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अंतर्द्वंद्


इं.राजेन्द्र प्रसाद


उलझन से अंतरद्वंद्वों से जब मन मेरा अकुलाता था,
गंगा की लोल लहरियों से जाकर खुद को बहलाता था।

इस तरह एक दिन संध्या में मैं था लहरों से खेल रहा,
लहरें हमसे कुछ कहती थीं मैं था लहरों से बोल रहा।

पूछा उन ललित तरंगों से परवाने आखिर जलते क्यों?
है प्यार सत्य, शिव, सुन्दर तो भंवरे कलियों को छलते क्यों?

ए मधुवन की कलियां मधुरिम खिल-खिलकर पुनः बिखरती क्यों?
ए शोख लहर इन तीरों से मिल-मिल तुम पुनः बिछुड़ती क्यों?

मधुमास कहीं, पतझार कहीं यह भेद चमन का है साथी
बनकर मिटना, खिलकर झरना यह भेद सृजन का है साथी।

मधुमस कहीं, पतझाड़ कहीं मानो वीणा झंकार उठी
मेरे ही पीछे स्वल्प दूर कोयल की मधुर पुकार उठी।
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