मुम्बई (मयंक शेखर)। अगर सही बताऊँ तो मुझे पहले ही 'चॉक एन डस्टर' को लेकर दोस्त और फिल्म समीक्षक राजीव मसंद ने चेताया था। उन्होंने कहा था कि ये फिल्म 'डोनो वाई ना जाने क्यों' जितनी ही ख़राब है। अब अगर कुछ लोगों ने ये फिल्म देखी होगी जो समलैंगिकता पर बनी थी जिसमें ज़ीनत अमान और हेलन थे तो वो समझ सकते हैं कि ये सुनकर ही इसे देखने की मेरी भूख मर गई होगी। अगर आप हॉल में किसी फिल्म से कोई उम्मीद लेकर नहीं जाते तो वो चाहे जितनी भी ख़राब क्यों न हो आपको वो उतनी बुरी नहीं लगती। यह फिल्म देश की शिक्षा व्यवस्था में आई बुराईयों पर आधारित है। इसमें दिखाया गया है कि किस तरह से निजी उद्यम और लाभ कमाने के मकसद ने शिक्षा की स्थिति को बिगाड़ कर रख दिया है। किस तरह से यह सब प्राथमिक विद्यालय स्तर पर ही शुरू हो जाता है।
यह मुंबई के एक निजी स्कूल की कहानी है। इसमें दिव्या दत्ता सास-बहु सीरियलों जैसी एक चालाक हेड मिस्ट्रेस बनी हैं। इसके जैसा ही एक रोल वो पत्रकारिता पर बनी एक और अनसुनी फिल्म 'मोनिका' में निभा चुकी हैं। वो स्कूल के ट्रस्टियों को भी इस बात के लिए राज़ी कर लेती हैं कि उन्हें प्रिंसिपल बना दिया जाए। यही नहीं वो स्कूल के बुज़ुर्ग शिक्षकों को हमेशा क्लास में खड़ा रहने के लिए कहती है। वो उनको अपने सभी तानाशाही भरे आदेशों को मानने पर मजबूर करती हैं और एक हिन्दी अध्यापक को पीटी टीचर बना देती है, वगैरह वगैरह। ये शिक्षक प्रिंसिपल की सभी बातें बिना कुछ कहे मानते भी रहते हैं। क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें कहीं और कोई दूसरी नौकरी नहीं मिलेगी। वहीं मैं सोच रहा होता हूं कि अगर इन शिक्षकों में इतना कम आत्मसम्मान है तो इनके साथ जो हो रहा है वो सही ही है। वहीं शबाना आज़मी एक अच्छी और अनुभवी गणित की शिक्षक हैं। जब हम पहली बार उन्हें इस फिल्म में देखते हैं तो वो बच्चों को गणित का एक नियम 'बॉडमास' पढ़ा रही होती हैं। लेकिन उनका तरीका कुछ अलग है वो बच्चों को ये गाकर पढ़ाती हैं और बच्चे भी उनके साथ गाते हैं, 'बॉडमास, बॉडमास, बॉडमास'।
मुझे ये नहीं समझ आता कि गणित जैसे विषय का कोई नियम गाकर कैसे समझ या समझा सकता है। हां, इससे आप एक अच्छे गायक ज़रूर बन सकते हैं। लेकिन मुझे ग़लत मत समझिए। शबाना ने यहां विद्या नामक जो किरदार निभाया है उसके साथ उन्होंने पूरा न्याय किया है। वो ये यकीन दिलाती हैं कि उनसे अच्छा गणित का शिक्षक कोई हो ही नहीं सकता। उन्हें देखकर मुझे मेरे पड़ोस में रहने वाली गणित की शिक्षक मिसेज़ विश्वनाथ की याद आ गई। वो उम्रदराज़, प्यारी, ध्यान रखने वाली तो थी हीं और उनका केवल एक ही मकसद था, छात्रों का सुनहरा भविष्य। हालांकि विद्या को नौकरी से निकाल दिया जाता है. विद्या के साथ हुई इस नाइंसाफी को केमिस्ट्री की टीचर का किरदार निभा रहीं जूही चावला उठाती हैं। यहीं से एक ऐसी कहानी शुरू होती है जिस पर विश्वास करना ज़रा मुश्किल होता है। देखकर ऐसा लगता है कि इसकी कहानी बस ऐसे ही चलते हुए लिख दी गई। इसके विवरण में जाने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन अगर मैं केवल इतना बता दूं कि इस फिल्म का अधिकतर हिस्सा 'कौन बनेगा करोड़पति' जैसा है तो मैं कोई बहुत बड़ा राज़ नहीं उजागर कर रहा हूं।
एक गणित और केमिस्ट्री टीचर से इतिहास, भूगोल, धर्म, सिनेमा और सेना समेत कई बेकार के सामान्य ज्ञान के सवाल पूछे जाते हैं। 'ये जयंत गिलातार की फिल्म है। मैंने इस फिल्म के प्रोमो नहीं देखे लेकिन पिछले एक हफ्ते से इसके बारे में रेडियो पर सुन रहा था। फिल्म के निर्देशक और निर्माता एक अच्छी स्टार कास्ट जुटाने में सफल रहे हैं। जिनके बारे में मैंने बात की है उनके अलावा इसमें ऋचा चड्ढा एक टीवी पत्रकार के रोल में हैं तो वही ऋषि कपूर, जैकी श्रॉफ और गिरीश कर्नाड भी हैं। चलिए कोई बात नहीं कि फिल्म की कहानी में कोई दम नहीं है लेकिन इससे इनकार नहीं कर सकते कि फिल्म में एक अच्छे विषय को उठाया गया है। लेकिन फिल्म की जो गुणवत्ता है वो बहुत ही ख़राब है. ख़राब लाइट और दिखने में अजीब ऐसा लगता है कि जैसे आईफोन 6 या ब्लैकबेरी से शूट किया गया है। अरे ब्लैकबेरी के साथ कोई मज़ाक नहीं कर रहा मैं। (साभार बीबीसी)
- Blogger Comments
- Facebook Comments
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment
आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।