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संस्कार, सभ्यता और संस्कृति के संगम का साक्ष्य बनेगा कन्यादान समागम

मैरवा (सीवान)। विवाह एक पवित्र बंधन है। दो आत्माओं का मिलन है। इसके माध्यम से नर और नारी मिलकर एक परिपूर्ण व्यक्तित्व की, एक गृहस्थ संस्था की स्थापना करते हैं। किसी भी समाज में वर्जनाओं को बनाए रखने तथा नैतिक मूल्यों का आधार सुदृढ़ बनाने के लिए विवाह एक र्कत्तव्य बंधन के रूप में अनिवार्य माना जाता है। स्वाभाविक है कि ऐसे प्रसंग पर सभी को प्रसन्नता होती है, सभी कुटुम्बीजन सार्वजनिक रूप से हर्षोत्सव मनाते हैं। विवाहोत्सव के तरीके अलग-अलग हो सकते हैं पर हर्षाभिव्यक्ति का रूप प्रायः सभी देशों-वर्गों में एक सा ही है। 18 अप्रैल को बिहार के सीवान जिलान्तर्गत मैरवा उपनगरी स्थित हरिराम राम हाई स्कूल का लंबा-चौड़ा क्रीड़ांगन कन्यादान समागम के तत्वावधान में होने वाले 51 जोड़ों सामूहिक विवाह किया जाएगा। निश्चित रूप से इस दौरान कन्यादान समागम पारंपरिक संस्कार, सभ्यता और संस्कृति के संगम का साक्ष्य बनेगा। 51 दुल्हन को अपने-अपने दूल्हे के साध विदा होने के आयोजन के उपलक्ष्य में जिस हर्षाभिव्यक्ति का संचार किया जाना है, उसके लिए ग्राउंड को अजित कन्हैया ओझा और सुनीता ओझा के निर्देशन में दुल्हन की तरह सजाया गया है। खुबसूरत अत्याधुनिक पंडाल, विशाल मंच, बारातियों के खान-पान की व्यवस्था और वहां उमड़ने वाली भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बेहद सलीके से कन्यादान समागम के प्रबंध तंत्र द्वारा व्यवस्था की गई है। उल्लेखनीय है कि हिन्दू समाज में यह विवाहोत्सव जिस गरिमा के साथ सम्पन्न होना चाहिए था, जैसा कि भारतीय संस्कृति की अनादि काल से परंपरा रही है, वह न होकर कुछ ऐसे विकृत रूप में अब समाज के समक्ष आ रहा है कि लगता है कि गरीब माना जाने वाला यह राष्ट्र वास्तव में गरीब नहीं है या तो खर्चीली शादियों ने हमें गरीब बनाया है अथवा हम अमीरों का स्वाँग रचाकर अपने अहं का प्रदर्शन इस उत्सव के माध्यम से करने लगे हैं, जिसने एक उन्माद का रूप अब ले लिया है। ये तो रही उनकी बात जो आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपैया के तर्ज पर देखा-देखी में जरूरत से ज्यादा खर्च कर खुद को बरबाद कर लेते हैं। लेकिन यहां स्थिति भिन्न है। 18 अप्रैल को होने वाले 51 जोड़ों के सामूहिक वैवाहिक कार्यक्रम में अजित कन्हैया ओझा और उनकी पत्नी सुनीता ओझा ने अपनी व्यक्तिगत निधि से भारी-भरकम धनराशि खर्च कर यहां इतिहास रचने की ओर अग्रसर हैं। यदि पुनः व्यक्तिगत शादियों की चर्चा करें तो पता चलेगा कि विवाह जैसे धर्मकृत्य को, एक पुनीत प्रयोजन को क्यों अपव्यय प्रधान प्रदर्शन से, अहंता के उद्धत नृत्य के रूप में बदल दिया गया। दान-दहेज, तिलक, नेग-चलन पर धूमधाम से अधिकाधिक खर्च किया जाता है और उसी में बड़प्पन का अनुभव किया जाता है। इसे समाज के लोग गर्व की बात मानने लगे हैं। आमतौर पर यह देखा जाता है कि जो अपने घर में होने वाले विवाहों में जितना अधिक अपव्यय करता है, उसी अनुपात में उसे बड़ा आदमी माना जाता है, यह एक विडम्बना है। पारस्परिक प्रतिस्पर्द्धा इतनी बढ़ गयी है, कि पहले से दूसरा व दूसरे से तीसरा अधिकाधिक खर्च करता देखा जाता है। अपनी कथाकथित प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व फूँककर भी शादियाँ सम्पन्न की जाती हैं व इसी में बड़प्पन माना जाता है। वहीं दूसरी तरफ अजित कन्हैया ओझा और उनकी पत्नी सुनीता ओझा ने उन खर्चीली परंपराओं पर ब्रेक लगाने और समाज को एक सकारात्मक संदेश देने का जो सफल प्रयास किया है, वह बेशक अनुकरणीय है। हमारे देश में जहाँ तीन चौथाई आबादी रोज कुँआ खोदकर पानी पीने जैसी कहावत चरितार्थ कर अपनी उसी दिन की आजीविका की व्यवस्था करती है तथा अधिकतर व्यक्ति जो मध्यम वर्ग के वेतन भोगी हैं, व्यापारी हैं उनकी भी ऐसी स्थिति नहीं है, बावजूद वे इस प्रतिस्पर्द्धा में पिस जाते हैं। औसत भारतीय बचत तब करता है, जब कमाई बढ़ती है और आजीविका के अन्य वैकल्पिक स्रोत विकसित होते हैं। यूं कहें कि यह सब करने का प्रयास अभी चलता ही रहता है तब तक लड़की विवाह योग्य हो जाती है। ऐसे में कन्याओं की दुर्गति होना स्वाभाविक है। लड़की वाला वैसे भी हमारे समाज की चली रही षड्यंत्रकारी नीति के कारण दीन-हीन, भिक्षुक की तरह गिड़गिड़ाता रहता है पर उसकी सुनता कौन हैं? लड़के नीलामी की तरह बोली पर चढ़े रहते हैं, अनाप-शनाप माँग होती है। वधू पक्ष उसमें पूरी तरह कंगाल हो जाता है । आज बड़ी संख्या में अधेड़ होती जा रही अविवाहित कन्याओं की समस्या इसी विवाहोन्माद के अभिशाप के कारण पैदा हुई है। जब तक लड़के का विवाह आमदनी का एक साधन माना जायेगा, तब तक वस्तुतः लड़कियों को सताए जाने का क्रम बन्द नहीं होगा। लड़की पक्ष के गरीब व दीवालिए होते चले जाने का सिलसिला रुकेगा नहीं। इन खर्चीली वर्जनाओं को तोड़ते हुए सामूहिक कन्यादान की योजना बनाकर अजित कन्हैया ओझा और सुनीता ओझा ने मैरवा की इस माटी पर न सिर्फ इतिहास रचा है, बल्कि नई इबारत गढ़ दी है। समस्या तो निश्चित ही विकट है । बढ़ती आधुनिकता व साधनों के संचय की होड़ में यह और भी विकराल रूप लेती जा रही ह । इसका समाधान धर्मतंत्र के माध्यम से ही निकल सकेगा । इसमें कोईसं देह नहीं । कन्यादान समागम की तैयारियो के सिलसिले में ही गुरुवार को ग्राऊंड में अजित कन्हैया ओझा ने अपने सहयोगियों दुर्गा प्रताप सिंह उर्फ पप्पू सिंह, जितेन्द्र सिंह, उपेन्द्र पाण्डेय, जितेन्द्र पटेल आदि के साथ तैयारियों का निरीक्षण किया और आवश्यक निर्देश दिए। यद्यपि शादी शाम को होगी लेकिन अभी से ही ग्राउंड में भीड़-भाड़ और गहमागहमी शुरू हो गई है। जानकारों का कहना है कि 1920-23 के दौरान भारतीय विवाह पद्धति पर लिखे विश्वनाथ काशिनाथ राजवाडे के निबंध संकलित रूप में भारतीय विवाह संस्थेचा इतिहास (भारतीय विवाह संस्था का इतिहास) के रूप में 1926 में प्रकाशित हुए। इसका पहला अध्याय स्त्री-पुरुष समागम में कई अतिप्राचीन आर्य प्रथाओं का ज़िक्र था। यह पहली बार 1923 की मई में पुणे की चित्रमयजगत पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इसमें वेद संहिता, महाभारत और हरिवंश के उद्धरणों और साक्ष्यों द्वारा यह कहा गया था कि अत्यंत प्राचीन आर्य समाज में भाई-बहन और पिता-पुत्री के बीच शारीरिक संबंध होते थे। इन निर्बंध शारीरिक संबंधों का आगे किस प्रकार विकास हुआ यही इस निबंध का विषय था। इस पुस्तक का दूसरा अध्याय स्त्रियों की वंश-प्रवर्तक शक्ति और प्रजापति संस्था में उन्होंने यह दिखाया कि कैसे एक बालक को दूसरे से अलग पहचानने के लिए पिता की जगह मातृकुल का नाम दिया गया, क्योंकि तब स्त्री-पुरुष संबंध मिले-जुले होते थे। .

प्रस्तुतिः राजीव रंजन तिवारी (whats app. और फोन नं,- 08922002003), email ID- trajeevranjan@gmail.com
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