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जीडीपी आंकड़ों पर सच्चाई से मुंह छिपा रही है मोदी सरकार


राहुल पांडे 
जीडीपी के आंकड़े आने के बाद मोदी सरकार छाती पीट-पीटकर जश्न मना रही है। लगातार गिरती अर्थव्यवस्था में इसे सुधार बताया जा रहा है। सरकार की हताशा इसी से जाहिर होती है कि विकास दर में मामूली सी बढ़ोत्तरी को लेकर भी हो-हल्ला मचाया हुआ है, जबकि अर्थव्यवस्था की यह हालत तो तीन साल के मोदी सरकार के कुप्रबंधन का ही नतीजा था। लेकिन इन आंकड़ों की सच्चाई से अब भी मुंह छिपा रही है मोदी सरकार। रोजगार के मोर्चे पर विकास दर में कोई बदलाव नहीं है, कृषि क्षेत्र की दर 2 फीसदी से कम है और अप्रैल-अक्टूबर का वित्तीय घाटा 2017-18 के वित्तीय अनुमानों के 96 फीसदी तक पहुंच गया है। हालांकि अभी यह कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी कि इन आंकड़ों के बाद बाजार में उछाल दिखेगा, लेकिन यह साबित हो चुका है कि मोदीनॉमिक्स काम नहीं कर रही। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर हमारी उम्मीदें इतनी क्षीण हो चुकी हैं कि हम सिर्फ यही कह पाते हैं कि चलो कुछ तो राहत की बात है। बहरहाल सरकार इन आंकड़ों से इतनी प्रफुल्लित है कि शायद मोदी एक बार फिर अपने हार्वर्ड और हार्ड वर्क जुमले को दोहराने लगें। यूं भी पूरी केंद्र सरकार चुनावी छुट्टी पर है और गुजरात में अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। ऐसे में अर्थव्यवस्था के विकास और नई नौकरियां पैदा करना उनके एजेंडे में आ ही नहीं सकता। लेकिन जीडीपी के आंकड़ों को सही नजरिए से देखने की जरूरत है। जीडीपी की विकास दर मात्र आधा फीसदी बढ़कर 5.7 फीसदी से 6.3 फीसदी हुई है। इसमें आर्थिक मोर्चे पर कोई बड़ी उपलब्धि नजर नहीं आती इसीलिए सरकार बरबादी के माहौल में भी सीना ताने खड़े होने का दिखावा कर रही है। सत्तारूढ़ बीजेपी अब यह दावा करेगी कि 6.3 फीसदी की विकास दर के साथ भारत विश्व की तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्थाओं में से एक है। आंकड़ों के हिसाब से यह सही तो है, लेकिन दूसरी तिमाही के आंकड़ों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यूपीए सरकार के आखिर साल 2013-14 में विकास दर 4.7 फीसदी थी, जिसे बाद में संशोधित करने के बाद 6.9 फीसदी पाया गया था, क्योंकि गणना के लिए आधार वर्ष यानी बेस ईयर को बदला गया था। इसका सीधा अर्थ यह है कि 6.3 फीसदी की विकास दर 2013-14 के मुकाबले भी बेहद खराब है। और अगर पुरानी व्यवस्था से इसकी गणना करें तो यह महज 4.3 फीसदी ही पहुंचेगी। जीडीपी में उछाल का मुख्य कारण मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र है, जिसमें पहली तिमाही के 1.2 फीसदी से उछलकर 7 फीसदी पर आ गया है, और इसका भी कारण प्री-जीएसटी डि-स्टॉकिंग यानी जीएसटी लागू होने से पहले के माल को बाजार में निकालने से बढ़ा है। इसके अलावा सितंबर में निर्यात में हुई 25 फीसदी की बढ़ोत्तरी भी इसका कारण हो सकते हैं। लेकिन सरकार को इस बात की चिंता करनी चाहिए कि अक्टूबर में निर्यात घटकर 1.1 फीसदी रह गया है। साथ ही नवंबर के अनुमानित आंकड़े भी अच्छी तस्वीर पेश नहीं करते, क्योंकि करीब 50,000 करोड़ के जीएसटी रिफंड सरकार के पास फंसे हुए हैं, और उत्पादकों को दिक्कतें हो रही हैं। सरकार ने रिफंड प्रक्रिया को जल्द नहीं सुधारा तो दूसरी तिमाही में मैन्यूफैक्चरिंग क्षेत्र की वृद्धि एक छलावा ही साबित होगी। एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि जीडीपी के आंकड़ों में एमएमएमई यानी छोटे और मझोले उद्योगों के साथ असंगठित क्षेत्र को जीएसटी और नोटबंदी से लगे झटकों को नहीं जोड़ा गया है। जीडीपी आंकड़ों की समीक्षा में सीएमआईई यानी सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी ने कहा है कि, “ जीडीपी के तिमाही नतीजों या अनुमानों में छोटे और मझोले उद्योगों के प्रदर्शन को पूरी तरह शामिल नहीं किया जाता है। जबकि यही क्षेत्र जीएसटी और नोटबंदी से बुरी तरह प्रभावित हुआ। इसके अलावा नोटबंदी और जीएसटी ने बड़े उद्योगों को फायदा पहुंचाया क्योंकि वे इन झटकों को सहने के लिए तैयार थे।” यहां .ह जानना भी लाजिमी है कि इस तिमाही में कंपनियों का शुद्ध मुनाफा भ करीब 17 फीसदी कम हुआ है। जीडीपी आंकड़ों पर सरकारी जश्न में कृषि क्षेत्र की तकलीफों और बुरी हालत को भी नजरंदाज़ किया जा रहा है। देश कुल श्रम शक्ति का 50 फीसदी के आसपास कृषि क्षेत्र से जुड़ा हुआ है और यही क्षेत्र अर्थव्यवस्था के उपभोग का आधार भी तय करता है। कृषि क्षेत्र में विकास दर बढ़ने का मतलब सीधा होता है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की खर्च की क्षमता में बढ़ोत्तरी और इससे देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है। लेकिन, कृषि क्षेत्र की विकास दर घटकर 1.7 फीसदी पर आ गई है जो पहली तिमाही के 2.3 फीसदी के मुकाबले आधे फीसदी से ज्यादा कम है। 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने का दिखावटी वादा करने वाली जुमला सरकार के लिए यह आंकड़े आइना हैं। गुजरात विधानसभा चुनाव के बाद भी अगर देश चलाने में इस सरकार की दिलचस्पी होगी तो दरबार वापस दिल्ली शिफ्ट होने के बाद शायद इन आंकड़ों पर विचार किया जाएगा। सरकार को अगर आर्थिक जादू की उम्मीद है तो उसके पास अब समय नहीं है क्योंकि अगले लोकसभा चुनाव का माहौल शुरु होने में अब महज एक साल का समय ही बचा है। देश को इस बात का विश्वास हो चुका है कि मोदीनॉमिक्स भी एक जुमला ही था, जो सिर्फ ऊंची उम्मीदें बंधाता है, लेकिन असलियत में उससे तकलीफ ही होती है। वित्त मंत्री अरुण जेटली भी शारीरिक और मानसिक तौर पर गुजरात चुनाव में लगे हुए हैं। लेकिन समस्या यह नहीं है कि वे दिल्ली से दूर हैं, समस्या यह है कि वे दिल्ली में भी होते तो क्या कर लेते? वैसे भी यहां सवाल योग्यता का है, उपलब्धता से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। साभार नवजीवन 
राजीव रंजन तिवारी (संपर्कः 8922002003)
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