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नरेन्द्र मोदी की छवि 'तानाशाह प्रधानमंत्री' जैसी है क्या?

नई दिल्ली। दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में गैरकांग्रेसी सरकार यानी भाजपा की सरकार है। केन्द्र में भाजपा के फायर ब्रांड नेता व गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्देशन में सरकार से संबंधित लोग कामकाज कर रहे हैं। पिछले वर्ष यानी 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीतने वाली भाजपा के नेता नरेन्द्र दामोदर दास मोदी प्रधानमंत्री बने। चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी ने देश के मतदाताओं से तरह-तरह के वादे-दावे किए। इस दरम्यान उन्होंने पिछली सरकारों पर न सिर्फ हमला बोला बल्कि उनकी कार्यशैली को भी कठघरे में खड़ा करते हुए स्पष्ट तौर पर कह दिया उनकी सरकार के सौ दिन पूरे होते ही देश के विकास की रफ्तार इतनी तेज होगी कि दुनिया दंग रह जाएगी। 26 मई, 2015 को उनकी सरकार के 365 दिन यानी एक वर्ष पूरे हो गए, लेकिन इस दौरान मोदी के दावे-वादे के अनुरूप कुछ भी उल्लेखनीय नहीं दिखा, जिसकी ताल ठोककर चर्चा की जा सके। इस मुद्दे पर देश के वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार मधुकर उपाध्याय, इंदर मल्होत्रा और अपूर्वानंद ने बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए लिखे गए अपने-अपने आलेखों में सरकार के एक वर्ष के कामकाज का गहन आकलन किया है। 
वरिष्ठ पत्रकार इंदर मल्होत्रा का कहना है कि नरेन्द्र मोदी सरकार के एक वर्ष के क्रियाकलाप का गहन आंकलन करने से यह पता चलता है कि मोदी की छवि कुछ लोगों की नजरों में एक तानाशाह प्रधानमंत्री के रूप में बनी है। इसकी कई वजहें हैं, जिस कारण लोग उन्होंने एक तानाशाह के रूप में देख रहे हैं। विपक्षी दल ख़ासकर कांग्रेस, जो पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी के नए अवतार में आने के बाद उत्साह में हैं, मोदी सरकार को बुरी तरह से फटकार लगा रहे हैं। कुछ आलोचकों का मानना है कि मोदी देश को उसी तर्ज पर चलाना चाह रहे हैं जैसा उन्होंने गुजरात को बतौर मुख्यमंत्री 15 साल तक चलाया। उन्होंने अपने भारी-भरकम चुनाव प्रचार अभियान के दौरान गुजरात मॉडल को पूरे देश में लागू करने का वादा किया था। हालांकि उन्हें पता है कि एक ताकतवर मुख्यमंत्री के तौर पर राज्य में वे जो कर सकते हैं वैसा प्रधानमंत्री के तौर पर पूरे देश में नहीं कर सकते। मसलन नरेंद्र मोदी ने अपने आप को गुजरात की राजधानी गांधीनगर में जिस तरह से राष्ट्रीय स्वयं सेवक के नियंत्रण से आज़ाद कर रखा था वैसा वे दिल्ली में नहीं कर सकते हैं। गांधीनगर में मोदी ने कट्टरवादी प्रवीण तोगड़िया को पूरी तरह से हाशिए पर रखा था। तोगड़िया ने मोदी को सत्ता में आने में मदद की थी। अब तोगड़िया फिर से एक नेता के रूप में उभर रहे हैं और पूरे देश में घूमकर कट्टर हिंदुत्व का पाठ पढ़ा रहे हैं। संघ परिवार से जुड़े कई सदस्यों, जिनमें बीजेपी के कई सांसद और मंत्री भी शामिल हैं, ने मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ उत्तेजक बयानबाज़ी की है। उन लोगों ने 'घर वापसी' जिसका मतलब है हिंदूवाद की ओर वापस चलो, का समर्थन किया है। ऐसे ही दो राजनेताओं को निलंबित करने की मांग उठ चुकी है जिन्होंने हिंदू औरतों से कम से कम चार बच्चे पैदा करने को कहा था। इनमें से किसी पर ना ही कोई कार्रवाई हुई और ना ही मोदी ने उनकी सार्वजनिक रूप से निंदा की। उन्होंने कुछ मंत्रियों के ऊपर यह छोड़ दिया कि वे सरकार को इन बयानों से दूर रखें। