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मुलायम सिंह यादव के लिए ‘दूर’ नहीं है ‘दिल्ली’

राजीव रंजन तिवारी 
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल इलाका बनारस और आजमगढ़ आजकल दुनिया के नक्शे पर चमक रहा है। वजह सिर्फ इतना है कि बनारस से भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं और आजमगढ़ से तीसरे मोर्चे के अहम किरदार तथा सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव उर्फ नेताजी दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने की तैयारी में हैं। फिलहाल चर्चा आजमगढ़ से चुनाव लड़ रहे मुलायम सिंह यादव की। हालातों के गहन अध्ययन व सघन समीक्षा के बाद यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि कैफी आजमी और अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की धरती आजमगढ़ से चुनाव लड़ रहे समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव के पक्ष में छोटे-छोटे संगठनों की हो रही लामबंदी इस सीट पर उनकी जीत की राह आसान करती जा रही है। मुस्लिम बहुल इस क्षेत्र में जीत-हार की चाभी पूरी तरह मुसलमान मतदाताओं के हाथों में जाती दिख रही है। जानकार मानते हैं कि राष्ट्रीय उलमा काउंसिल, कौमी एकता पार्टी, पीस पार्टी और कुछ अन्य मुस्लिम संगठनो के विरोध के साथ ही एएमयू टीचर्स एसोसिएशन भी सपा सुप्रीमो के लिए चुनौती पैदा कर सकते है। अगर इसके चलते मुस्लिम मतों का विभाजन होता है तो मुलायम के लिए चुनौती गहरा सकती है। बावजूद इसके सपा मुसलमानों के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाए हुए है। दरअसल, आजमगढ़ से मुलायम के चुनाव लड़ने की घोषणा से यहां के सपा नेताओं में उत्साह का संचार हुआ था। लेकिन कुछ मुस्लिम नेताओं की गतिविधियों ने उन्हें परेशान कर दिया है। फिर उनके हौसले बढ़े हुए हैं। वर्ष 2009 में आजमगढ़ में साम्प्रदायिक रुप से बेहद ध्रुवीकृत माहौल में भाजपा के रमाकांत यादव सांसद चुने गये थे। इस बार रमाकांत को चुनौती देने के लिए बसपा ने जिले की मुबारकपुर विधानसभा सीट से विधायक शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को टिकट दिया है। मुलायम के आने से पहले इस सीट पर मुख्य लड़ाई भाजपा और बसपा के बीच ही मानी रही थी लेकिन सपा सुप्रीमो के मैदान में उतरने से लड़ाई रोचक हो गयी है। जानकार मानते हैं कि यादव मतदाता का झुकाव जाहिर तौर पर मुलायम की तरफ है, लेकिन उनमें से ज्यादातर अब भी भ्रमित हैं। असली सफलता-असफलता मुस्लिमों के रुख से पैदा होगी। सबके बावजूद आजमगढ़ को सपा का गढ़ माना जाता है। यहां की दस विधानसभा सीटों में से नौ पर सपा का कब्जा है। ऐसे में मुलायम को अपने छोटे बेटे को यहां से राजनीति में उतारना एक सोची-समझी रणनीति हो सकती है। सपा सूत्रों के मुताबिक दोनों सीटों (मैनपुरी, आजमगढ़) पर जीत दर्ज करने के बाद सपा प्रमुख की योजना मैनपुरी सीट को कायम रखकर और आजमगढ़ को छोड़कर बाद में यहां होने वाले उपचुनाव में बेटे प्रतीक यादव को इस सीट से चुनाव लड़ाकर राजनीति में पदार्पण कराने की है। पार्टी की तरफ से हालांकि अभी इस बात का खुलासा नहीं किया गया है कि मुलायम आजमगढ़ की सीट छोड़ देंगे। फिर भी इसे तय माना जा रहा है कि दोनों सीटों पर जीतने के बाद मुलायम अपनी परंपरागत मैनपुरी सीट छोड़ने वाले नहीं हैं। वैसे प्रतीक को आजमगढ़ से चुनाव लड़ाने की मांग करीब साल भर पहले उठी थी, जब पार्टी की तरफ से लोकसभा उम्मीदवारों की सूची जारी की जा रही थी, लेकिन उस समय कैबिनेट मंत्री बलराम यादव को यहां का टिकट दिया गया था। फिलहाल, पार्टी की तरफ से कहा जा रहा है कि वाराणसी सीट से चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी के प्रभाव को कम करने और सीटों की संख्या बढ़ाने के लिए मुलायम आजमगढ़ से भी मैदान में उतरे हैं। वैसे तो अभी तक इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के