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15वीं लोकसभाः ज्यादा काम, थोड़ा नाकाम?

चक्षु रॉय 
(पीआरएस लेजिस्लेटीव रिसर्च)
नई दिल्ली। 15वीं लोकसभा का आख़िरी सत्र बेहद हंगामेदार साबित हुआ। लोकसभा के सीधे प्रसारण को रोककर तेलंगाना विधेयक को पारित किया गया। इस फ़ैसले को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी अपने विदाई भाषण में काफी मुश्किल भरा बताया। बतौर प्रधानमंत्री वे सदन में आख़िरी बार नज़र आए। उन्होंने संसद के सभी सदस्यों का शुक्रिया भी अदा किया। लेकिन संसद के इस कार्यकाल की आलोचना भी ख़ूब हुई। आलोचकों के मुताबिक भारतीय संसदीय इतिहास में बीते पांच साल सबसे बुरे रहे। हालांकि दूसरी ओर इस लोकसभा के कार्यकाल के दौरान सरकार ने कई अहम विधेयकों को पारित किया। हालांकि हमें ऐसे देखना चाहिए कि इस दौरान क्या काम हुए और क्या काम नहीं हो पाए। यह हकीकत है कि बीते पांच वर्षों संसद जितना काम कर सकती थी, उतना नहीं किया गया, लेकिन बहुत सारे काम हुए भी हैं। 2009 में जब 15वीं लोकसभा आई थी। सरकार ने आते ही शिक्षा का अधिकार क़ानून पास करा दिया था। फिर बात आई महिलाओं के आरक्षण बिल की जिसे 2010 में राज्यसभा में पास कराया गया। 2010 के शीतकालीन सत्र से संसद के कामकाज में कुछ कमी आने लगी। व्यवधान ज़्यादा होने लगे, जिससे काम बाधित होने लगे। इस वजह से 2010 का शीतकालीन सत्र पूरी तरह से बर्बाद हो गया। दोबारा काम की प्रक्रिया बढ़ी 2013 में, जब खाद्य सुरक्षा विधेयक, भूमि अधिग्रहण बिल और दिसंबर आते-आते लोकपाल विधेयक भी पास हो गया। हालांकि इन विधेयकों को पास कराने के दौरान उन पर कभी राजनीतिक सहमति नहीं बन पाई। जब महिला आरक्षण बिल पास हो रहा था तो समाजवादी पार्टी के 7-8 सांसदों को सस्पेंड करना पड़ा, तब बिल पास हो सका। उसी तरह तेलंगाना बिल पास कराने के लिए लोकसभा और राज्यसभा से सांसदों को सस्पेंड करना पड़ा। सदन में चर्चा कम और हंगामा ज़्यादा हुआ। विपक्ष बार-बार विधेयक पास कराने पर ज़ोर देता रहा, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि बिना चर्चा के विधेयक पास कराए जाए। राष्ट्रपति जी भी फरवरी के शुरू में कहा था कि संसद बहस-मुबाहिसों के लिए है ना कि हंगामा के लिए। बावजूद इसके बीते पांच साल के दौरान चर्चा कम हुई है और विरोधाभास ज़्यादा रहे। कई लोग मानते हैं कि टीवी पर सीधे प्रसारण के चलते हंगामा ज़्यादा हुए। हंगामे के पीछे दो या तीन कारण हो सकते हैं। पहला कि कोई सदस्य कोई विषय उठाना चाहते हैं व उन्हें मौका नहीं मिल रहा। इसलिए कार्यवाही में बाधा डाल कर अपनी बात कहना चाहते हैं। दूसरी वजह यह हो सकती है कि राजनीतिक कारणों से पहले से तय हो कि रुकावट डालनी है। इसे रोकने का एक तरीका यह है कि सदन की कार्यवाही से पहले सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों बैठकर यह फैसला लें कि किस विषय पर चर्चा करनी है और किस पर नहीं। इसमें कैमरे की कोई भूमिका नहीं है। कैमरा रखें या नहीं, यदि आपसी समझ नहीं बनी है तो बाधा आएगी ही। एक बात ये भी दिखी कि संसद सदस्यों की गरिमा घटी है। इसके लिए सांसद ही जिम्मेवार हैं। पिछले वर्षों में लोगों में संसद के प्रति ये इमेज बनी कि यहां सिर्फ तू-तू, मैं-मैं ही होती है तो ये सही है। यहां सिर्फ हंगामा हो रहा था, काम नहीं। अगर काम होता तो यह इमेज नहीं बनती। उपराष्ट्रपति ने एक सत्र में कहा भी था कि हम लोगों के बीच क्या इमेज दे रहे। पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने एक बार सदन में खड़े होकर कहा था कि सदन में जितने सदस्य हंगामा कर रहे हैं मैं अपेक्षा करता हूं कि वह अगले चुनाव में हार जाएं। इसलिए अगर संसद को अपनी मर्यादा रखनी है तो सांसदों को उस हिसाब से बर्ताव करना होगा। जब 15वीं लोकसभा चुन कर आई थी तो 543 में से 307 लोकसभा सदस्य पहली बार चुने गए थे। उम्मीद थी कि ये लोग बेहतर करेंगे, ऐसा हुआ नहीं।
(साभार बीबीसी। बीबीसी संवाददाता विनीत खरे के साथ बातचीत पर आधारित)
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