नई दिल्ली (रघुनाथ सरन)। 1993 के धमाकों का एक गुनहगार आज फांसी पर लटका दिया गया इस इंसाफ में 22 साल लग गए और अब सवाल सामने है इस फांसी का आखिर क्या फायदा हुआ और किसे फायदा हुआ? क्या इस फांसी से 1993 के धमाकों में गई 257 जानें और आज भी उसके जख्मों को भुगत रहे सैकड़ों परिवारों को वाकई इंसाफ मिला? मोदी सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है और कांग्रेस समेत विपक्ष के कई दल इस फांसी पर इस लिए सवाल उठा रहे हैं कि उनकी राजनीति इससे जुड़ी है. राजीव के हत्यारों को फांसी क्यों नहीं भुल्लर को फांसी क्यों नहीं बाबरी मस्जिद के बाद हुए दंगों के गुनहगारों को फांसी क्यों नहीं ये सवाल सियासी हैं इसके मायने क्या हैं, बताने की जरूरत नहीं. वैसे, याकूब को फांसी होनी चाहिए थी या नहींये सवाल करने का हक सिर्फ और सिर्फ 1993 धमाकों के पीड़ितों का है इन राजनीतिक पार्टियों का नहीं. ऐसा इसलिए कह रहा हूं 1993 के धमाकों ने उन परिवारों को हमेशा के लिए तोड़ कर रख दिया. अपनों को खोने का दर्द तो है ही बची-खुची जिंदगी को फिर से सहेज कर पटरी पर लाने की अंतहीन लड़ाई ऐसे सैकड़ों परिवार रोजाना लड़ रहे हैं. मानसिक, शारीरिक और सामाजिक रूप से टूटने के दर्द के साथ धमाकों के बाद के हालात से आर्थिक रूप से निपटने की जद्दोजहद ने उन परिवारों की जिंदगियों को नरक बना रखा है.
कई ऐसे पीड़ित हैं जिनके दर्जनों ऑपरेशन हो चुके हैं और जिनका सिलसिला अभी भी खत्म होता नहीं दिख रहा है. उनकी सारी कमाई इसी में लुटी जा रही है कई ऐसे हैं जो धमाकों से मिले दर्द के बाद आर्थिक रूप से इतने पिछड़ गए कि उन्हें जिंदगी बेजान और बोझिल सी लगती है. उनसे सवाल करके देखिए याकूब की फांसी पर उनकी प्रतिक्रिया आपको सोचने पर मजबूर कर देगी. याकूब की फांसी की खुशी उनके चेहरों पर दिखाई नहीं देगी क्योंकि उन्हें लगता है ये फांसी आज से पंद्रह साल पहले हुई होती तो शायद उनके जख्मों पर थोड़ा मरहम लगता. उस पर मुआवजे के नाम पर मिली मुट्ठी भर रकम धमाके के बाद उन परिवारों के बद से बदतर हो रहे आर्थिक हालात को मुंह चिढ़ाती हैं वो पलट कर कहते हैं, ''आप ही बताएं, इस फैसले से हमें क्या मिला?'' वाकई, उन्हें सचमुच का इंसाफ तब मिल पाता जब सरकार और न्यायपालिका के फैसले में उनकी जिंदगी को फिर से दुरुस्त करने की पहल भी शामिल होती मन में सवाल ये भी आता है कि याकूब को फांसी या दाऊद और टाइगर मेमन जैसों को तलाशने की बात तो चलो ठीक है, लेकिन इसके साथ अगर सरकार और न्यायपालिका के फैसलों से इन गुनहगारों की संपत्ति की कुर्की जब्ती होती और उससे मिली रकम 93 धमाके के पीड़ितों की बेहतरी में लगाया जातातो शायद ये कहीं बेहतर इंसाफ होता लेकिन इस सिलसिले में मन से कोई कोशिश हुई होये तो नजर नहीं आता. मुंबई समेत महाराष्ट्र और देश के दूसरे हिस्सों में दाऊद की संपत्ति कितनी हैइसका अंदाजा अरबों में लगाया जाता है सवाल एक बार फिर वही याकूब की फांसी का आखिर क्या फायदा हुआ और किसे फायदा हुआ? और क्या वाकई में फायदा हुआ या होगा? आप ही बताएं याकूब की फांसी के बाद आप सुकून महसूस कर रहे हैं शायद नहीं मन में कहीं न कहीं डर है कि इस फांसी की तीखी प्रतिक्रिया आज नहीं तो कल जरूर आम जनता को झेलनी होगी इस फांसी के नाम पर कई मासूम बरगलाए जाएंगे. धर्म, मजहब और इंसानियत से कोसों दूर आतंक के आका उन्हें अपने आतंक का मोहरा बनाएंगे वो हर पल 1993 जैसे धमाकों को अंजाम देने की जुगत में लगे रहेंगे और उनके निशाने पर वही निरीह जनता होगी सरकार और पुलिस भी इस अंदेशे से अच्छे से वाकिफ है कहने की जरूरत नहीं ऐसी आशंकाओं से निपटने और आंतरिक सुरक्षा को चाक-चौबंद रखने के लिए अब सालों तक सतर्कता बरतनी होगी. याकूब को सजा सुनाने वालों से लेकर उसे फांसी चढ़ाने वालों का परिवार के लिए भी चैन की जिंदगी बसर करना आसान नहीं होगा जाहिर है उन्हें भी अब जिंदगी भर आतंक के निशाने का डर सताता रहेगा.
