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मजबूत बनकर उभरे हरीश रावत, अगली सरकार भी कांग्रेस की?

राजीव रंजन तिवारी 
सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर उत्तराखंड में हरीश रावत के फिर से सरकार बनाने का रास्ता साफ हो गया। हालांकि विधानसभा में शक्ति परीक्षण के तुरंत बाद ही स्थिति साफ हो गई थी, पर सुप्रीम कोर्ट के तय वैधानिक प्रावधान के चलते एक दिन बाद सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। कोर्ट के फैसले के बाद केंद्र ने राष्ट्रपति शासन हटाने का एलान किया। इस घटनाक्रम में भाजपा व केंद्र सरकार को काफी किरकिरी हुई है। अब भाजपा नेता यह कह कर खुद को पाक-साफ बताने की कोशिश में हैं कि हरीश रावत ने विधायकों की खरीद-फरोख्त करके विजय हासिल की, पर उनके तर्क में दम नहीं रहा। अगर कोर्ट ने कांग्रेस के नौ बागी विधायकों को मतदान से बाहर नहीं किया होता, तो शायद स्थिति बिल्कुल उलट होती। उत्तराखंड में केंद्र सरकार ने नाहक दखल देकर न सिर्फ राज्यपाल व विधानसभा अध्यक्ष के विधायी अधिकारों को बाधित किया, बल्कि धारा 356 को लेकर बने नियम-कायदों की धज्जियां भी उड़ाईं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से सिद्ध हो गया कि केंद्र सरकार का कदम गलत था। हाल के कुछ वर्षों में भाजपा एक मजबूत पार्टी के रूप में उभरी है, कई राज्यों में उसने बहुमत हासिल कर सरकारें बनाई। इसलिए उसे जनादेश अर्जित करने का प्रयास करना चाहिए, न कि इस नजीर के साथ तख्ता पलट का रास्ता अख्तियार करना चाहिए कि कांग्रेस ने भी अनेक मौकों पर धारा 356 का दुरुपयोग किया है। इस तरह वह शायद ही अपने कामकाज के तरीके को कांग्रेस से अलग साबित कर सके। दरअसल, जिन राज्यों में छोटी विधानसभाएं हैं और बहुमत के लिए पक्ष-विपक्ष के बीच बहुत कम सीटों का अंतर होता है, वहां छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर बगावत व तख्ता पलट की आशंका रहती है। कई राज्यों में इस प्रवृत्ति के चलते सरकारें बदली हैं। विपक्षी दल सरकार बनाने में कामयाब हुए हैं। अरुणाचल इसका उदाहरण है। कमोबेश अरुणाचल को ही दोहराने की कोशिश उत्तराखंड में भी हुई, जिसमें भाजपा की किरकिरी हुई। केंद्र सरकार की किरकिरी के बाद हरीश रावत की सरकार उत्तराखंड में लौट गई है। हरीश रावत के नेतृत्व में कांग्रेस उत्तराखंड में बड़ी जीत के उत्साह के साथ काम करेगी। जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने पिछले दिनों अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी की अपील को मंजूर कर लिया था। रोहतगी ने कोर्ट में कहा था कि केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन हटाना चाहती है। रावत के वकीलों कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया। कोर्ट ने 10 मई को हुए विश्वास प्रस्ताव का नतीजा भी घोषित किया। इसके मुताबिक हरीश रावत के पक्ष में 33 वोट पड़े। कोर्ट द्वारा नियुक्त पर्यवेक्षकों की देखरेख में विधानसभा में विश्वासमत पर वोटिंग हुई थी। तकरीबन एक माह तक चली राजनीतिक लड़ाई के बाद कांग्रेस सरकार में वापस आ गई है। कांग्रेस के कुछ विधायकों ने सरकार का साथ छोड़ दिया था। बजट से जुड़े एक प्रस्ताव पर 18 मार्च को 9 कांग्रेसी विधायकों ने बीजेपी के साथ वोटिंग की थी। इसके बाद 27 मार्च को राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। लेकिन स्पीकर ने बागी विधायकों को अयोग्य करार दे दिया। हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट ने भी स्पीकर के इस फैसले को सही ठहराया। इसके बाद ही विश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग संभव हो पाई। खैर, उत्तराखंड का घटनाक्रम भारतीय राजनीति के भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इसके तात्कालिक और दीर्घकालिक दोनों तरह के परिणाम निकलेंगे। कांग्रेस सरकार की सत्ता में बहाली का तात्कालिक परिणाम तो यह होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लगातार गिर रही साख इसके कारण और भी गिरेगी। साथ ही उनके घनिष्ठतम सहयोगी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का ग्राफ भी नीचे आएगा। पिछले कुछ वर्षों में उनकी छवि एक अपराजेय रणनीतिकार की बनी थी लेकिन दिल्ली और बिहार के चुनावों में मिली करारी हार और अब उत्तराखंड में हुई किरकिरी से यह छवि ध्वस्त होती दिख रही है। 