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रघुवर दास यूं सियासी शिखर पर चढ़ते चले गए, अब झारखंड के सीएम बनेंगे

रांची। झारखंड में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार रघुवर दास ने भालूबासा हरिजन विद्यालय, जमशेदपुर से प्रारंभिक शिक्षा हासिल की। इसी विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए और जमशेदपुर को-ऑपरेटिव कालेज से बीएससी की पढ़ाई पूरी की। इसी कालेज से इन्होंने स्नातक विधि की परीक्षा पास की। स्नातक में सफलता हासिल करने के बाद टाटा स्टील में श्रमिक के रूप में कार्य प्रारंभ किया, जो अभी तक जारी है। छात्र जीवन से ही सक्रिय राजनीति की सेवा का माध्यम बनाया। छात्र संघर्ष समिति के संयोजक की भूमिका निभाते हुए जमशेदपुर में विश्वविद्यालय स्थापना के आंदोलन में भाग लिया। जानकारों का कहना है कि रघुवर दास ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति आंदोलन का जमशेदपुर में नेतृत्व किया। इस दौरान वे गया जेल में रखे गये। वहां इनकी मुलाकात प्रदेश के कई शीर्ष नेताओं से हुई। श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा देश में लगाये गये आपातकाल में भी उन्होंने जेल की यात्रा की। 1977 में श्री दास जनता पार्टी के सदस्य बने। 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के साथ ही इन्होंने सक्रिय राजनीति की शुरूआत की। मुंबई में हुए भाजपा के प्रथम राष्ट्रीय अधिवेशन में 1980 में भाग लिया। जमशेदपुर में सीतारामडेरा भाजपा मंडल के अध्यक्ष बनाये गये। फिर महानगर जमशेदपुर के महामंत्री व तत्पश्चात उपाध्यक्ष बनाये गये। भाजपा ने प्रथम बार 1995 में रघुवर दास को जमशेदपुर पूर्वी विधानसभा क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया और जनता ने इन्हें अपना प्रतिनिधि चुना। यह क्रम लगातार अभी तक जारी है। 1995 में से अब तक ये जन प्रतिनिधि के रूप में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। 2005 में विधानसभा क्षेत्र का चुनाव होने के पूर्व श्री दास को 2004-05 में झारखंड प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष मनोनीत किया गया। इनके नेतृत्व में झारखंड विधानसभा चुनाव लड़ा गया और भाजपा राज्य में 30 सीटों पर विजय हासिल कर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। वर्ष 2009 के चुनाव के पूर्व इन्हें दोबारा भाजपा अध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया। 16 अगस्त 2014 को अमित शाह की अध्यक्षता में गठित भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में इन्हें उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। रघुवर दास राज्य के पहले ग़ैर आदिवासी मुख्यमंत्री होंगे। झारखंड में आदिवासी बनाम गैर आदिवासी मुख्यमंत्री की जद्दोजहद राज्य के गठन के समय से जारी है। मगर राज्य पर सबसे ज़्यादा शासन करने वाली भाजपा इससे पहले कभी इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाई कि वह किसी गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बना सके। इस बार भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलने के बाद ऐसा करने का रास्ता साफ़ हुआ तो क्या कारण रहे रघुबर दास के इस पद तक पहुँचने के? झारखंड में आदिवासी मुख्यमंत्री की परंपरा भाजपा ने ही शुरू की थी जब नवंबर 2000 में बिहार का दक्षिणी इलाक़ा काटकर अलग झारखंड राज्य बना। हालांकि उस वक़्त पार्टी के झारखंड में कई बड़े नेता हुआ करते थे जैसे करिया मुंडा, मृगेंद्र प्रताप सिंह, प्रोफ़ेसर निर्मल कुमार चटर्जी आदि। पार्टी में तब भी कई गैर आदिवासी चेहरे थे, जिन्होंने अलग झारखंड राज्य या यूं कहें कि अलग 'वनांचल राज्य' के लिए