वैसे, 1993 में होश रखने वाली पीढ़ी के लिए याकूब मेमन की सजा के कुछ मायने जरूर हो सकते हैं लेकिन उसके बाद पली-बढ़ी पीढ़ी के लिए इस फांसी के मायने सामान्य ज्ञान के एक सवाल से ज्यादा कुछ नहीं उन्हें इसे भूलने में भी देर नहीं लगेगी सवाल ये भी कि याकूब की रहम की भीख क्या बस इस बुनियाद पर मंजूर कर लिया जाना चाहिए था कि इसी कांड में दूसरे दोषियों को फांसी की जगह उम्रकैद की सजा सुनाई गई। ये सवाल कोर्ट में याकूब की फांसी के फैसले पर पहुंचने पर उठा ही होगा याकूब को बचाने की कोशिश में इसे पूरी तरह खंगाला भी गया होगा बात नहीं बनीतो याकूब की मानसिक बीमारी की दलील दी गई इसके बाद भी कचहरी की कागजी प्रक्रिया और नियमों का हवाला देकर याकूब की फांसी को टालते रहने की कोशिशें होती रही लेकिन कोर्ट में ये सारे तर्क खरे नहीं निकले. सवाल फिर वही उम्र, बीमारी और न्यायिक नियमों का हवाला देकर चोर रास्तों के जरिये एक गुनहगार को बचाने की कोशिश क्यों? याकूब को फांसी नहीं होनी चाहिए इसके तर्क में सरकार से उसकी तथाकथित डील का हवाला भी खूब दिया जा रहा है लेकिन ये बात पुख्ता तौर पर साफ है कि याकूब अगर पाकिस्तान से भारत लौटा तो उसके पीछे उसकी मजबूरी और पाकिस्तान में उसकी असुरक्षा का डर कहीं ज्यादा था.
इस फैसले के पीछे मुंबई समेत देश भर में फैले दाऊद के कारोबार को संभालने की रणनीति और भारतीय न्याय व्यवस्था से बेदाग छूट जाने का यकीन भी कहीं न कहीं था. सवाल ये भीकि याकूब धमाकों के डेढ़ साल बाद कब्जे में आ गया थातो उसके हवाले से भारत सरकार ये अब तक क्यों साबित नहीं कर पाईकि दाऊद और टाइगर मेमन पाकिस्तान की सरपरस्ती में हैं, जो 1993 धमाकों के असली गुनहगार हैं. यहीं पर वो सवाल उठता है जिसे याकूब की जान बख्शने की मांग करने वाले उठाते हैं दलील ये हैकि दाऊद और टाइगर मेमन को नहीं पकड़ पाने की खीज मिटाने के लिए याकूब को फांसी के तख्ते तक पहुंचाने का इंतजाम किया गया ये सवाल अपनी जगह हैंलेकिन इससे कहीं ज्यादा मायने ये सवाल रखता है कि 1993 बम कांड के फैसले को हम गुनहगारों के नजरिये से देखें या पीड़ितों के जरा सोचकर देखिएगा. (साभा एबीपी न्यूज)
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