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक बार कहा भी था कि भारत में रहने वाला हर कोई हिंदू है। इस पर मोदी सरकार सिर्फ यह कह सकी कि ये भागवत के निजी विचार है। बेशक मोदी ने अपनी प्रभुता कायम की है, 'पूरी तरह से नहीं, लेकिन बहुत हद तक'। इसके लिए नरेंद्र मोदी ने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के दूसरे संदर्भ में इस्तेमाल किए गए शब्दों का सहारा लिया है। प्रधानमंत्री इन सवालों को टालते हुए कहते हैं कि मेरे लिए भारत का संविधान सबसे पवित्र ग्रंथ है और मेरा एकमात्र उद्देश्य सबके साथ, सबका विकास' है। उनकी वाकशैली ने सभी को प्रभावित किया है। पार्टी और सरकार पर कड़ा नियंत्रण रखने के लिए मोदी के पास दो औज़ार हैं। सरकार के अंदर कोई भी राजनेता या नौकरशाह प्रधानमंत्री कार्यालय की हरी झंडी मिले बिना कुछ भी नहीं कर सकता और प्रधानमंत्री कार्यालय में इन दिनों गुजरात कैडर के कुछ उन चुनिंदा अफसरों का दबदबा है जिन्होंने गुजरात में भी मोदी को सेवा दी है। बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह प्रधानमंत्री के अंतरंग मित्र हैं। बीजेपी के पूर्व मंत्री और वरिष्ठ पत्रकार अरुण शौरी ने एक टीवी इंटरव्यू में कहा कि वर्तमान सरकार में सिर्फ़ तीन लोग मोदी, अमित शाह और अरुण जेटली हैं। सरकार की इस कटु आलोचना के बावजूद अरूण शौरी मोदी के चहेते बने हुए हैं। अहम सवाल यह है कि मोदी की तुलना उनके 13 पूर्ववर्तियों से कैसे की जाए और उनमें से कितनों ने तानाशाह होने की कोशिश की थी और अगर की भी थी तो किस हद तक उन्हें सफलता मिली थी? इसका बहुत ही साफ और संक्षिप्त सा जवाब है। इंदिरा गांधी एक अपवाद थीं, जिन्होंने पहली बार प्रधानमंत्री की ताकत को केंद्रीकृत किया और बाद में इसे अपने हाथों में लेकर इसपर अमल किया। दिलचस्प यह है कि जिस नेहरू-गांधी परिवार पर आए दिन उल्टे-सीधे बयानबाजी कर प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने वाले मोदी के लिए यह महज़ इत्तेफाक नहीं, कई राजनीतिक विश्लेषक कहते आए हैं कि मोदी की रोल मॉडल इंदिरा गांधी हैं। कुछ मामलों में तो इंदिरा, मोदी से भी आगे थीं। आपातकाल के बाद 1977 के चुनावी हार से ज्यादा अपमानजनक कुछ भी नहीं हो सकता क्योंकि लोग आपातकाल के 19 महीने के भयानक दुस्वपन के बाद उनसे नफरत करने लगे थे। फिर भी 30 महीने के बाद एक बार फिर चुनावी जीत उन्हें सत्ता में वापस ले आईं। इसके अलावा कई वर्षों तक गूंगी गुड़िया का दिखावा करने के बाद वे अपराजेय 'देवी दुर्गा' के रूप में सामने आईं। मार्च 1971 में इंदिरा गांधी ने ना सिर्फ लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल की, बल्कि उसी साल 16 दिसंबर को उनके नेतृत्व में भारतीय फौज ने बांग्लादेश की मुक्ति की लड़ाई फतह की। मोदी पहले दिन से तानाशाही रवैया अपनाए हुए हैं। आइए अब जानते हैं दूसरे पूर्व-प्रधानमंत्रियों के बारे में। कोई भी यदि एक पल के लिए यह मानता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू तानाशाह बनना चाहते थे, यह हास्यास्पद ही होगा। हालांकि