19 मई को पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल, असम और पुडुचेरी के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ जाएंगे। इनमें से केवल असम एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा किसी किस्म की चुनावी उपलब्धि की उम्मीद कर सकती है। शेष चार राज्यों में उसके प्रदर्शन में कोई उल्लेखनीय अंतर की आशा नहीं है। अब जिस लाख टके के मुद्दे पर यहां जो चर्चा छिड़ी हुई है, वह यह है कि उत्तराखंड जैसे छोटे राज्य में होना तो यह चाहिए था कि जनता के बुनियादी अधिकारों और विकास के मुद्दों पर बहस होती, लेकिन सारी बहस सत्ता-राजनीति और कुर्सी की छीनझपटी के इर्दगिर्द घूम रही है। इसे विडंबना की तरह समझें कि आम लोग भी इन घटनाओं को बाकायदा सनसनी की तरह देख सुन रहे हैं। कहीं से कोई आक्रोश की आवाज नहीं आती कि एक राज्य में आखिर किस चीज को दांव पर लगाकर, राजनैतिक दल सत्ता में यह चूहेबिल्ली का खेल कर रहे हैं। जंगल के जंगल जल रहे हैं। पीने के पानी की किल्लत है। सड़कें, बिजली, स्कूल, अस्पताल चरमराई व्यवस्था के साए में काम कर रहे हैं। रोजगार के अवसर सिकुड़ते जा रहे हैं। पर्यटन में एक ठोस ढांचे का अभाव है। ऐसा भी पहली बार हुआ कि अनुच्छेद 356 के इस्तेमाल को लेकर केंद्र और किसी राज्य सरकार की टकराहट न सिर्फ इतनी लंबी खिंची, बल्कि यह ऐसे मोड़ में पहुंच गई, जहां एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के सिवाय किसी को कुछ नहीं सूझ रहा। इस प्रकरण ने सत्ता राजनीति के चरित्र की भयानकता दिखा दी है। कई स्याह पहलू उजागर हुए हैं। साल 2000 में जिन तीन राज्यों का गठन हुआ था, उनमें उत्तराखंड के अलावा छत्तीसगढ़ और झारखंड भी हैं। छत्तीसगढ़ में दो बार मुख्यमंत्री पद पर बदलाव हुए हैं। झारखंड में सात बार और उत्तराखंड में नौ बार। कांग्रेस और बीजेपी बारी-बारी से इस राज्य में शासन करती आई हैं। दोनों ही दलों के भीतर घात-प्रतिघात और बगावतों का बोलबाला रहा। बीजेपी में चार-चार बार सीएम बदल दिए गए। सत्ता सियासत से इत्तर उत्तराखंड के हित कि चिंता करता हुआ एक पोस्ट फेसबुक पर दिखा था। जिसे सूबे के चर्चित फोटो जर्नलिस्ट राजू पुशोला ने लिखा था। फेसबुक पोस्ट में लिखा था-‘विकल्प: यह शब्द उत्तराखंडियों के लिए अब तक दूर की कौड़ी रहा है। इसका लाभ राजनितिक पार्टियों और नेताओं को खूब मिला। उनके पास तो विकल्प ही वकल्प हैं। राज्य गठन के बाद 9 नवंबर 2000 को भाजपा के पास इतने विकल्प थे कि किसे मुख्यमंत्री बनाया जाए। चार दावेदारों ने तो खूब जोराजमाइश की लेकिन स्व.नित्यानंद स्वामी के भाग से छींका फूटा। बाकी तीन स्वामी का विकल्प बनने को हमेशा जद्दोजेहद करते रहे। पहले चुनाव की घडी आ गयी। पहाड़ पर "प्लेन" कैसे उतरा इसका जवाब देने से भाजपा डर गयी, विकल्प तलाशा तो धोती और टोपी वाला मिला। उम्मीद थी कि जनता को "भगत जी" लुभाने में सफल होंगे, लेकिन जनता के पास कोई और विकल्प तो था नहीं, सो 2002 में कांग्रेस को चुनना पड़ा। कांग्रेस के पास भी कम विकल्प नहीं थे।’ इस तरह के सवालों से रूबरू कराता राजू पुशोला के फेसबुक पोस्ट को भारी संख्या में लोगों के लाइक्स व कमेंट्स मिले। इससे सिद्ध हुआ कि उत्तराखंड की जनता यहां की अनचाही सियासत से ऊब चुकी है। खैर, यह लोकतांत्रिक व्यवस्था है, इसे रोका नहीं जा सकता। पर इतना तो तय है कि सूबे में सत्ता हथियाने के चक्कर में भाजपा ने अपनी जबर्दस्त फजीहत करा ली है। अब यहां के जागरूक लोगों की नजर आगामी विधानसभा चुनाव पर टिकी है। देखना यह है कि अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव की दशा-दिशा क्या होती है।
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