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मंदिर के नाम पर फिर हिन्दुओं को ‘ठगने’ की तैयारी!

राजीव रंजन तिवारी 
जिस देश की सामाजिक संरचना की तासीर धर्मनिरपेक्षता वाली हो, वहां के लोग निश्चित रूप से इस बात पर खुश होंगे कि अब जाति-धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगा जा सकता। वह भी यदि देश का सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर सकारात्मक टिप्पणी कर दे तो फिर धर्मनिरपेक्ष सोच वालों की तो बल्ले-बल्ले मानिए। पर अफसोस कि इतना सब होने पर भी कुछ पार्टियां इस चुनावी मौसम में अपनी आदतों से बाज नहीं आ रही हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि शायद भाजपा एकबार फिर अयोध्या में राम मंदिर के नाम पर हिन्दुओं को ‘ठगने’ की तैयारी कर रही है। लगता है कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा के बीच तालमेल हो जाने के बाद से बैकफुट पर आकर मुद्दाविहिन हो चुकी भाजपा अयोध्या वाले ‘श्रीराम’ के आशीर्वाद से चुनावी नैया पार लगाना चाहती है। लेकिन लगता नहीं कि राम मंदिर के नाम पर 1991 से ठगे जाने वाले हिन्दु इस बार भाजपा के झांसे में आ पाएंगे। हालांकि भाजपाई दबी जुबान से इस मुद्दे को खूब हवा देने की कोशिश में हैं, पर इसका बहुत ज्यादा असर होता नहीं दिख रहा। यह अलग बात है कि अपने चुनावी घोषणा पत्र में भाजपा ने राम मंदिर की जिद को पीछे छोड़ दिया है तो दूसरी ओर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव मौर्य चुनाव बाद राम मंदिर बनाने का वादा कर रहे हैं। हालांकि घोषणा पत्र में राम मंदिर के मुद्दे पर पार्टी ने कानूनी तरीके से काम करने की बात कही है। सबके बावजूद यह माना जा रहा है कि भाजपा मंदिर के नाम पर एकबार फिर ठगने का प्रयास कर रही है। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद बेखौफ भाजपाई जाति-धर्म की बातें करते हैं और हल्ला होने पर ‘यू-टर्न’ लेकर बातें बदल देते हैं। चर्चा की शुरूआत सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों से करते हैं। देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र की मर्यादा के अनुकूल पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यों की एक खंडपीठ ने स्पष्ट कर दिया कि धर्म का राजनीति में इस्तेमाल नहीं हो सकता और जाति, नस्ल, भाषा और धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगे जा सकते। इस खंडपीठ ने अपना फैसला सर्वसम्मति के बजाय बहुमत के आधार पर लिया। सुप्रीम कोर्ट के तीन जज इस राय के थे कि इस फैसले से लोकतंत्र एक अमूर्तन भर बन कर रह जाएगा क्योंकि फिर राजनीतिक दल और नेता लोगों के वास्तविक सरोकारों को सार्वजनिक और चुनावी चर्चा में नहीं ला सकेंगे। इसलिए यह फैसला एक प्रकार से कानून का पुनर्लेखन करता है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने 1995 के अपने फैसले में हिन्दुत्व की व्याख्या एक धर्म नहीं बल्कि जीवनपद्धति के रूप में की थी। उसके ताजा फैसले को को 1995 के संदर्भ में भी देखा जाने लगा क्योंकि इस फैसले से हिन्दू समुदाय को चुनाव प्रचार के दौरान आसानी से संबोधित किया जा सकता था। दरअसल, भारत में धर्मनिरपेक्ष व जातिविहीन राजनीति मुश्किल है। नवंबर 1949 में भारत का संविधान बना और 26 जनवरी, 1950 से वह लागू हुआ। इसकी पृष्ठभूमि में धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ था। इससे भारी संख्या में विभिन्न जाति-धर्म के लोग हिंसा और अत्याचार के शिकार हुए। कुछ लोगों का कहना था कि जब धर्म के आधार पर पाकिस्तान बना तो फिर भारत को धर्मनिरपेक्ष क्यों बनाया गया। लेकिन देश की आजादी के आंदोलन का नेतृत्व करने वाले महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेता नहीं चाहते थे कि अनेक भाषाओं, धर्मों और संस्कृतियों वाला यह देश कई टुकड़ों में बंटे। उन्हें लगता था कि यदि भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं रहा तो विखंडित हो जाएगा। सबके बावजूद हालात ये है कि चाहे हिन्दू हो या मुस्लिम अथवा सिख, सभी धर्म के सहारे ही चुनाव जीतना चाहते हैं। पंजाब में अकाली राजनीति की नींव ही सिख धर्म पर टिकी है। अतीत में देखा गया है कि चुनाव आते ही ऊंची जाति से लेकर पिछड़ी और निचली जाति तक के जाति-आधारित संगठन सक्रिय हो जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उसे देख नहीं लगता कि जाति-धर्म की राजनीति पर अंकुश लगेगा। हालांकि कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद उन लोगों को करारा झटका लगा, जिन्हें जाति और धर्म के नाम पर ही वोट मांगने का भरोसा था। देश के सबसे बड़े राज्य यूपी समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया बहुत तेजी चल रही है। 