नवंबर 1937 में किसी ने कलकत्ता मॉडर्न रिव्यू में लिखा था कि जवाहरलाल नेहरू से सतर्क रहे। ऐसे लोग खतरनाक होते हैं। वे अपने आप को लोकतांत्रिक और समाजवादी कहते हैं, लेकिन वे एक तानाशाह में बदल सकते हैं हालांकि स्पष्ट रूप से वास्तविकता यह है कि अगर महात्मा गांधी भारत के मुक्तिदाता थे तो नेहरू भारत के लोकतंत्र और इसे मज़बूत बनाने वाले सभी संस्थाओं के संस्थापक थे। इसके अलावा कांग्रेस में और भी कई कद्दावर नेता थे। वाकई में नेहरू के लगभग बराबरी का कोई राजनेता था तो वे सरदार पटेल थे और यह कहना बड़बोलापन नहीं होगा कि 15 अगस्त, 1947 से 15 दिसंबर, 1950 तक (सरदार पटेल की मृत्यु का दिन) देश को इन दोनों ने ही चलाया। इसके बाद भी नेहरू के नेतृत्व में दिग्गजों की कमी नहीं रही। फिर चाहे मौलाना आज़ाद हो, राजेंद्र प्रसाद हो, या राजाजी जैसे और भी कई। कांग्रेस नेताओं में मोरारजी देसाई अकेले ऐसे नेता थे जिनके अंदर तानाशाही रुझान था। इसी वजह से वे उत्तराधिकार की लड़ाई एक नहीं, तीन बार हारे। आख़िरकार जब वे जनता पार्टी की सरकार में पीएम बने भी तो उनके पास ज्यादा अधिकार नहीं थे। चरण सिंह व जगजीवन राम लगातार उन्हें हटाने की कोशिश में थे। अंत में चरण सिंह को इसमें सफलता मिली। सबसे महत्वपूर्ण और दिलचस्प तुलना बीजेपी के पहले पीएम अटल बिहारी वाजपेयी व दूसरे पीएम नरेंद्र मोदी के बीच की है। वाजपेयी भगवा पार्टी का उदार चेहरा हैं। वे सामंजस्य स्थापित करने में महिर थे। वे एक राजनेता थे जिनकी तारीफ बीजेपी के धुर विरोधी भी करते थे। साल 1996 में बनी उनकी सरकार 13 दिनों की थी। दो साल के बाद विशाल गठबंधन से बनी उनकी कमजोर बहुमत की सरकार एक साल (करीब 13 माह) पूरा करने के बाद गिर गई। वाजपेयी के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 1999 के आम चुनाव में जीत दर्ज की और उन्होंने अपना नाम छह साल तक लगातार रहने वाले पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में इतिहास में दर्ज कराया। मोदी की स्थिति पांच साल के लिए सुरक्षित है लेकिन चार साल के बाद अगले चुनाव में कौन अनुमान लगा सकता है कि क्या होगा?
मोदी की 'बातों और इरादों' के बीच की खाई 
पत्रकार अपूर्वानंद का मानना है कि गद्य चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने की कला है- प्रख्यात लेखक रैल्फ फॉक्स ने कभी लिखा था। लेकिन गद्य का इस्तेमाल कभी-कभी सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए किया जाता है। कहा जा सकता है कि भाषा या शब्द दरअसल खाली बर्तन हैं, जिनमें अर्थ कहीं और से भरा जाता है। भारत के प्रधानमंत्री के वक्तव्यों को पढ़ते हुए शब्द और अर्थ के बीच के रिश्ते पर कुछ इसी तरह के विचार मन में आते हैं। अमेरिका की 'टाइम' पत्रिका में उन्होंने अपने कार्यकाल का एक साल पूरा होने के उपलक्ष्य में एक लंबा इंटरव्यू दिया। इसका नोटिस भारत की मीडिया ने लिया है। इसमें अनेक बातें कही गई हैं। 'भारतीय प्रधानमंत्री के लिए संविधान ही एकमात्र पवित्र पुस्तक है', ऐसा उन्होंने कहा है। पवित्र पुस्तकों के साथ हम कैसा रिश्ता रखते हैं, यह हम सबको मालूम है. वे पूजा किए जाने के लिए होती हैं, उन्हें धूप-अगरबत्ती दिखाई जाती है, दुनियावी मसलों में हम उनका इस्तेमाल नहीं करते। रोज़मर्रा की गंदगी में हम पवित्र पुस्तकों को नहीं घसीटते। और अगर संविधान नामक पुस्तक, जो लिखी और छपी है, इतनी ही श्रेष्ठ है तो जापान हो या अमरीका, जो किताब बतौर प्रधानमंत्री वे राज्याध्यक्षों को उपहार में देते रहे हैं, वह तो गीता है, यह संविधान नहीं, और गीता के बारे में उनका ख़्याल है कि इससे बड़ी कोई देन भारतीय सभ्यता की है ही नहीं। 