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वाह भाई वाह, फिर मैरवा में 18 अप्रैल को होगा 51 जोड़ों का सामूहिक विवाह

अजित कन्हैया ओझा व सुनीता ओझा के निर्देशन में बीते कई वर्षों से चल रहे इस वैवाहिक कार्यक्रम की हो रही है जोरों पर तैयारियां 
मैरवा (सीवान)। विश्व के सभी मानव समुदायों में स्री-पुरुष का सामाजिक मान्यता प्राप्त संयोग (विवाह) उनकी सामाजिक व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है। भारतीय आर्यवर्ग में इसका एक बहुत लंबा इतिहास रहा है, जो विभिन्न कालों में अपनी इस लंबी यात्रा के विभिन्न पड़ावों से गुजरता हुआ आगे बढ़ता रहा है। फलतः इसमें अनेक प्रकार के देश-कालगत अंतर दृष्टिगोचर होते हैं। अब यदि गौरवशाली अतीत वाले बिहार के मैरवा (सीवान) की बात करें तो यहां का कन्यादान (वैवाहिक) समागम वर्तमान को भी समृद्धशाली बनाने के लिए कृतसंकल्प दिख रहा है। 12 अप्रैल को मैरवा के ब्याहुत भवन में कन्यादान समागम की हुई बैठक में गजब का आकर्षण दिखा। इसकी अध्यक्षता कन्यादान समागम के राष्ट्रीय समन्वयक दुर्गा प्रताप सिंह उर्फ पप्पू ने की। 18 अप्रैल को गुठनी मोड़ स्थित हरिराम हाईस्कूल के विशाल क्रीड़ास्थल में 51 कन्याओं का सामूहिक विवाह करने की योजना है। इसी की तैयारी के सिलसिले में हुई इस बैठक में जिस तरह लोगों का उत्साह दिखा, उसकी जितनी भी सराहना की जाए कम होगी। खैर, विवाह के संस्कारगत स्वरुप पर विचार करने से पूर्व इसके ऐतिहासिक पक्ष की ओर नजर डालें तो हमारे पुरातन सामाजिक स्वरुप को समझने में आसानी होगी। महाभारत के एक पुरातन आख्यान से पता चलता है कि पति-पत्नी के रुप में स्री-पुरुष के स्थायी संबंधों की नींव ॠषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने डाली थी। इस आख्यान के अनुसार पुरातन काल में कभी मानव समाज में स्री-पुरुष के यौन संबंध अनियमित थे। स्रियों में यौन स्वातन्त्र्य की स्थिति थी। इस पशुकल्प स्थिति का अंत किया था, श्वेतकेतु ने। जब श्वेतकेतु ने अपनी मां को अपने पिता के सामने ही बलवत् एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा, तो उससे रहा न गया और वह क्रुद्ध होकर इसका प्रतिरोध करने लगा। इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते हुए कहा, यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है। इसमें कोई दोष नहीं, किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाशविक व्यवस्था कह कर, इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन किया। जबकि एक अन्य आख्यान के अनुसार स्रियों के लिए एक पति की मर्यादा का विधान स्वेच्छाचारी जन्मांध ॠषि दीर्घतमस ने तब किया, जब कि उनके निरंकुश यौनाचार की प्रवृति से तंग आकर उनकी पत्नी उन्हें छोड़कर जाने लगी थे। ये दोनों ही संदर्भ उस काल के हैं, जब मानव समाज अपनी आदिम असभ्य अवस्था से निकलकर एक सामाजिक व्यवस्थिति की ओर बढ़ रहा था। यदि मौजूदा हालात की चर्चा करें तो समाज में व्यभिचार, दुराचार और छेड़छाड़ की घटनाएं आम हैं। उसमें भी अधिकांशतः वह लड़कियां इसकी शिकार होती हैं, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि बेहद कमजोर और दया का पात्र है। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि कमजोर पृष्ठभूमि वाले माता-पिता अपनी लड़कियों की शादी करने में भी सक्षम नहीं होते। नतीजतन बढ़ती उम्र के साथ उन लड़कियों पर असामाजिक तत्वों की कुदृष्टि पड़ने लगती है और वे अत्याचार की शिकार हो जाती हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में कन्यादान समागम मैरवा की चर्चा लाजिमी है। 12 अप्रैल को हुई तैयारी बैठक में मैरवा प्रखंड प्रशासन, व्यवसायिक संघ जीरादेई, नौतन, गुठनी व दरौली के सामाजिक कार्यकर्ता भारी संख्या में इकट्ठे हुए। समागम के राष्ट्रीय महासचिव कृष्ण कुमार सिंह ने सभा में मौजूद लोगों को सामूहिक विवाह के उद्देश्यों की जानकारी दी। उन्होंने बताया कि सामूहिक विवाह की परिकल्पना कन्यादान समागम की संयोजक सुनीता ओझा की है। श्रीमती ओझा की इस पुनीत सोच दहेज प्रथा उन्मूलन, कन्या भ्रूण हत्या और कन्याओं पर होने वाले अत्याचार को रोकने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम होगा। बताया गया कि सुनीता ने ही अपने पति अजित कन्हैया ओझा को भी इस दिशा में कदम बढ़ाने को प्रेरित किया। दोनों पति-पत्नी मुम्बई में एक शिपिंग कंपनी के संचालक हैं। ये लोग अपनी निजी आय से इस प्रकार सामाजिक कार्यों को करके मानवीय अलख जगा रहे हैं। प्रमुख समाजसेवी व चिंतक जितेन्द्र सिंह (मुड़ा वाले) ने मैरवा के लोगों से इस पुनीत कार्य में नैतिक समर्थक देते हुए अधिक से अधिक संख्या में बारात में हिस्सा लेने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि बेटी-वृक्ष बचाओ अभियान के अंतर्गत कन्यादान समागम शिद्दत से लगा हुआ है और भविष्य में भी वह अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करता रहेगा, यही उम्मीद है। इस तैयारी बैठक में बीडीओ सुधीर कुमार सिंह व थाना प्रभारी अखिलेश कुमार मिश्रा ने कहा कि सामूहिक विवाह की पहल जनकल्याणकारी है। इस तरह के कार्यों में सहयोग करना मानवीय धर्म है। इस मौके पर सीओ नंद किशोर सिंह, देव दर्शन फिल्म्स प्रोडक्शन के चेयरमैन/निर्माता उपेन्द्र पाण्डेय, फिल्म निर्देशक अरविन्द आनंद, पीएन सिंह, वीरेन्द्र कुशवाहा, जयप्रकाश यादव, चंद्रशेखर सिंह, मो.कय्यूम अंसारी, ओमकार प्रसाद, मुखिया संजय सिंह, चंदन सिंह, रत्नेश पाण्डेय, जदयू के पूर्व जिलाध्यक्ष चंद्रकेतु सिंह, अली अब्बास, रामेश्वर राय, सुरेन्द्र चौबे, विक्रमा प्रसाद यादव, नन्दूजी, राजू जायसवाल, नरोत्तम मिश्र, अरुण गुप्ता, ओमप्रकाश, डा.रामाजी मिश्र, डा.