11 मार्च को यह पता चलेगा कि किस पार्टी के सिर पर जीत का सेहरा बंधता है और कौन मन-मसोश कर रह जाता है। इसमें कोई शक नहीं कि देश के धर्मनिरपेक्ष काया पर पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश एक तरह से कवच की भांति है। इसे कोर्ट की दूरदर्शिता ही कहेंगे कि उसके प्रयास से भारत किसी एक जाति-धर्म का देश बनने से बच गया। इसी के साथ कोर्ट ने भारत में हर वयस्क को मताधिकार देने का निर्णय भी लिया। एक ऐसे देश में जहां गरीबी और अशिक्षा अब भी कायम है और समाज में सामंती चेतना जमाये बैठी हो वहां के लिए यह एक क्रांतिकारी कदम है। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे अमल में लाने वाले नेता अपनी आदतों से बाज आने को तैयार नहीं हैं। धर्म के नाम पर राजनीति करने में माहिर भाजपा यूपी में चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडे अपनाना चाहती है। यहां रोज बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच भाजपा को यह समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर वह किस तरह अपनी चुनावी बैतरणी को पार लगाए। सुप्रीम कोर्ट ने भले धर्म के नाम पर वोट न मांगने की बात कही हो, लेकिन भाजपा के नेता इतनी आसानी से मानने वाले थोड़े हैं। भाजपा नेताओं को इस बात का गुमान है कि केन्द्र में उनकी सरकार है कोई उनका क्या बिगाड़ लेगा। शायद यही वजह रही होगी कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जाति-धर्म के नाम पर वोट न मांगने के निर्देश के बावजूद यूपी भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य ने बीते दिनों एक सभा में स्पष्ट कहा कि चुनाव बाद अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनेगा। उन्होंने यह भी कहा कि राम मंदिर चुनावी मुद्दा नहीं, बल्कि आस्था का सवाल है। हालांकि बाद में जब बवाल हुआ तो उन्होंने स्पष्टीकरण दिया कि उन्होंने ऐसा कुछ नहीं कहा है, उनके बयान का गलत मतलब निकाला जा रहा है। यह तो उसी तरह की बात है, जो आमतौर नेता गलतबयानी कर पलटी मारते रहते हैं। जबकि पूरा देश जानता है कि बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि का मुद्दा संघ परिवार और भाजपा के लिए शुरू से ही राजनीतिक मुद्दा रहा है। राजनीतिक रूप से भाजपा को शिखर तक पहुंचाने में इसी मुद्दे का ख़ासा योगदान रहा है। लेकिन बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद जब बात राम मंदिर के निर्माण की शुरू हुई तो बीजेपी अपने हिन्दू वोटरों के विश्वास पर खरी नहीं उतरी और हर बार केवल राम के नाम पर वोट मांगकर हिन्दुओं को ‘ठगती’ रही। राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा का यूपी में जनाधार इसीलिए घटा कि वह राम मंदिर निर्माण मुद्दे पर खरी नहीं उतरी और बार-बार बयान बदलती रही। हालांकि अब हालात बदले हुए हैं। लगता है भाजपा के थिंकटैंक यह सलाह दे रहे हैं कि राम मंदिर मुद्दा को जिन्दा रखना जरूरी है। शायद यही वजह है कि पार्टी के कई नेता अक़्सर राम मंदिर निर्माण के बारे में कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। जबकि पार्टी में आला स्तर पर यह सफाई दे दी जाती है कि ये हमारा चुनावी मुद्दा नहीं है। जानकार कहते हैं कि भाजपा यूपी विधानसभा चुनाव में शायद हिन्दू वोटों को गोलबंद करने के लिए ही दबी जुबान से ही सही लेकिन राम मंदिर मुद्दा को जिन्दा करना चाहती है। कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य व वरिष्ठ नेता डा. संजय सिंह कहते हैं- ‘भाजपा चाहे कुछ भी कर ले, वोटर उसके झांसे में आने वाला नहीं है।’ भाजपा की इस सियासी चाल पर अपनी पारखी नजर रखने वाले धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर तहसीन पूनावाला कहते हैं-‘भाजपा जाति-धर्म, मंदिर-मस्जिद के नाम पर अबतक हिन्दू वोटरों को ठगती आई है और वह आगे भी कुछ इसी तरह का प्लान कर रही है। लेकिन हिन्दू वोटर अब जागरूक हो चुका है। वह भाजपा की जुमलाभरी बातों को सुनने वाला नहीं है।’ बहरहाल, चुनाव बाद अयोध्या में राम मंदिर बनेगा या नहीं, ये तो बाद की बात है, पर यह प्रतीत हो रहा है कि राम मंदिर के नाम पर भाजपा एकबार फिर हिन्दू-कार्ड खेलना चाहती है। यूं कहें कि 1991 से अब तक राम मंदिर के नाम पर हिन्दू वोटरों को गुमराह करती रहने वाली भाजपा लगता है कि एकबार फिर हिन्दू वोटरों को ‘ठगने’ की कोशिश में है। खैर, देखा जाना है कि वह अपने मिशन में कितना कामयाब हो पाती है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक व चर्चित स्तम्भकार हैं)
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