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ये वो राहुल नहीं, लेकिन क्या वो राहुल हैं, जो नहीं थे

रवीश कुमार, नई दिल्ली। साल भर पहले की तो बात थी, जब पत्रकार राहुल-राहुल चिल्लाते रह जाते थे और राहुल गांधी जेब में हाथ डाले संसद की सीढ़ियां चढ़ते हुए अंदर चले जाया करते थे। बुधवार को संसद से निकलते ही राहुल गांधी को कैमरों से घिरा देख लगा कि कुछ बदला है। यह दुर्भाग्य है कि हमारी राजनीति में संगठन और विचार से ऊपर व्यक्ति और उसे लेकर बनाई जाने वाली छवियां प्रमुख हो गईं हैं फिर भी आखिरी के दो पैमानों से देखें तो राहुल गांधी के भीतर बहुत कुछ बदलता हुआ नज़र आएगा। कैमरों से चुपचाप भागने वाले राहुल गांधी भी बाकी नेताओं की तरह शोर पैदा करने लगे हैं। वे कैमरों की तरफ लौटने लगे हैं। हमारी राजनीति शोर की शिकार हो गई है। यह एक तथ्य है। एक शोर के मुकाबले या समानांतर दूसरा शोर रचा जाता है। ट्वीटर और व्हाट्स अप जैसे प्रपंच प्रकोष्ठों के लिए हर शोर एक खुराक है। अभी तक सिर्फ प्रधानमंत्री की टीम का ही शोर था अब राहुल गांधी की टीम भी शोर पैदा करने लगी है। शोर का जवाब शोर। सवाल और जवाब दोनों एक-दूसरे की अतीत की फाइल में गुमा दिए जाते हैं। किसानों के मसले पर आज सरकार और विपक्ष के सवालों का ग़ौर से अध्ययन करेंगे तो पता चलेगा कि सब एक घर छोड़ दूसरे घर की चाल रहे हैं, वहां से जहां वे अपने विरोधी को घेर सकते हैं। ज़मीन पर किसानों के लिए जो बदला है या नहीं बदला है वो इतना सरल नहीं है जितना सरकार का कोई मंत्री दावा कर देता है या राहुल गांधी एक छोर से नकार देते हैं। अनाज मंडियों की हकीकत संसद में दिए गए बयानों से नहीं दूर हो सकती न ही उन कमियों को संसद में उठा देने से। राहुल गांधी अब इस सवाल का जवाब नहीं देते कि वे कहां गए थे। जब लोकसभा में केंद्रीय मंत्री ने सवाल किया कि वे कहां थे तो राहुल गांधी जवाब नहीं देते बल्कि उल्टा सवाल करते हैं कि प्रधानमंत्री जो इन दिनों भारत आए हुए हैं, उन्हें पंजाब जाना चाहिए। रणनीतियों की एक ख़ूबी होती हैं। ये बाज़ार में बिकती हैं। बस पहले जो ख़रीद ले, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि बाद में आप नहीं ख़रीद सकते। अपना बोलना है। राहुल गांधी अब अपना बोलने लगे हैं। विदर्भ के इलाकों से आई तस्वीरों को टीवी पर थोड़ी देर के लिए देखा। कैमरों की भीड़ में राहुल गांधी के साथ-साथ वो किसान भी खो सा गया है, जिसे मिलकर इन नीति निर्धारक तत्वों को बताना है कि नीतियों में कहां चूक हो रही है? यह संवाद थोड़ा कैमरों के लिए तो हो मगर थोड़ा किसानों के लिए भी हो। जहां राहुल गांधी अपनी सरकारों की भी नीतियों की आलोचना करते दिखें और कुछ नया सीखते नज़र आए। वे भी इस जोश में बीजेपी की तरह ग़लती कर रहे हैं जब यूपीए के ढलान पर बीजेपी के प्रवक्ता एनडीए के छह साल को स्वर्ण युग की तरह बताने लगे थे। कोई भी युग स्वर्ण युग नहीं होता है। वो अपनी विसंगतियों और ख़ूबियों से भरा होता है। विपक्ष में रहते हुए किसी भी नेता के पास औसत और तुलनात्मक रूप से ईमानदार होने का मौका होता है, राहुल गांधी को उस मौके का लाभ उठाना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार की ज्यादातर नीतियां मनमोहन सिंह सरकार के जैसी ही हैं। प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों में ख़ूबियों की मात्रा भले ही कुछ अधिक हो, लेकिन वो हैं तो मनमोहन सिंह वाली हीं। मनमोहन सिंह नहीं, बल्कि वही जो