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"ख्वाहिशें"

रितु शर्मा 
सोच की मुंडेर पर जलते चिराग खो गए हैं 
कहीं हमारे ही मन के अंधेरों में
कौन से रास्ते पर चले उनकीं तलाश मे...? 
गर बात सिर्फ राहों में बिखरे कांटों तक सीमित होती
तो हम चल पड़ते जख्मी पाँव ले कर, तड़पती आस ले कर लड़खड़ाते, छटपटाते, आखिर तक...
परन्तु जब सवाल अपने ही पाँवों के साथ का है
तो कहाँ से ले साहस चलने के लिए..? 
फख्त कुछ वहम थे पाँवों के नीचे 
जो अब तक पाला था भ्रम हमने चलने का और समझते रहे जिसको जमीन बादल था
एक भावुकता का जो पाते ही 
धूप की आहट में खो गया 
कही और ले गया 
साथ ही ख्वाहिशें के मौसमों को भी जिन्होंने बनना था 
कशिश सफर के लिए और अब फख्त खामोशी के असीम ख्यालों में 
बेरोक-टोक सिलसिला हैं निगाहों के हाँफने का...!!
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