आंदोलन किया। इन चेहरों में एक रघुबर दास भी थे। नए राज्य के गठन के वक़्त भाजपा को लगा था कि आदिवासी मुख्यमंत्री होगा तो आदिवासियों के बीच उसकी गहरी साख जमेगी क्योंकि नए राज्य की क़रीब एक चौथाई आबादी आदिवासियों की थी। हालांकि अलग राज्य के गठन के आंदोलन में बाबूलाल मरांडी का कभी कोई बड़ा योगदान नहीं रहा क्योंकि वह संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रहे। मगर दिग्गजों को दरकिनार कर भाजपा ने बाबूलाल मरांडी को झारखंड का पहला मुख्यमंत्री बनाना बेहतर समझा। तब मरांडी विधायक नहीं, लोकसभा सदस्य थे। चूंकि यह धारणा रही कि झारखंड का गठन यहां के आदिवासियों के हितों को ध्यान में रखकर किया गया था, इसलिए आदिवासी मुख्यमंत्री की लगभग परंपरा बन गई। झारखंड के हिस्से में बिहार की 81 विधानसभा सीटें आईं थीं। इस राज्य में किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को कभी पूर्ण बहुमत नहीं मिला और सरकार चलाने के लिए निर्दलीय सदस्यों का ही सहारा लेना पड़ा। जब कुछ सत्ताधारी निर्दलीय विधायकों ने मरांडी के खिलाफ बग़ावत की तो पार्टी ने उन्हें हटाकर एक अन्य आदिवासी अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री बना दिया। तब से अर्जुन मुंडा ही भाजपा के आदिवासी नेताओं का चेहरा बने रहे। चूंकि पूर्ण बहुमत वाली सरकार नहीं बन पा रही थी इसलिए एक बार तो कांग्रेस ने भी एक निर्दलीय आदिवासी विधायक मधु कोड़ा को समर्थन देकर मुख्यमंत्री बनवा दिया। मगर यह धारणा आम थी कि 14 साल के झारखंड में नौ बार मुख्यमंत्री बने नेताओं ने आदिवासी समाज के लिए कुछ नहीं किया। इत्तेफ़ाक से झारखंड में सबसे ज़्यादा शासन भी भाजपा ने ही किया। मगर सरकारों पर आरोप लगे कि उन्होंने पांचवीं अनुसूची के इलाक़ों पर कभी ध्यान नहीं दिया और राज्य में आदिवासियों की जनसंख्या लगातार घटती चली गई। बड़े पैमाने पर आदिवासियों का पलायन भी शुरू हो गया। राज्य गठन के कुछ ही सालों में आदिवासी 25 फ़ीसदी से घटकर 22 तक आ गए। माना जाने लगा कि ग़ैर आदिवासी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में ही चीज़ें बेहतर हो सकती हैं। इसकी मांग भाजपा के अंदर से होनी शुरू हो गई और इसका पहला परचम बुलंद किया वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने। मगर पार्टी को लगा कि कहीं इससे उसे आदिवासी बहुल इलाकों में नुक़सान न हो जाए। 2014 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने मुख्यमंत्री के लिए कोई चेहरा पेश नहीं किया और चुनाव नरेंद्र मोदी के भरोसे लड़ा। स्थानीय स्तर पर संगठन के पास बड़े मुद्दे नहीं थे। ये चुनाव झारखंड के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण थे कि पहली बार किसी राजनीतिक दल या गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिला। दूसरे कई धुरंधर इस समर में डूब गए या यूं कहें कि उनकी करारी हार हुई। बाबूलाल मरांडी के अलावा, हेमंत सोरेन को एक सीट पर हारना पड़ा। वहीं ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष सुदेश महतो को भी हार का मुंह देखना पड़ा। सबसे बड़ा झटका पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की हार के बाद लगा। पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद अब पहली बार भाजपा को लगा है कि वो नया प्रयोग करने की स्थिति में है। विश्लेषकों को लगता है कि अगर अर्जुन मुंडा जीत गए होते, तो शायद भाजपा आदिवासी मुख्यमंत्री की परंपरा को ही आगे बढ़ाती। जहां तक अनुभव का सवाल है तो रघुबर दास इलाक़े में संगठन को स्थापित करने वालों में रहे हैं। वह भी तब, जब यहां पार्टी का कोई नामलेवा नहीं था।
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