'भारत को डिक्टेटरशिप की ज़रूरत नहीं, वह यहाँ चल नहीं सकती क्योंकि हमारे डीएनए में लोकतंत्र है', यह दूसरी बात कही गई। डीएनए शब्द को जितना लोकप्रिय आज के प्रधानमंत्री ने बनाया है, उसे देखते हुए जीव वैज्ञानिकों को उन्हें सम्मानित करना चाहिए। लेकिन जिस देश में जाति के नाम पर हत्या आम बात हो, जो देश ऊंच-नीच की बीमारी से इस कदर पीड़ित हो कि इस्लाम हो या ईसाइयत, जाति से न बच पाए। उसके लोगों के बारे में यह कहना कि लोकतंत्र उसके डीएनए में है, काव्यात्मक उड़ान भी नहीं। ख़ुद प्रधानमंत्री डिक्टेटर हैं या नहीं, यह तो आप उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों से जा कर पूछ लें या भाजपा के नए-पुराने सदस्यों से। अब तो उनकी मौजूदगी में प्राचीन लौह पुरुष (आडवाणी) तक, जो कभी उनके गुरु और संरक्षक हुआ करते थे, मुँह नहीं खोल सकते। डिक्टेटर शब्द बदनाम हो चुका है और अगर उसके इस्तेमाल के बिना ही डिक्टेटरशिप चल सकती हो, तो फिर यह कहने की ज़रूरत ही कहाँ रह जाती है कि मैं डिक्टेटर बनना चाहता हूँ। लेकिन जिस व्यक्ति का आदर्श सिंगापुर का संस्थापक राज्याध्यक्ष या चीन हो, उससे अलग से यह पूछना भी हद दर्जे का भोलापन है कि आप डिक्टेटर होना चाहते हैं या नहीं। सरकार सभी धर्मों के लोगों को समान भाव से देखती है। बात सही है, लेकिन अगर कुछ धार्मिक सा संगठन, समूहों के ख़िलाफ़ घृणा अभियान चल रहा हो तो उसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर वह चलने देती है, आखिर वह लोकतांत्रिक सरकार है। जब जूलियो रिबेरो जैसा व्यक्ति यह कहने लगे कि यह देश अब उसे पराया लगने लगा है, तब यह कहना कि अल्पसंख्यकों के भय लगने की बात काल्पनिक और निराधार है, दरअसल एक छिपी हुई धमकी है, आप यह कहने की हिम्मत भी कैसे कर रहे हैं। ग्रीन पीस पर रोक, फोर्ड फाउंडेशन पर पाबंदी, सिविल सोसाइटी संगठनों पर रोक-थाम, तरह-तरह के क़ानूनी बदलाव ताकत को केंद्रीकृत करने की कोशिश, फिर भी लोकतंत्र के सुरक्षित होने का दावा! संघीय ताने बाने की दुहाई और बिना राज्य सरकार से बात किए अरुणाचल प्रदेश में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट लगाना, जीएसटी क़ानून के माध्यम से राज्य की टैक्स की कमाई को हथियाने की कवायद! पीएम के बयानों के बारे में अब उनके दल के अध्यक्ष के हवाले से कहा जाने लगा है कि वे तो बातें हैं, बातों का क्या! लेकिन आपको अगर इसका गंभीरता से अध्ययन करना हो तो आपको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के भाषा-व्यवहार को देखना होगा। यह समझना होगा कि उसने अपने इरादों को हमेशा शब्दों की आड़ देकर छिपाए रखा है। आपको अटल बिहारी वाजपेयी के भाषणों का विश्लेषण करना होगा। फिर शब्द और मंशा के बीच की खाई दिखाई पड़ेगी। शब्द ताकतवर के लिए अक्सर ढाल का काम करते हैं। उसके सहारे किसी भी हमले का समना संभव है। लेकिन आख़िर जॉर्ज ऑरवेल ने बताया है कि कैसे भाषा तानाशाहों के हाथ आकर मायने खो देती है। भारत के लिए यह ऐसा ही वक़्त है। शायद ही इसके इतिहास में ऐसा मौक़ा कभी आया हो कि शब्द जो कहे जाते हों, उनके मायने ठीक उसके उलट हों। 
