंडित करती है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकताओं ने हैदराबाद और जेएनयू में ‘मुखबिर’ की तरह सक्रियता दिखाई। संघ-भाजपा की ‘राष्ट्रवादी’ सरकार सभी ‘राष्ट्रविरोधियों’ को प्रताड़ित कर रही है लेकिन इन ‘राष्ट्रवादी’ भारतीयों को लेकर कुछ तथ्यों पर गौर करना चाहिए। देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल के मुताबिक, यह आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे हिंदुत्ववादी संगठन थे जो गांधी की हत्या के जिम्मेदार थे। यह कुनबा आज भी उनकी हत्या को वध कहकर महिमामंडित करता है। 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने लिखा था, ‘बदकिस्मती से जो लोग सत्ता में आए हैं, वे हमारे हाथों में तिरंगा पकड़ा देंगे लेकिन हिंदू इसे कभी स्वीकृति व सम्मान नहीं देंगे। तीन अपने आप में अशुभ है और तिरंगे में तीन रंग हैं जो निश्चित तौर पर बुरा मनोवैज्ञानिक असर छोड़ेंगे। यह देश के लिए हानिकारक होगा।’ जिन्होंने गांधीजी को मारा, जिन्होंने आजादी के बाद तिरंगे की तौहीन की, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं और जो युवा भारतीय चाहते हैं कि भारतीय राष्ट्र-राज्य सबके लिए मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों पर अमल करे, उनकी अदालत के फैसले से पहले ही ‘आतंकवादी’ के रूप में ब्रांडिंग की जा रही है। जम्मू-कश्मीर में सरकार गठन को लेकर सियासी सस्पेंस लगभग खत्म हो गया है। पीडीपी-बीजेपी गठबंधन के तहत राज्य में एक बार फिर से सरकार का बनना तय है, वहीं महबूबा मुफ्ती के रूप में पहली महिला मुख्यमंत्री चुने जाने को लेकर सरगर्मी तेज है। पिछले दिनों श्रीनगर में हुई मीटिंग में उन्हें पार्टी विधायक दल का नेता और सीएम कैंडिडेट चुना गया। मीटिंग में बीजेपी के साथ सरकार बनाने पर चर्चा हुई। मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद से जम्मू कश्मीर में अगले सीएम ने शपथ नहीं ली।
महबूबा अभी अनंतनाग से सांसद हैं। महबूबा ने खुद को विधायक दल का नेता चुनने के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं को शुक्रिया कहा। उन्होंने कहा कि मेरे नेतृत्व में आप लोगों ने जो आस्था जताई है, मैं उसे कभी भंग नहीं होने दूंगी। मैं अपने पिता के मिशन पीडीपी के एजेंडे को आगे ले जाते हुए हमेशा अवाम के लिए काम करूंगी। दूसरी ओर, राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अबदुल्ला ने महबूबा मुफ्ती पर निशाना साधा। कहा कि जब उन्हें सरकार बनानी ही थी तो जनता को ढाई महीने का इंतजार क्यों करवाया? महबूबा मुफ्ती वह शख्सियत हैं जो राज्य की राजनीति में बड़ा कद रखने वाले पिता मुफ्ती मोहम्मद सईद की छाया से मजबूती से बाहर आ रही हैं और पार्टी को फिर से महत्वपूर्ण क्षेत्रीय ताकत बनाने के लिए प्रयासरत हैं। अपने पिता के साथ राजनीति की शुरूआत तब की थी जब राज्य में आतंकवाद चरम पर था। महबूबा को पीडीपी के विकास व उसे जमीनी स्तर पर लोगों से जोड़ने का श्रेय दिया जाता है। मानना है कि पार्टी को जमीनी स्तर से जोड़ने के काम में वह अपने पिता से भी आगे हैं। इस बात ने महबूबा को अपने समय के अन्य नेताओं से अलग पहचान दिलाई। वर्ष 1998 में कांग्रेस के टिकट से लोकसभा चुनाव लड़ने वाले उनके पिता सईद की जीत में उन्होंने खास भूमिका निभाई। सईद घाटी में शांति लाने को उत्साह से लबरेज थे व महबूबा हमेशा उनके साथ खड़ी रहीं। मुफ्ती मोहम्मद सईद अपने साथ कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस से रूष्ट कुछ नेताओं को भी पार्टी में ले आए। सईद ने कांग्रेस में अपने राजनीतिक जीवन के छह दशक गुजारे। उसके बाद महबूबा ने नई पार्टी को बनाने की जिम्मेदारी संभाली।