कॉरपोरेट तय करता है। वक्त आ गया है कि राहुल गांधी सरकार से सख़्त सवाल करें और इसका भी टाइम आ गया है कि राहुल गांधी से सख्त सवाल हों। व्यक्तिगत नहीं, बल्कि नीतिगत, लेकिन लोकतंत्र में एक नेता की व्यक्तिगत यात्रा का भी संज्ञान लिया जाना चाहिए। मुझे इसमें बड़ा बदलाव दिख रहा है। राहुल गांधी ने राहुल गांधी होने का लोड उतार फेंका है। अब वो राहुल गांधी नहीं हैं, जो दस सालों तक खुद को विशिष्ट बनाए रखते थे। संसद में न के बराबर बोलते थे कि वे राहुल गांधी हैं। लेकिन अब उन्हें अहसास हो गया है कि सत्ता चली गई है। ये एक सहज राहुल गांधी हैं। अपनी लाइन तय करने लगे हैं। दुनिया चाहे कुछ भी बोले। वे अपने ऊपर हंसे जाने को झेलने लगे हैं। उनके भीतर का भय चला गया है कि विरोधी उन्हें पप्पू समझते हैं। राहुल गांधी ने अपने विरोधी को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है और शायद उनके विरोधी भी। बड़े लोगों की सरकार, सूट बूट की सरकार, क्या किसान मेक इन इंडिया नहीं है, दो तीन उद्योगपतियों की सरकार चल रही है। राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तमाम नारों को चुनौती दे रहे हैं। वे नारे जो अब ब्रांड बन गए हैं, उनसे राहुल टकरा रहे हैं। मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्वच्छ भारत और स्मार्ट सिटी। ये सब मोदी सरकार के ब्रांड नारे और कार्यक्रम हैं। इन नारों की राजनीतिक चुनौती ठीक से पेश नहीं हो सकी है। अभी तक राहुल गांधी ने नारों की शक्ल में ही हमला बोला है, लेकिन उन्हें इसके समानांतर अपना मॉडल भी पेश करना चाहिए। नारों से नहीं नीतियों के आधार पर बात हो सके। लोकसभा में किसानों को लेकर दो भाषण हुए हैं। दोनों ही भाषण एक जैसे हैं। उम्मीद थी कि पंजाब से लौटने के बाद मंडी सिस्टम की कमियों को ठीक से उजागर करेंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। एक सवाल है। ये सब जुमले तो राहुल ने लोकसभा से लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी उठाए। तब तो खास जगह नहीं मिली, अब क्यों मिल रही है। क्या ज़मीन पर कुछ बदल गया है। तभी उनके बोलते ही बीजेपी और एनडीए के मंत्री सांसद सक्रिय रूप से कूद पड़ते हैं। शायद उन्हें पता है कि इस देश में बोलना किसी को भी नेता बना सकता है। प्रधानमंत्री पर राहुल का आरोप नया तो नहीं है पर नए की तरह सुना क्यों जा रहा है। दिल्ली चुनाव में आम आदमी पार्टी ने नहीं, बल्कि राहुल गांधी ने 25 लाख के सूट का सवाल उठाया था और हर रैली में बोलते थे। मुझे ध्यान नहीं है कि दिल्ली चुनावों के दौरान अरविंद केजरीवाल ने कभी मोदी पर व्यक्तिगत हमला किया हो। राहुल गांधी अपने हर भाषण में प्रधानमंत्री मोदी को निशाना बना रहे हैं। राहुल गांधी लगातार कैमरों के बीच हैं। वे कैमरों के लिए रुकने लगे हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। नेता को झिझक से बाहर आना ही पड़ता है। प्रधानमंत्री के बयानों का भी मज़ाक उड़ता है। लोकसभा चुनावों के दौरान उनके भाषणों में तथ्यात्मक गलतियों की नीतीश कुमार ने धज्जियां उड़ाकर रख दी थीं, लेकिन इसके बाद भी प्रधानमंत्री रुके नहीं। इतिहास से लेकर तमाम तरह की चूक होती रहती हैं फिर भी प्रधानमंत्री अपना संवाद जारी रखते हैं। राहुल गांधी कुछ-कुछ वैसे ही हो रहे हैं, लेकिन याद रखना चाहिए कि जैसे प्रधानमंत्री के बातों की कॉपी चेक होती है, उनकी बातों की भी होगी। (साभार)
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