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कांग्रेस का नया चुनावी दांव

(आशुतोष, मैनेजिंग एडीटर, आईबीएन 7) 
अर्थव्यवस्था के भयंकर संकट से घिरी है सरकार। रुपया खिसकते-खिसकते पैंसठ के पार चला गया है और विकास दर सिसकते-सिसकते 4.4 पर आकर ठहर गई है। रुपये और विकास दर के बीच कांग्रेस की सांस अटकी हुई है। चुनाव हाथ से फिसलता नजर आ रहा है। इस बीच तड़ातड़ दो बिल संसद में पेश हुए। खाद्य सुरक्षा बिल और भूमि अधिग्रहण बिल। खाद्य सुरक्षा बिल में देश की 80 फीसदी आबादी को भोजन मुहैया कराने की गारंटी, तो भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों की इच्छा के बगैर जमीन लेने पर रोक की तैयारी है। कांग्रेसी हलके में चर्चा है कि दोनों ही बिल कांग्रेस को उसी तरह से जीत के दर्शन कराएंगे, जैसे मनरेगा और किसानों की कर्ज माफी ने 2009 में कांग्रेस की राह आसान की थी। खबर यह भी है कि कांग्रेस का ही एक आर्थिक सुधारवादी तबका यह सोचता है कि इससे आर्थिक विकास की गति थमेगी और संकट बढ़ेगा। लेकिन शायद सोनिया गांधी को यकीन है कि महंगाई, घोटालों और नेतृत्वहीनता के गंभीर आरोपों से जूझ रही सरकार के पास चुनाव जीतने का कोई कारगर मंत्र नहीं है, लिहाजा लोक-लुभावन योजनाओं से ही आम आदमी का दिल जीता जा सकता है। सोनिया गांधी के इस मूड ने एक बार फिर इंदिरा गांधी की याद दिलाई है। इंदिरा गांधी हवा के खिलाफ दो टूक फैसले लेने के लिए जानी जाती थीं। उनकी निर्णय क्षमता पर आलोचक भी सवाल नहीं खड़े करते थे। 1967 के बाद चाहे वह पार्टी के आधिकारिक राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी की जगह वी वी गिरि को समर्थन देना हो, या फिर बैंक राष्ट्रीयकरण करना और प्रिवी पर्स खत्म करना हो, या 1971 में बांग्लादेश को आजाद कराने के लिए सेना भेजना हो, या फिर 1984 में स्वर्ण मंदिर से चरमपंथियों को निकालना हो, एक बार तय करने के बाद इंदिरा गांधी हिचकी नहीं। किसी मामूली नेता के लिए सत्तर के दशक में आपातकाल लागू करने का फैसला आसान नहीं होता। इंदिरा गांधी ने न केवल फैसला किया, बल्कि गलती का एहसास होते ही आपातकाल उठा भी लिया। सोनिया गांधी के करीबी लोगों का कहना है कि राजनीति में दिलचस्पी नहीं होने के बाद भी उन्होंने इंदिरा गांधी को काफी करीब से देखा और उनसे काफी कुछ सीखा। इसकी एक झलक देखने को मिली थी अन्ना के पहले आंदोलन में। सोनिया गांधी को पहले दो दिन में ही अंदाजा हो गया था कि अन्ना का उपवास कांग्रेस पर भारी पड़ सकता है। आनन-फानन में चार दिन में ही समझौते की सूरत निकाल ली। जबकि अगस्त महीने में रामलीला मैदान के दौरान सोनिया बीमार थीं और राहुल गांधी समेत तमाम बड़े नेता फैसला नहीं कर पाए। आंदोलन 13 दिन चला और कांग्रेस-सरकार की हालत पतली हो गई। इसी तरह, अमेरिका के साथ परमाणु करार के समय भी सोनिया गांधी पूरी ताकत से मनमोहन सरकार के साथ खड़ी हो गईं और लेफ्ट की समर्थन वापसी की परवाह किए बगैर डील पास कराकर ही मानीं। महिला आरक्षण बिल पर जब एक रात पहले पूरी कांग्रेस पार्टी के हाथ-पैर फूले हुए थे, तो सोनिया गांधी ने कैबिनेट के वरिष्ठ सहयोगी को साफ कहा कि बिल संसद में लाना ही होगा, भले ही इसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़े। यूपीए-दो