दूसरी तरफ बीजेपी के जनरल सेक्रेटरी राम माधव ने कहा कि पीडीपी ने सरकार बनाने को लेकर कोई नई शर्त नहीं रखी है। महबूबा पीएम से मिलना चाहती थीं और पीएम ने उन्हें हर तरह की मदद का भरोसा दिलाया है। पीएम ने महबूबा से कहा कि वे पार्टी लीडर्स से बात कर सरकार बनाने को लेकर आगे बढ़ें। माधव ने कहा कि बीजेपी को पीडीपी के साथ मुफ्ती मोहम्मद सईद के वक्त हुए गठबंधन के आधार पर सरकार बनाने में कोई प्रॉब्लम नहीं है। जम्मू-कश्मीर में बीजेपी और पीडीपी की गठबंधन सरकार मार्च 2015 से जनवरी 2016 तक रही। 7 जनवरी को सीएम मुफ्ती मोहम्मद सईद के निधन के बाद दोनों दलों के बीच दूरियां बढ़ गईं। लिहाजा सरकार गठन को लेकर असमंजस के हालात बन गए। इससे बाद से स्टेट में गवर्नर रूल लागू है। 87 मेंबर्स वाली जम्मू-कश्मीर विधानसभा में पीडीपी के 27 विधायक हैं। बीजेपी के 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस के 15 और कांग्रेस के 12 विधायक हैं। 56 साल की मेहबूबा ने 1996 में कांग्रेस ज्वाइन की और मेन स्ट्रीम पॉलिटिक्स में आईं। पीडीपी को जमीनी स्तर पर पॉपुलैरिटी दिलाने में उनका बड़ा रोल रहा। दो बच्चों की मां महबूबा ने अपना पहला विधानसभा चुनाव बतौर कांग्रेस कैंडिडेट बिजबेहरा से जीता था। 1998 में मुफ्ती मोहम्मद सईद को बतौर कांग्रेस कैंडिडेट लोकसभा चुनाव में जीत दिलाने में उनका बड़ा रोल रहा। 1999 में उन्होंने और सईद ने पीडीपी बनाई। 2002 के विधानसभा चुनाव में महबूबा ने ही जमकर कैम्पेन चलाया और पीडीपी को 16 सीटें दिलाईं। कांग्रेस के सपोर्ट से सईद सीएम बने। 2004 में मेहबूबा पहली बार सांसद बनीं। अमरनाथ यात्रा के लिए जमीन दिए जाने के विरोध में पीडीपी ने कांग्रेस से समर्थन वापस ले लिया।
नवंबर 2015 में श्रीनगर में हुई एक रैली में पीएम मोदी ने सईद को झिड़कते हुए कहा था कि उन्हें पाकिस्तान के मुद्दे पर सलाह की ज़रूरत नहीं है। सईद पाकिस्तान के साथ मेल-जोल बढ़ाने की वकालत करते थे। पीएम और भाजपा की तरफ से उनके पिता को उचित सम्मान न मिलना भी उनके लिए भार होगा। राज्य की ज़िम्मेदारी न संभाल कर महबूबा ने वर्षों से चली आ रही एक परंपरा भी तोड़ा। उदाहरण के तौर पर जब आठ सितंबर 1982 में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की मौत हुई थी तो, उनके बेटे फारूख़ अब्दुल्ला को उसी शाम सीएम पद की शपथ दिलाई गई। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने पीएम पद की ज़िम्मेदारी संभाली थी। महबूबा की तरफ से की गई देरी ने भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी। यह पहला मौका है जब वह कश्मीर की सत्ता में हिस्सेदारी कर रही है। हालांकि पिछले कुछ महीनों में जम्मू में पार्टी की स्थिति कमज़ोर हुई है, इसके बावज़ूद वह यह कभी नहीं चाहेगी कि वो सत्ता से बाहर हो जाए। बहरहाल, देश के लोग जेएनयू प्रकरण के बाद यह जानना चाहते हैं कि केन्द्र की मोदी सरकार, संघ और भाजपा के लोग पीडीपी को भी देशद्रोही मानते हैं या नहीं?
0 comments:
Post a Comment
आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।