राहुल गांधी के 56 दिनों की छुट्टी पर देश से बाहर चले जाने पर बहस हो रही थी। पार्टी नेताओं ने उनकी अनुपस्थिति को उनका निजी मामला बताना बेहतर माना। हालांकि जनता के बीच आ जाने के बाद नेताओं का अपना कोई निजी जीवन नहीं होता। जनता चाहती है कि नेता उन्हें विश्वास में लें। इससे उन्हें आत्मीयता का प्रत्यायुक्त संतोष मिलता है। जवाहर लाल नेहरू अपनी विदेश यात्रा के बारे में हमेशा लोगों को सार्वजनिक सभाओं में बताया करते थे। साथ ही राज्यों के मुख्यमंत्रियों को हर पखवाडे। वे जो पत्र लिखते थे, उसमें भी इसके बारे में जानकारी देते थे।
अब भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर राहुल द्वारा किए गए करारे प्रहार को लेकर बहस हो रही है। ऐसा नहीं कि मोदी आलोचना से परे हैं, लेकिन राहुल का यह कहना था कि प्रधानमंत्री ने कनाडा में यह कह कर कि वे लोग पिछली सरकार द्वारा छोड़ी गई गंदगी साफ कर रहे हैं, देश की प्रतिष्ठा को गिराया है। एक बार इंद्र कुमार गुजराल जिनेवा गए हुए थे। उस वक्त वे प्रतिपक्ष में थे, लेकिन कांग्रेस की आलोचना करने के लोभ से उन्होंने खुद को बचाया था। उन्होंने कहा था कि देश के अंदर कांग्रेस की आलोचना करने का उनके पास बहुत सारा मौका है, तो फिर गंदगी की सफाई देश के बाहर क्यों की जाए?
बहुत सारे लोग राहुल की इस बात से सहमत होंगे कि देश के बाहर घरेलू राजनीति पर टीका-टिप्पणी करने से मोदी को बचना चाहिए था। ऐसे मुद्दों पर द्विदलीय तरीका अपनाना सबसे बेहतर होता है। वास्तव में भाजपा के सत्ता में आने के पहले तक यह तरीका दिखता था। सत्ता में रहने पर भी पार्टी विपक्ष की तरह काम करती थी। दुर्भाग्यवश भाजपा की यह आदत आज भी बनी हुई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को संसद में जो अपार बहुमत मिला, वह दर्शाता है कि देश राजनीतिक अस्थिरता नहीं चाहता। भाजपा का पुनरुत्थान निश्चिहत रूप से कांग्रेस के खिलाफ अभिव्यक्ति है। इस बात को महसूस करते हुए कि संकीर्णता भारत की अवधारणा को तहस-नहस कर सकता है, कमोबेश देश का धर्मनिरपेक्ष स्वभाव बना है। हिंदुत्ववादी भाजपा ने भी इस हकीकत को समझा है। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने हाल के अपने एक भाषण में यह माना है।
नाकामयाबियों भरा मोदी के 11 माह का शासन दर्शाता है कि चुनाव अभियान के दौरान की घोषणाएं कागजी दायरे से आगे नहीं बढ़ी हैं। इससे हिंदुत्व के मूल संगठन को निराशा हो सकती है, लेकिन राहुल गांधी को इसमें अपने अनुकूल माहौल मिल गया है। लगता है हर स्थितियों का फायदा उठाने का अपनी दादी इंदिरा गांधी वाला गुर उन्होंने सीख लिया है। इंदिरा ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था और पार्टी को फिर से उस वक्त मजबूत बनाया था जिस वक्त पार्टी के अंदर दरार पड. रही थी।
ठीक उसी तरह राहुल गांधी ने सूट-बूट की सरकार का जुमला तैयार किया है। उन्होंने भी महसूस किया है कि जिस देश में गरीबों की बहुतायत है। वहां अमीरों की आलोचना का बहुत असर होता है। भाजपा चाहे जितना भी विरोध करे, राहुल ने सही नब्ज पकड ली है। असमय बारिश से उत्तर भारत और विशेषकर भारत के अन्न भंडार पंजाब और हरियाणा में गेहूं की फसल बर्बाद हो गई है। महाराष्ट्र की स्थिति उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों से अलग नहीं है। यहां आम और गन्ना उपजाने वाले तबाह हैं। 2012 और 2014 के सूखे और लगातार आने वाले तूफान एवं असमय बारिश से यहां की खेती तबाह हो चुकी थी। इस महीने के शुरू में हुई ओलावृष्टि ने इस तबाही को और बढ़ा दिया है। ओलावृष्टि के कारण खेतों में खड़ी फसलें जिनमें कुछ तो काटने की स्थिति में थीं, पूरी तरह बर्बाद हो चुकी हैं। राज्य सरकारें किसानों को राहत दे सकती हैं, लेकिन वह बहुत कुछ नहीं कर सकतीं, क्योंकि उनकी वित्तीय हालत बहुत अच्छी नहीं है। ऐसे में राहुल को आसान लक्ष्य मिल गया है, जिसका लाभ उन्हें चुनाव के वक्त मिल सकता है। राजनीतिक दलों को एकजुट होकर आपदाओं का मुकाबला करना चाहिए, न कि किसी एक राजनीतिक संगठन के मुनाफे को ध्यान में रखकर। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर बना विपक्षी एकता प्रति लाभकारी है। सत्ता में रहते हुए कांग्रेस खुद इस तरह का विधेयक लाई थी। (साभारः लेखक देश के वरिष्ठ स्तम्भकार हैं।)
- Blogger Comments
- Facebook Comments
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
0 comments:
Post a Comment
आपकी प्रतिक्रियाएँ क्रांति की पहल हैं, इसलिए अपनी प्रतिक्रियाएँ ज़रूर व्यक्त करें।