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विपक्ष को ‘विफल’ बताने में भाजपाई ‘सफल’ क्यों?

राजीव रंजन तिवारी 
किसी भी मोर्चा पर सफल होने के लिए कॉन्सेप्ट क्लियर यानी विचार स्पष्ट होना चाहिए। कम से इतना तो पता होना ही चाहिए कि हम करने क्या जा रहे हैं और इसका परिणाम क्या होगा? हम चर्चा कर रहे हैं आजकल तेजी से देश में बनते-बिगड़ते राजनीतिक घटनाक्रमों और समीकरणों की। नोटबंदी की भीषण अव्यवस्था के खिलाफ विपक्ष का आंदोलन भले कम सफल रहा हो, लेकिन इसे फ्लॉप-फ्लॉप कहकर विफल बताने की सफल कोशिश हो रही है। कह सकते हैं अपनी कथित नासमझी की वजह से विपक्ष ने केन्द्र सरकार के खिलाफ व्यापक जनमत तैयार करने का एक स्वर्णिम मौका हाथ से गवां दिया। इसके पीछे विपक्ष की खामियां जो भी रही हों, पर भाजपा का शोर ज्यादा प्रभावी रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो नोटबंदी के बाद भाजपा द्वारा चली जा रही कथित सियासी शतरंजी चालें विपक्ष ठीक से समझ नहीं सका है। फलस्वरूप, अपराधबोध से ग्रसित होते हुए भी भाजपा और मोदी सरकार को अनायास ही वाकओवर मिलता जा रहा है। निश्चित रूप से इसे विपक्ष की कुटनीतिक विफलता ही कहेंगे। वैसे, इसके लिए किसी एक पार्टी अथवा नेता को को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। मोदी सरकार विरोधी अभियान चलाने में विफल होने के लिए कमोबेश सभी गैर भाजपा पार्टियां जिम्मेदार हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध एक चर्चित चिंतक का पिछले दिनों कुछ अखबारों में नोटबंदी के बाद बढ़ी देश की समस्याओं के बाबत एक आर्टिकल छपा था, जिसमें स्पष्ट रूप से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को नौसिखिया बताते हुए कहा गया था कि वे नोटबंदी के बाद बिगड़ते हालातों से डरे हुए हैं। लेखक के इस बात में दम है। क्योंकि नोटबंदी के बाद खुद प्रधानमंत्री दो बार भावुक होकर अपनी पीड़ा को दबी जुबान से बयां कर चुके हैं। यूं कहें कि नोटबंदी के बाद अव्यवस्थाओं की वजह से इतने बुरे हालात होंगे, इसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। शायद प्रधानमंत्री ने भी यह नहीं सोचा होगा कि पूरे देश में अचानक इस कदर अफरातफरी मच सकती है। खैर, अफरातफरी भी मची, देश की जनता खूब परेशान भी हुई, विपक्षी दलों ने भी अपने-अपने हिसाब से हल्ला-हंगामा किया। पर, धीरे-धीरे वक्त बीतता गया और हालात सामान्य होते गए। अब कमोबेश हालात सामान्य से हो गए हैं। थोड़ी-बहुत दिक्कते हैं, जो उम्मीद है कि जल्द दुरूस्त हो जाएंगी। दरअसल, हम चर्चा कर रहे हैं नोटबंदी के बाद पैदा हुई भारी अव्यवस्था के खिलाफ विपक्ष के आंदोलन की। बेशक, यह इतना बड़ा मुद्दा था कि वह विपक्ष को लाइम लाइट में ला सकता था। पर सबकुछ बेकार हो गया। कहा जा सकता है कि इस बहुत बड़े मसले पर विपक्ष ने केन्द्र सरकार को वाकओवर दे दिया है। जबकि केन्द्र सरकार डरी हुई रक्षात्मक हालात में थी, फिर विपक्ष केन्द्र के खिलाफ हालात को अपने अनुकूल नहीं कर सका। दिलचस्प यह है कि बिल्कुल अनमने ढंग से चली गई भाजपा की कथित कुटिल शतरंजी सियासी चालों में विपक्ष का अभियान फंसकर रह गया। 28 नवम्बर के आक्रोश और विरोध मार्च की ही बात करें तो इसे भाजपा और संघ से जुड़े लोगों ने अपने प्रचार-तंत्र के सहारे बेहद शातिराना अंदाज में फ्लॉप कर दिया। पूरे मामले को इस तरह समझिए। बिना तैयारी के की गई नोटबंदी से पैदा हुई अव्यवस्था के खिलाफ पूरे देश में गैरभाजपा दलों ने आक्रोश और विरोध मार्च निकालने का एलान किया था। इसके लिए 28 नवम्बर की तिथि मुकर्रर हुई। बीते हफ्ते बनी इस विपक्षी योजना को सफल बनाने के लिए अपने स्तर से विपक्षी नेताओं द्वारा प्रयास भी आरंभ कर दिया गया। विपक्ष की गलतफहमी यह थी कि शायद उन लोगों ने यह मान लिया कि उनके आंदोलन को डरे