मोदी वर्ष में हाशिए पर उदार सोच
देश के जाने-माने पत्रकार व चर्चित स्तंभकार मधुकर उपाध्याय कहते हैं कि केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार ने एक साल पूरा कर लिया है और, ज़ाहिर है, इस समय सुर्खियां उसी के कामकाज की हैं। मोटे तौर पर इन चर्चाओं में सरकार की क्षमता, योग्यता, उपलब्धि और विफलता प्रायः इसी क्रम में बहस में आती है। पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में उसे मंत्रालय-वार एक से लेकर दस तक नंबर दिए जाते हैं और विपक्ष भी इन्हीं आंकड़ों में उलझकर रह गया है। लेकिन कुछ प्रश्न इन आंकड़ों से बाहर भी बचते हैं। वे व्यापक समाज की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं पर विमर्श में शामिल नहीं होते। उदाहरण के लिए यह देखा और पूछा जाना चाहिए कि क्या बहुसंख्यक समाज में उदार विचार और उसकी ज़मीन हाशिए पर चली गई है? या धकेल दी गई है? क्या उदात्त हिंदू चिंतन और स्वर ख़ामोश हो गया है? यह कि क्या वैचारिक आक्रामकता समाज का नया स्थाई भाव है? ये सवाल दो बार पहले भी उठे थे। अस्सी के दशक में सिख समुदाय और उसके अगले दशक में उदार मुस्लिम समाज के संदर्भ में। यह पूछा गया था कि क्या कोई समुदाय केवल समर्थन या विरोध के दो छोटे हिस्सों से बनता है? उसमें वृहत्तर उदार समाज की आवाज़ का कोई अर्थ नहीं है? भारत के तीन पड़ोसी देशों पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान और बांग्लादेश में ऐसी स्थितियां कई बार बनीं, जिनमें अल्पसंख्यक आक्रांताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि उदारता कट्टरपन का जवाब नहीं हो सकती। उसकी ज़मीन आसानी से छीनी जा सकती है। रक्षामंत्री मनोहर पार्रिकर का यह बयान कि आतंकवाद से आतंकवादी लड़ेंगे, उसी सोच का विस्तार है कि नेकनीयती और उदारता की जगह लगातार सिकुड़ रही है। शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने इस प्रयास को ‘सोचने की क़ुव्वत छीनना और आंख बंद किया जाना’ कहा था। कहा था कि ऐसे में ‘वह देखने, पढ़ने, सुनने की ख़्वाहिश होती है, जिसकी इजाज़त नहीं होती।’ फ़ैज़ की बेटी सलीमा हाशमी कहती हैं, ‘मुश्क़िलात सियासी हों या समाजी, जब आवाज़ें डुबोने लगती हैं तो एक तेज़ आवाज़ होती है। हालांकि उस आवाज़ को अक्सर जेलबंद कर दिया जाता है, वह लोगों की आवाज़ बनती है।" आपातकाल के दौरान भारत में ऐसी कई आवाज़ें उभरीं और जनता की आवाज़ बनीं। धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, कमलेश्वर, दुष्यंत कुमार उनमें से कुछ नाम थे। हरिशंकर परसाई थे, जिनके व्यंग्य से आहत संघ के कार्यकर्ताओं ने उन्हें पीट दिया। लेकिन यह चालीस साल पुरानी बात है। तब से स्थितियां बदली हैं और आक्रांता पहले की तुलना में अधिक सतर्क हैं। वे यह लड़ाई ख़ामोशी से, सोशल मीडिया जैसे नए हथियारों के साथ जीतना चाहते हैं। इसमें सतह पर जो दिखता है, उससे अधिक नीचे होता है। लेखिका अरुंधती रॉय संभवतः इसी बदलाव की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि दरअसल बेआवाज़ कोई नहीं है। बस, कुछ आवाज़ें जानबूझकर दबा दी जाती हैं और कुछ को सोच-समझकर अनसुना कर दिया जाता है।’ पारंपरिक जनसंचार माध्यमों में कॉर्पोरेट दबाव, जगह की कमी और उनका भोथरापन उदार समाज को आभासी माध्यमों की ओर धकेलता है, जो प्रायः छापामार शैली में काम करते हैं। लेकिन वहां संख्याबल किसी उदात्त अवधारणा को बेरहमी से कुचल सकता है। बदसलूकी और बदज़ुबानी उदार समाज को इन माध्यमों से दूर करती है। अख़बार, पत्रिकाएं और समाचार चैनल बेहद इकतरफ़ा नज़र आते हैं और चाय-पान की दूकानों की चर्चा का खुलापन ख़तरे में दिखाई देता है।इसकी वजह पर बात नहीं होती लेकिन साफ़ लगता है कि कोई अकारण वैचारिक आक्रांताओं की चपेट में नहीं आना चाहता। चीनी रणनीतिकार सुन ज़ा ने ढाई हज़ार साल पहले कहा था कि शांति का रास्ता युद्ध के मैदान से होकर जाता है, लेकिन अब युद्ध के नियम बदल गए हैं। लड़ाई केवल निर्धारित मैदान या तय समय पर नहीं होती। बल्कि उसका ज़्यादा बड़ा मैदान समाज होता है, वैचारिक लड़ाई उसका हिस्सा होती है और चौबीसों घंटा लड़ी जाती है। यह लड़ाई इस हद तक सार्वजनिक होती है कि उसके एक-एक पल की ख़बर सबके पास होती है। मोबाइल कैमरों से तस्वीरें खींची जाती हैं, साझा होती हैं। पीठ भी मोबाइल पर थपथपाई जाती है। सब कुछ मय दस्तावेज़। ऐसे में एक सवाल उठता है कि आक्रामकता की ‘सेल्फ़ी’ समाज की नई तस्वीर है या उदार सोच का ‘ग्रुप फ़ोटो’? इसका जवाब कई देशों में कई बार मिल चुका है और फिर मिलेगा लेकिन फ़िलहाल तो समाज सेल्फ़ी युद्ध काल में लगता है। ‘इमरजेंसी जैसे हालात पैदा कर रही मोदी सरकार’ नई दिल्ली। दिल्ली के एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) में आने वाले दूसरे राज्यों के अधिकारियों की तनख्वाह रोके जाने की आशंका के बाद इस मसले पर सियासत गरमा गई है। आम आदमी पार्टी (आप) सरकार ने जुबानी हमला करते हुए कहा कि मोदी सरकार इमरजेंसी जैसे हालात पैदा कर रही है। आप के प्रवक्ता आशुतोष ने कहा कि जिस तरह केंद्र धमकी दे रहा है, अधिकारियों पर फैसले लिए जा रहे हैं, एलजी हर रोज मुद्दे डिक्टेट कर रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि मोदी और बीजेपी सरकार दिल्ली में इमरजेंसी जैसे हालात पैदा करना चाहती है। सीएम अरविंद केजरीवाल ने एसीबी अधिकारियों के मसले पर साथ देने के लिए बिहार के सीएम नीतीश कुमार को शुक्रिंया कहा है। दिल्ली और केंद्र के विवाद में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी पूरी तरह कूद पड़े हैं। नीतीश ने कहा कि करप्शन के खिलाफ दिल्ली सरकार की मुहिम पर केंद्र अड़ंगा डाल रहा है। नीतीश ने एंटी करप्शन ब्यूरो में नियुक्ति विवाद पर तूल देते हुए कहा कि केंद्र दिल्ली सरकार को अफसर नहीं दे रहा है, इसलिए वे केजरीवाल की अपील पर बिहार के अधिकारियों को दिल्ली भेज रहे हैं। इस बीच, दिल्ली के मुख्य सचिव केके शर्मा ने कहा कि अगर केंद्र एसीबी के अफसरों का वेतन नहीं देगा, तो उन्हें दिल्ली विधानसभा वेतन देगी। दरअसल, कहा जा रहा है कि दिल्ली एसीबी में आने वाले दूसरे राज्यों के अधिकारियों की तनख्वाह गृह मंत्रालय रोक सकता है। गृह मंत्रालय का मानना है कि ये सभी नियुक्तियां बिना उपराज्यपाल की मंजूरी के की गई हैं, इसलिए ये वैध नहीं हैं। दिल्ली सरकार के कर्मचारियों की तनख्वाह केंद्रीय गृह मंत्रालय के जरिए दिया जाता है। ऐसे में केजरीवाल सरकार की मुसीबत बढ़ सकती है। (साभार)
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