दिनेश चंद्र, सरपंच गौरीशंकर यादव, केएन दूबे, बलवंत सिंह, संदीप घोषाल, हरिकांत सिंह आदि मौजूद रहे। उल्लेख्य है कि भारतीय इतिहास में एक मान्य सामाजिक संस्था के रुप में विवाह संस्कार का विवरण हमें भारत के ही नहीं, अपितु विश्व के सर्वप्रथम लिखित ग्रंथ ॠग्वेद ( 6 4 2, x 8 5 ) में मिलने लगता हैं। विवाह संस्कार में प्रयुक्त किये जाने वाले सभी वैदिक मंत्रों का संबंध ॠग्वेद में वर्णित सूर्य एवं सूर्या के विवाह से होना इस तथ्य का निर्विवाद प्रमाण है कि इस युग में आर्यों की वैवाहिक प्रथा अपना आधारभूत स्वरुप धारण कर चुकी थी तथा विवाह संस्कार से सम्बद्ध सभी प्रमुख अनुष्ठान- पाणिग्रहण, हृदयालभन, अश्मारोहण, ध्रुवदर्शन, सप्तसदी आदि अस्तित्व में आ चुके थे। इसके बाद धर्मसूत्रों के समय तक तो इस संस्कार का काफी विस्तार हो चुका था तथा सामाजिक स्तर पर प्रत्येक संस्कारवान् व्यक्ति के लिए इसके विनियोगी का पालन करना एक प्रकार से अनिवार्य हो गया था। महाभारत के आदि पर्व में "आश्रमधर्म' तथा "पतिव्रतधर्म' पर किये गये प्रवचनों से पता चलता है कि उत्तरकुरु को छोड़कर शेष संपूर्ण आर्यावर्त में वैवाहिक संबंधों की पावनता तथा पतिव्रतधर्म के प्रति नारी जाति की प्रतिबद्धता का भाव भली-भांति प्रतिष्ठापित हो चुका था। अब यदि कन्यादान की चर्चा करें तो सबसे पहले उसका अर्थ जानना जरूरी है। कन्यादान का अर्थ कन्या का पिता या अभिभावक उसे वर को देता और वर उसे स्वीकार करता था, तब पिता वर से कहता था कि तुम धर्म, अर्थ और काम तीनों पुरुषार्थों में अपनी पत्नी का सहयोग लेना और वर तीन बार प्रतिज्ञा करता था कि वह ऐसा ही करेगा। विवाह के बाद "पाणिग्रहण' होता था, जिसमें पति प्रतिज्ञा करता था कि तुम्हारे पति के रुप में रहने की इच्छा से मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा है। तुम यह भली-भांति समझ लो कि देवताओं ने तुम्हारा शरीर मुझे इसलिए दिया है कि मैं तुम्हारे साथ गृहस्थ के कर्तव्यों को पूरा कर सकूँ। वधू अर्यमा, वरुण, पूषा और अग्नि देवताओं के लिए अग्नि में खीलों की आहुति देती थी, जिससे कि उसका दांपत्य जीवन सुखमय हो। अग्नि परिणयन में पति अग्नि और जल- कलश की तीन बार परिक्रमा करता था और पत्नी उसका अनुसरण करती थी। इस समय वर कहता था कि मैं आकाश हूँ और तुम पृथ्वी हो। मैं साम ( संगीत) हूँ, तुम कविता हो। इसलिए हम विवाह कर रहें हैं अर्थात् हम दोनों के जीवन में किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है। हम प्रेम से रहें और संतान उत्पन्न करें, हमारा जीवन निष्कलंक हो। इस प्रकार हम दोनों सौ वर्ष जियें। इसी के साथ अश्मारोहण की क्रिया होती है, जिसमें वर की सहायता से वधू पाषाण- शिला पर पैर रखती है। उस समय वर कहता है कि तेरा प्रेम मेरे प्रति इतना दृढ़ हो, जितनी कि यह पाषाण शिला है। इस के बाद "सप्त- पदी' होती है, जो विवाह संस्कार का सबसे महत्वपूर्ण अंग है। इसमें वर-वधू साथ-साथ सात कदम रखते हैं और वर कहता है कि जीवन की स्फूर्ति, शक्ति, धन, संतान और दीर्घ सौभाग्य- पूर्ण जीवन के लिए हम ये सात कदम रख रहे हैं। तुम मेरी जीवन संगिनी बनो, जिससे कि हम दीर्घायु होकर धार्मिक कृत्य कर सकें और संतान उत्पन्न कर सकें। बहरहाल, मैरवा उपनगरी के इतिहास में अजित ओझा और सुनीता ओझा द्वारा आरंभ किए गए इस सामूहिक विवाह कार्यक्रम की चहूंओर तारीफ हो रही है।
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