हुए भाजपाई चुपचाप सहन कर लेंगे। जबकि हुआ इसके उल्टा। विपक्षी अपने आक्रोश और विरोध मार्च अभियान को सफल बनाने के लिए प्रचार करने लगे, वहीं भाजपा और संघ से जुड़े लोग सोशल साइट्स और अन्य माध्यमों से विपक्ष के इस अभियान को ‘भारत बंद’ की संज्ञा देकर उनसे तेज शोर मचाने लगे। प्रधानमंत्री मोदी ने भी कुशीनगर की एक सभा में कहा था-‘हम भ्रष्टाचार बंद करना चाहते हैं, ‘वो’ भारत’। नतीजा यह हुआ कि ‘भारत बंद’ की बात से आम आदमी हो या कारोबारी, सब विपक्ष के अभियान से नाराज हो गए। जबिक सच्चाई ये है कि ‘भारत बंद’ जैसा अभियान था ही नहीं। केवल आक्रोश और विरोध मार्च निकाला जाना था। नतीजा यह हुआ कि इस राष्ट्रव्यापी अभियान को आंशिक सफलता ही मिल सकी। जबकि इस अभियान से पब्लिक को कनेक्ट किया जा सकता था। सो, नहीं हुआ। यूं कहें कि भाजपा और संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की गलतबयानी से विपक्ष और पब्लिक दोनों कन्फ्यूज हो गए और विपक्षी दल हतप्रभ। दूसरा, इससे भी बड़ा खेल बिहार में खेला गया। इस खेल में सीधे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को ही निशाने पर ले लिया गया। नीतीश द्वारा नोटबंदी के समर्थन की बात को यह कहते हुए मीडिया तथा संघ-भाजपा समर्थकों ने घुमा दिया कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करीब आना चाहते हैं और बिहार में बने महागठबंधन से अलग होना चाहते हैं। इतना ही नहीं कथित फर्जी तरीके से यह अफवाह भी फैलाई गई कि नीतीश कुमार ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह से मुलाकात कर भाजपा के साथ मेलजोल बढ़ाने की भी बात की है। जबकि दोनों ही बातें पूरी तरह बकवास थीं। दरअसल, मोदी सरकार के नोटबंदी के फैसले को देश के अमूमन सभी बड़े नेताओं ने सराहा था। बिल्कुल सामन्य प्रक्रिया में नीतीश ने भी नोटबंदी को बेहतर फैसला बता दिया। बात भी सही है, कालाधन का समर्थन कौन और क्यों करेगा? खास बात यह है कि बिल्कुल सोची-समझी रणनीति के तहत संघ-भाजपा से जुड़े लोगों ने नीतीश की बातों को तुल दे दिया। शायद इसका उद्देश्य यही रहा होगा कि बिहार जैसे जागरूक राज्य में विपक्ष को एकजुट न होने दिया जाए। अपने इस उद्देश्य में भी भाजपाई सफल हो गए। जब यह शोर मचने लगा कि नीतीश कुमार भाजपा और नरेन्द्र मोदी के करीब जाना चाहते हैं तो महागठबंधन के अन्य घटक लालू प्रसाद तथा कांग्रेसी नेताओं के कान खड़े हो गए। नीतीश कुमार को उनके ये सहयोगी दल उन्हें संदिग्ध निगाहों से देखने लगे। जबकि सच्चाई 28 नवम्बर को तब सामने आई, जब नीतीश कुमार ने खुद कहा कि उनके विरोधी उनकी ‘राजनीतिक हत्या’ करना चाहते हैं। इसका मतलब यही हुआ कि नीतीश के बारे में गलत-सलत अफवाह फैलाकर उनके सहयोगी दलों में भ्रम पैदा करने की कोशिश की जा रही है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बिना तैयारी के की गई नोटबंदी से मची अफरातफरी को जहां विपक्ष ठीक से भुना नहीं पाया वहीं इस मुद्दे पर आ रहे नीत नए सरकारी फैसलों से पब्लिक डिस्टर्ब है। खुद को कालाधन विरोधी बताने वाली सरकार ने कालाधन रखने वालों को बड़ी राहत दी है। एसे में सवाल यह उठता है कि जब कालेधन वालों को सहूलियत ही देनी थी तो नोटबंदी का ड्रामा क्यों किया गया। बहरहाल, हालात के मुताबिक कहा जा सकता है कि आने वाले वक्त में यह नोटबंदी कई नए सियासी गुल खिलाएगा। उस सियासी गुल का किसे लाभ होगा और किसे नुकसान, ये तो वक्त ही बताएगा। पर, इतना जरूर है कि कथित जनविरोधी मुद्दों पर यदि विपक्ष संजीदा नहीं रहा तो आने वाले दिनों में भी कई एसे सुनहरे मौके उसके हाथ से जाते रहेंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और चर्चित स्तंभकार हैं, इनसे फोन नम्बर +918922002003 पर संपर्क किया जा सकता है)
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