के समय सोनिया गांधी की तबियत बेहतर नहीं थी और साथ ही राहुल को पार्टी की बागडोर संभालने की ऊहापोह ने पार्टी को काफी समय तक अनिर्णय की स्थिति में डाले रखा। यह ऐसा वक्त था, जब पार्टी और सरकार को लकवा मारने की बात कही जाने लगी। भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे। कई मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा। अर्थव्यवस्था डांवांडोल हुई। पार्टी में निराशा का भाव जगा। चुनाव के पहले ही तमाम नेता कहने लगे कि पार्टी सौ सीट भी ले आए, तो बड़ी बात होगी। सोनिया फिर सक्रिय हुईं। पूरी इंडस्ट्री, बुद्धिजीवी वर्ग और सरकार-पार्टी के एक बड़े तबके के विरोध के बावजूद दोनों बिलों को लाने का फैसला किया। यह सच है कि सोनिया गांधी के सामने इंदिरा जैसी चुनौती कभी नहीं रही। न ही उन्हें पार्टी पर नियंत्रण के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। शरद पवार ने जरूर विदेशी मूल का मुद्दा उठाया, पर यह मसला परवान नहीं चढ़ा और हारकर पवार को उनसे ही गठबंधन करना पड़ा, जबकि इंदिरा गांधी को शुरुआती दिनों में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। पार्टी पर पुराने दिग्गज और क्षेत्रीय क्षत्रप हावी थे। कामराज, एस निजलिंग्प्पा, मोरारजी देसाई, जगजीवन राम, एस के पाटिल, अतुल्य घोष जैसे लोगों की तूती बोला करती थी। ये सभी लोग जवाहरलाल नेहरू के समकक्ष और सहयोगी थे। इंदिरा गांधी ने इन सबका मुकाबला करने और पार्टी को दक्षिणपंथी नेताओं के चंगुल से बाहर लाने के लिए रातोंरात समाजवादी एजेंडे को आगे किया। लेफ्ट का समर्थन लेकर मोरारजी जैसे तगड़े प्रतिद्वंद्वी और पुराने दिग्गजों को किनारे लगा दिया। आज बाजारवाद के जमाने में सोनिया गांधी पर भी यह आरोप लग रहा है कि वह पीछे के दरवाजे से समाजवादी एजेंडे को फिर पार्टी पर थोपना चाहती हैं। यह कहा जा रहा है कि खाद्य सुरक्षा बिल और भूमि अधिग्रहण बिल से किसानों और गरीबों का भला हो या न हो, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था जरूर डीरेल हो जाएगी। सोनिया राजनीतिज्ञ हैं, मनमोहन अर्थशास्त्री। सोनिया गांधी को पता है कि अगर कांग्रेस सत्ता में नहीं आई, तो आर्थिक सुधारों की गति कैसी भी हो, उसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा। वह इस बात से वाकिफ हैं कि सरकार की लोकप्रियता रसातल में पहुंच गई है। महंगाई काबू में नहीं है। घोटालों का जवाब देना नामुमकिन है। उत्तर भारत के शहरी इलाकों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है। पेट्रोल, गैस, प्याज के दाम आसमान छू रहे हैं। ऐसे में, कांग्रेस किस मुंह से चुनाव में जाएगी? गरीब को भोजन और किसान को जमीन का नारा कम से कम गांव-देहात और शहरी निम्न वर्ग को आकर्षित कर सकता है। ऐसे में, हवा के खिलाफ जाकर बिल को पास कराने की कोशिश सोनिया गांधी का आखिरी दांव है। क्या वह इंदिरा गांधी की तरह कामयाब होंगी? जब उन्होंने यह कहकर विपक्ष की हवा निकाल दी थी कि वह कहते हैं- इंदिरा हटाओ, हम कहते हैं गरीबी हटाओ। पर वह सत्तर की बात थी। विपक्ष तब कमजोर था। देश में कांग्रेस की तूती बोलती थी। आज कांग्रेस कमजोर है और विपक्ष बराबर। जवाब जल्द मिलेगा। (साभार)
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