निवर्तमान सांसद रमाकांत यादव की जीत की संभावना व्यक्त की जा रही थी, लेकिन अब मुलायम के यहां से मैदान में उतरने से समीकरण बदल गए हैं और उनका (मुलायम) पलड़ा भारी नजर आ रहा है। गौरतलब है कि आजमगढ़ की राजनीति मुस्लिम-यादव समीकरण पर आधारित है। यहां आधी आबादी में 25 फीसदी यादव और 25 फीसदी मुसलमान हैं। यही समीकरण मुलायम सिंह यादव को दिल्ली की गद्दी तक पहुंचाने और पूर्वांचल की कई सीटों पर असरकारक रहने के लिए काफी है। दरअसल, मुस्लिम यादव समीकरण मुलायम सिंह की बड़ी ताकत है। आजमगढ़ में उनके इस पुराने नुस्खे की तगड़ी जोर आजमाइश हो रही है। शायद यही वजह है कि चुनावी चक्रब्यूह में उलझे पिता के चुनाव की कमान सीएम बेटे अखिलेश सिंह यादव ने सम्भाल रखी है। बेहद उलझे सामाजिक समीकरणों वाले आजमगढ़ संसदीय क्षेत्र में सामाजिक ध्रुवीकरण कोई नया फैक्टर नहीं है। हालांकि मुलायम के विरोधी मानते हैं कि आजमगढ़ संसदीय सीट से चुनावी समर में उतरे सपा सुप्रीमो जाति के भीतर जाति के चक्रव्युह में उलझ गए हैं। मुलायम सिंह यादव का माई (मुस्लिम यादव) समीकरण भी बिखराव की ओर है। भाजपा प्रत्याशी रमाकान्त यादव के साथ-साथ बसपा व कौमी एकता फैक्टर भी निष्कंटक राह मे रोड़े अटका रहा है। इन सबके बावजूद इस समीकरण पर समीचीन होगी कि वाराणसी से नरेन्द्र मोदी के चुनाव लड़ने की घोषणा होते ही आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का एलान कर सपा सुप्रीमो ने बड़ा दांव चला था। यह बड़ा फैसला लेकर नेताजी ने यह साबित कर दिया कि उनके दिल में केवल पश्चिम ही नहीं बल्कि पिछड़े पूर्वांचल का दर्द भी झंकृत होता है। वे चाहते हैं कि पश्चिमी क्षेत्र की भांत पूर्वांचल का सर्वांगीण विकास हो, यहां भी कल-करखाने लगे, युवाओं को रोजगार मिले, शिक्षा का उत्थान हो, उत्तम स्वास्थ्य कायम रहे। मतलब ये कि आजमगढ़ आने के बाद सपा के लिए पूर्वांचल में भी सीटें बढ़ने की उम्मीद है। फलस्वरूप इधर जितनी अधिक सीटें बढ़ेंगी मुलायम सिंह यादव का ‘प्रधानमंत्री’ बनने का सपना साकार होता दिखेगा। समाजवादी पार्टी मुखिया मुलायम सिंह यादव के आजमगढ़ से चुनाव लड़ने के फैसले पर जानकारों का कहना था कि इससे पूर्वांचल में 'मोदी लहर' को रोकने के साथ-साथ यादव-मुस्लिम गोलबंदी मजबूत करने में भी कामयाबी मिलेगी। एसपी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव ने आधिकारिक रूप से घोषणा की थी कि एसपी प्रमुख ने पार्टी के पूर्वांचल के सभी जिलों के कार्यकर्ताओं और नेताओं की मांग का सम्मान करते हुए मैनपुरी के साथ-साथ आजमगढ़ सीट से भी चुनाव लडने का निर्णय लिया है। गौरतलब है कि एसपी प्रमुख के आजमगढ़ से भी चुनाव लडने की अटकलें काफी पहले से लगायी जा रही थीं। पार्टी ने पूर्व में इस सीट से सूबे के पंचायती राज मंत्री बलराम यादव को उम्मीदवार बनाया था। एसपी प्रमुख के आजमगढ़ से चुनाव लडने से पूर्वांचल में लोकसभा चुनाव की लडाई और दिलचस्प हो गई है। जानकार बताते हैं कि 1967 में डा. राममनोहर लोहिया के समय के बाद आजमगढ़ समाजवादियों का गढ़ तो हो गया लेकिन रामजन्म भूमि आन्दोलन के बाद खासा उलझ भी गया। जिस सामाजिक समीकरण को लेकर समाजवादी पार्टी वजूद में आयी उस यादव और मुस्लिम वोट बैंक का ज्वलन्त नमूना आजमगढ़ है। आजमगढ़ में माई समीकरण बेहद मुफीद रहा है। खास बात यह है कि भाजपा के उम्मीदवार रमाकान्त यादव न सिर्फ पहले सपा में ही रहे हैं बल्कि मुलायम सिंह यादव के चेले भी रहे हैं। इसलिए गुरू के हर दांव की काट भी उन्हें बखूबी मालूम हैं। वह 1996, 1999 में सपा तथा 2004 में बसपा और 2009 में भाजपा के टिकट पर चुनाव भी जीत चुके हैं। चार चार बार सांसद रहे रमाकान्त पांचवीं बार संसद पहुंचने के लिए पूरी प्रतिष्ठा एवं ताकत लगाये हुए हैं। देखना है क्या होता है?
(लेखक देश के जाने-माने स्तंभकार हैं)
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